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अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करता संघ
प्रमोद भार्गव
देश के सबसे बड़े और प्रभावशाली सांस्कृतिक संघटन ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ‘ ने ‘भविष्य का भारत-संघ का दृष्टिकोण‘ विशय के तारतम्य में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट पारदार्षिता के साथ प्रस्तुत किया है। किसी देशव्यापी संगठन द्वारा विभिन्न राष्ट्रीय मुद्दों और अनुत्तरित प्रश्नों पर अपना नजरिया जनता के सामने उजागर करना एक बड़ी पहल है। यह नजरिया भी उस कालखंड में पेश आया है, जब संघ का ही अनुशांगिक दल भारतीय जनता पार्टी केंद्रीय सत्ता में होने के साथ अनेक राज्यों में भी सत्तारूढ़ है। संघ की पाठशाला से निकले नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में वैश्विक छवि ग्रहण के हिंदुत्व की उदारता का स्वरूप भी सामने ला रहे हैं।
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यह पहला अवसर है, जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने स्वीकारा कि देश की आजादी में कांग्रेस का योगदान मूल्यवान रहा है। अन्यथा संघ का नजरिया कांग्रेस के प्रति निंदा का ही रहा है। भागवत ने खुले मन से यह मंजूर करने में भी कोई संकोच नहीं किया कि ‘हिंदू राष्ट्र‘ का मतलब यह नहीं है कि इसमें मुस्लिमों को स्थान नहीं है। जिस दिन ऐसा हो जाएगा, उस दिन वह हिंदुत्व नहीं रहेगा, जो विश्व-बंधुत्व की अवधारणा पर अवलंबित है। दिल्ली में आयोजित तीन दिनी इस आयोजन में संघ की कोशिश रही है कि वे शंकाएं निर्मूल हों, जिनके चलते संघ को फासीवादी संगठन की संज्ञा दी जाती रही है। संघ के इस नजरिए के समक्ष उन कथित राजनीतिक और सांस्कृतिक संगठनों की बोलती बंद है, जो कश्मीर से विस्थापित हिंदुओं और घुसपैठी मुस्लिमों पर अपनी इकतरफा राय रखते हैं। भागवत ने भारत के भविष्य से जुड़े उस हर पहलू पर बेबाक राय रखी जो बीते 70 साल से ज्वलंत राजनीतिक किंतु अनुत्तरित मुद्दे बने हुए हैं।
संघ के इस सर्व-समावेशी सोच से प्रगट होता है कि संघ वाकई ऐसे भारत के निर्माण का इच्छुक हैं, जिसमें विकास, संसाधन और अवसरों का समान बंटवारा हो ? इस हेतु भागवत एक ऐसी जनसंख्या नीति के पक्षधर दिखाई दिए, जिसमें असंतुलन धार्मिक-वैचारिक अवधारणा के कारण भी होता है और अवैध घुसपैठ के कारण भी ? भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में बांग्लादेशी और म्यांमार से आए रोहिंग्या मुस्लिमों की घुसपैठ निरंतर बढ़ रही है, इस कारण इन सातों राज्यों का जनसंख्यात्मक घनत्व बिगड़ रहा है। इससे संसाधनों के बंटवारे में न केवल असमानता बढ़ी है, बल्कि यह घुसपैठ सांप्रदायिक धुव्रीकरण के चलते दंगों का कारण और उग्रवाद का पर्याय भी बन रही है। इसकी विपरीत परिस्थिती कश्मीर में दिखाई देती है। वहां पाकिस्तान पोषित और धर्म आधारित आतंकवाद पिछले तीन दशक से पनपा हुआ है। इस कारण हिंदु, सिख, बौद्ध और ईसाई घाटी से विस्थापित हुए और वहां विविधता कमोवेश नष्ट हो गई। जम्मू-कश्मीर को विषेशाधिकार का दर्जा देने वाले अनुच्छेद-370 और धारा 35-ए को हटाने की बात जोर पकड़ती है तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण न्याय और समता के समावेशी सरोकारों पर पानी फेर देता है और कांग्रेस जैसा राष्ट्रीय व अन्य क्षेत्रीय दल इस बदलाव पर मौन रहते हैं।
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विस्थापित पंडितों के मुद्दे पर नेशनल क्रांफ्रेस, पीडीपी और एआईएमएम कभी यह मंतव्य नहीं जताते कि घाटी से विस्थापित किए गए मूल-निवासियों की सम्मानजनक वापसी हो ? जबकि मोहन भागवत उदारतापूर्वक कह रहे है कि हिंदू राष्ट्र का मतलब यह नहीं है कि उसमें मुस्लिम नहीं रहेगा। जिस दिन ऐसा कहा जाएगा, उस दिन वो हिंदुत्व नहीं रहेगा, जो विश्व बंधुत्व की बात करता है। क्या, फारूक, उमर, महबूबा और ओवैसी इतने रहमदिल हैं कि वे कह सकें कि घाटी से पंडितों के विस्थापन ने यहां की सांस्कृतिक विविधता खत्म कर दी है, लिहाजा उनका पुनर्वास और सरंक्षण हमारा नैतिक और संवैधानिक दायित्व है। केवल मुस्लिम हितों की राजनीति करने वाले इन नेताओं में इतना साहस है कि वे पंडितों के समूह के आगे चलकर उन्हें उनके पैतृक घरों में ले जाने का वातावरण तैयार करें ? लेकिन अब्दुल्ला, महबूबा हों या औवैसी वे आखिर में अलगाववादी ताकतों से ही सुर मिलाते नजर आते हैं।
भागवत का यह कथन भी स्वागत योग्य है कि संघ देश पर प्रभुत्व स्थापित करना नहीं चाहता है, बल्कि वह सबको साथ लेकर चलना चाहता है। यही नहीं संघ जब शोषण मुक्त भारत, समान, शिक्षा और समाजवादी वैचारिकता की पहल करता हैं तो अंबेडकर और लोहिया की विचारभूमि को ही बल मिलता है। इसी तरह संघ का हिंदुत्व गांधी के हिंदुत्व से मेल खाता दिखाई देता है। दरअसल जिस सहिष्णुता, अहिंसा, सर्वधर्म समभाव और वसुधैव-कुटुंबकम् की बात भागवत ने की है, हिंदू धर्म के लगभग ऐसे ही विशेषणों के पक्षधर महात्मा गांधी रहे हैं। गांधी ने अमेरिका को 20 अक्टूबर 1927 को एक विस्तृत पत्र लिखा था, जिसके एक अंश के अनुसार ‘अध्ययन करने पर जिन धर्मों को मैंने जाना, उसमें हिंदू धर्म को सबसे अधिक सहिश्णु पाया है। इसमें सैद्धांतिक कट्टरता नहीं है। यह बात मुझे बहुत आकर्षित करती है, क्योंकि इस कारण इसके अनुयायी को आत्म-अभिव्यक्ति का अधिक से अधिक अवसर मिलता है। हिंदू धर्म वर्जनाशील नहीं है। दुनिया के सभी नबी और पैगंबरों के लिए इसमें स्थान है। इसीलिए इसके अनुयायी न केवल दूसरे धर्म का आदर करते हैं, बल्कि वे अन्य धर्मों की अच्छी बातों को अपनाते भी हैं। हिंदू धर्म सभी लोगों को अपने-अपने धर्म के अनुसार ईश्वर की उपासना करने का आग्रह रखता है। इसीलिए उसका किसी अन्य धर्म से झगड़ा नहीं होता है। अहिंसा यद्धपि सभी धर्मों में है, किंतु हिंदु धर्म में इसकी उच्चतम अभिव्यक्ति और प्रयोग हुआ है। मैं जैन और बौद्ध धर्म को इससे अलग नहीं मानता। हिंदू धर्म न केवल सभी मनुष्यों की एकात्मकता में, बल्कि समस्त जीवधारियों की एकात्मकता में विश्वास करता है। मेरी राय में हिंदु धर्म में गाय की पूजा मानवता के विकास की दिषा में उसके अनूठे योगदान से जुड़ी है। सभी प्रकार के जीवन की पवित्रता में इसके विष्वास का यह व्यावहारिक रूप है।‘
मोहन भागवत ने भी गौ-रक्षा और गौ-हत्या के सिलसिले में अपना रुख स्पष्ट करते हुए कहा है कि गोरक्षा से जुड़े लोगों को माॅब लिचिंग से जोड़ना उचित नहीं है। बावजूद गाय को लेकर हिंसा करना अपराध है और उस पर कड़ी कानूनी कार्यवाही होनी चाहिए। परंतु गाय देश में परंपरागत श्रद्धा का विषय भी है। करोड़ों लोगों के अर्थ और आजीविका का आधार भी गाय है, इसलिए गोरक्षा भी जरूरी है। संविधान का यह मार्गदर्शक तत्व भी है, इसलिए गऊ रक्षा जरूरी है। लेकिन गौ-तस्करों के पक्ष में आवाज उठाना गलत है। यह दोगली प्रवृत्ति है। इसे छोड़ना होगा। जिस गाय से सात करोड़ लोग आजीविका चलाते हैं और खेती-किसानी का आधार भी गाय से उत्पन्न बैल हैं, इसलिए गाय की रक्षा जरूरी है। गाय के सरंक्षण पर इतना स्पष्ट दृष्टिकोण कोई अन्य संगठन और उसके का साहस दिखा सकते हैं ?
भागवत के वक्तव्यों से स्पष्ट होता है कि आक्रामकता कट्टरता और धर्मांधता न तो कभी हिंदू धर्म के पर्याय रहे और न ही उनसे संघ और भाजपा का कोई वास्ता है। यही वजह है कि सांप्रदायिक टकराव के परिप्रेक्ष्य में हिंदु तुलनात्मक रूप में मुसलमानों से कमजोर पड़ते हैं। इसलिए जब घाटी में तनाव की स्थिति बनती है तो हिंदू आसानी से बिना किसी खूनी प्रतिकार के अपना घर-द्वार छोड़ देते हैं, जबकि पूर्वोत्तर के राज्यों में मुस्लिम घुसपैठी स्थानीय निवासियों से खूनी संघर्ष कर अपना वर्चस्व बनाए रखते हैं ? इसलिए जो भारत बनाम हिंदुओं के प्रभुत्व का इतिहास है, उसमें भारत ने कभी आक्रांता के रूप में आकर न तो किसी देश पर हमला किया और न ही धर्मांतरण को नीतिगत महत्व देकर अपने धर्म की आबादी को बढ़ाने का काम किया। इससे इतर इतिहास गवाह है कि यहूदी, इस्लाम और ईसाई जैसी जो सेमेटिक सभ्यताएं हैं, वे आक्रमणकारी तो रहीं ही, आज परस्पर भी लड़ रही हैं।
दरअसल इस आयोजन का जो उद्देश्य प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देता है, वह संघ को समावेशी बनाना या निरुपित करना है। क्योंकि संघ से जुड़े लोग अब तक हिंदू राष्ट्र और भारतीय राष्ट्रवाद को एकरूप में घोषित करते रहे हैं। एक समय अटलबिहारी वाजपेयी ने भी जनसंघ और भाजपा को यह समझाने की कोशिश की थी कि ‘हिंदु राष्ट्रवाद‘ की बात नहीं करके, हमें ‘भारतीय राष्ट्रवाद‘ के सिद्धांत को अपनाना चाहिए, लेकिन संघ ने तब इसे मान्यता नहीं दी थी। किंतु अब अटल जी के दिवगंत होने के बाद संघ अपने चरित्र में उदारता लाते हुए अंततः अटलबिहारी वाजपेयी के ही भारतीय राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाता दिख रहा है। इस राष्ट्रवाद में यदि मुस्लिम और इस्लाम परस्त जो राजनीतिक दल हैं, वे भी सहमत हो जाएं तो भारतीय राष्ट्रवाद एक शक्तिशाली धुरी के रूप में उभर सकता है ?
लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।