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स्पन्दन: निर्मिमेष मैं खड़ी रही, दृश्य विहंगम ऐसा था, अगणित रंगत लिए हुए था

raghvendra
Published on: 28 Oct 2017 4:03 PM IST
स्पन्दन: निर्मिमेष मैं खड़ी रही,  दृश्य विहंगम ऐसा था, अगणित रंगत लिए हुए था
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स्पन्दन

निर्मिमेष मैं खड़ी रही ,

दृश्य विहंगम ऐसा था ,

अगणित रंगत लिए हुए था,

रंग न उसमें कोई था ।

नितांत अंधेरे में वह केवल,

एक दिया जलता रहता था,

ऊपर उसके कीट नहीं थे,

उच्छवास स्पन्दित था ।

था गौरव है गौरव उसको,

अभिमान न यह खंडित होगा,

प्रात: सायं अपराह्न रात्रि,

जलता उजियारा देता था ।

अनवरत चल रहा यह उपक्रम,

शैशव से प्रौढ़ा आ पहुँचा,

भंग हो गये नियम एकदिन ,

विचलित वह इस बार हुआ था ।

आंधी आई बरखा भीगी ,

बदल गया घर उपवन सब,

सबने परिवर्तन स्वीकारा,

अपने जैसा एक वही था ।

कर्म सफल करते-करते वह,

एक दिन ऐसा बन बैठा,

मस्तक पर आभा थी उसके,

दिव्य बांध वह बंधा हुआ था ।

निर्मिमेष मैं खड़ी रही...

दृश्य विहंगम ऐसा था...

- प्रतीक्षा तिवारी

raghvendra

raghvendra

राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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