पुस्तक समीक्षा: हर व्यक्ति का सफर संघर्षों का जारी है

raghvendra
Published on: 5 Jan 2018 10:46 AM GMT
पुस्तक समीक्षा: हर व्यक्ति का सफर संघर्षों का जारी है
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‘सफर संघर्षों का’, ‘वह बजाती ढोल’, के सफर का भाग दो है। एक शिक्षाविद कारुलाल जमड़ा का ये काव्य संग्रह एक ओर गाँव के यात्रा करवाता है तो दूसरी ओर शहरीकरण, भौतिकतावादी एवं आधुनिकता की दौड़ में भाग रही नई पीढी से परिचय करवाता है। संग्रह चार भागों में बाँटा गया है। पुरानी यादों को लेकर स्मरण, रिश्तों के टूटते और माँ-बेटी की व्यथा को स्ववेदना, बदलते परिवेश की अनुभूति को स्वानुभूति में और सामाजिक चिंताओं को स्व-चिंतन में प्रस्तुत किया है।

कविता मेरा गाँव, यादें अपने गाँव की, इस दिवाली में, गाँव के मनोरम दृश्य एवं त्योहार के उल्लास का विवरण करती है, ‘मैं और मेरे दादाजी’ में बातों के माध्यम से बुजुर्गों के प्रति सम्मान, प्यार और कत्र्तव्य की बात कही है वहीं ‘बेफिकरा बचपन’ में पिता के साये में बीता बचपन याद आया। जामड़ा का बसंत ऋतु प्रेम, ‘बासंती यादें’ में झलकता है। पहले भाग की आत्मा ‘वह बजाती ढोल’ में समाई है। इस कविता के माध्यम से एक स्त्री के जीवन का चित्रण किया है जो अपने कंधों पर बीस किलों का ढोल टांगे परिवार के दायित्वों का निर्वाहन करती हुई लोगों के तीज-त्योहार को खुशी में तबदील करती है जबकि अब उस उंगलियां काँपने लगी है।

शीर्षक कविता- ‘सफर संघर्षों का’ के माध्यम से कवि ने एक स्त्री की संघर्ष गाथा को बेहद ही भावुकता के साथ प्रस्तुत किया है । एक स्त्री किस प्रकार बढ़ती उम्र के साथ परिवार और समाज में बदलाव से सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करती हुई अपना सफर जारी रखती है । संग्रह के दूसरे भाग - स्ववेदना में मां, बेटी और पिता की वेदनाओं को दर्शाया है। बेटियां किस प्रकार पीहर से कटती और ससुराल से सिमटती जाती, कविता ‘बेटियां ससुराम’ में बताया है। जब आया करते थे मेहमान में रिश्तों के बदलाव के कारण को इन पक्ंतियों में बताया है -

आज वैसे भी मेहमान आते नहीं हैं,

आयें कैसे? हम भी कभी जाते नहीं है।

घर पक्के और इरादे मोटे हो गए हैं,

भवन बड़े पर मन छोटे हो गए हैं।

वेदना का जल, कविता की इन पंक्तियों- जिद (दौड़ ) ऐसी कि सारे सपने कपूर हो गये और इस जिद में अपनों से ही दूर हो गये..., में बेहद ही भावुक कर दिया। आधुनिकता की दौड़ में समाप्त हो रही इंसानियत को इंसान की कदर करो भाई में व्यक्त किया है। अन्य कविताओं में भी वेदनाओं को बखूबी तरीके से प्रस्तुत किया है।

तीसरे खण्ड - ‘स्वानुभूति’ में उन अनुभूतियों को दर्शाया गया है जो कवि ने महसूस की है। कविता परिवर्तन और युग परिवर्तन में व्यक्ति के जीवनशैली में आए बदलाव पर चिंता व्यक्त की है। विडम्बना में एक कमजोर की कथा/व्यथा का विवरण है। कमजोर इसलिए मारा जाता है क्योकि वो कम-जोर होता है। इस खण्ड में ऐसा लगता है कि रचनाकार नें व्यक्तिगत जीवन को अधिक आधार बनाया है। ‘भोपाल से लौटकर’ में बेटियों का पिता के प्रति प्रेम और अपेक्षाओं को बेहद ही भावूकता के साथ कहा कि पापा! जल्दी आ जाना.....।

संग्रह के अंतिम खण्ड - स्व-चिंतन में कुछ चिंताओं पर बात की है तो कुछ बचे कार्यों को पूर्ण करने का आहवान किया है। व्यवस्थाओं से व्यथित होकर रचनाकार ये कहने को मजबूर हो जाता है कि - खूंटी पर टांगो स्वाभिमान। हृदय प्रदेश में वो अपने प्रदेश का भौगोलिक और सांस्कृतिक परिचय बड़ी ही कलात्मक तरीके से कराने सफल रहे है। कविता - ‘पेटू’ में एक मजबूर की व्यथा अधूरी सी महसूस हुई इसे और विस्तार दिया जा सकता था , कविता तीसरे छंद से पेटू की ओर चली गई। संग्रह का अंत उज्जैन में हुए सिंहस्थ पर दो सुन्दर गीत के साथ किया है।

बोधि प्रकाशन से प्रकाशित संग्रह‘ सफर संघर्षों का (वह बजाती ढोल) आवरण पृष्ठ से ही रोचक प्रकट होती है। आवरण चित्र प्रसिद्ध छायाकार बंशीलाल परमार की छायाकृति से सुसज्जित है। संग्रह की भूमिका पूर्व सांसद, कवि,गीतकार और चिंतक बालकवि बैरागी ने लिखी है।

जामड़ा ने आम बोलचाल की भाषा का उपयोग किया है। रचनाकार अपनी भावनाओं, कल्पनाओं और व्यथाओं को प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं।

एक सौ चौबीस पृष्ठों के इस संग्रह की कीमत दो सौ रुपये है।

- देवेन्द्र सिंह सिसौदिया

(समीक्षक, टिप्पणीकार, कवि, लेखक)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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