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स्पन्दन: निर्मिमेष मैं खड़ी रही, दृश्य विहंगम ऐसा था, अगणित रंगत लिए हुए था
स्पन्दन
निर्मिमेष मैं खड़ी रही ,
दृश्य विहंगम ऐसा था ,
अगणित रंगत लिए हुए था,
रंग न उसमें कोई था ।
नितांत अंधेरे में वह केवल,
एक दिया जलता रहता था,
ऊपर उसके कीट नहीं थे,
उच्छवास स्पन्दित था ।
था गौरव है गौरव उसको,
अभिमान न यह खंडित होगा,
प्रात: सायं अपराह्न रात्रि,
जलता उजियारा देता था ।
अनवरत चल रहा यह उपक्रम,
शैशव से प्रौढ़ा आ पहुँचा,
भंग हो गये नियम एकदिन ,
विचलित वह इस बार हुआ था ।
आंधी आई बरखा भीगी ,
बदल गया घर उपवन सब,
सबने परिवर्तन स्वीकारा,
अपने जैसा एक वही था ।
कर्म सफल करते-करते वह,
एक दिन ऐसा बन बैठा,
मस्तक पर आभा थी उसके,
दिव्य बांध वह बंधा हुआ था ।
निर्मिमेष मैं खड़ी रही...
दृश्य विहंगम ऐसा था...
- प्रतीक्षा तिवारी
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