हाल चुनाव परिणाम के पहले सर्वे का: आधी हकीकत, आधा फ़साना

raghvendra
Published on: 26 April 2019 6:55 AM GMT
हाल चुनाव परिणाम के पहले सर्वे का: आधी हकीकत, आधा फ़साना
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श्रीधर अग्निहोत्री/ मनीष श्रीवास्तव

लखनऊ: भारत में सर्वे का चलन शुरू होने के बाद लोगों में लगातार इसका क्रेज बढ़ता ही जा रहा है। इन सर्वे रिर्पोटों में जो दल असफल दिखाया जाता है भले ही वह इसकी आलोचना करता हो मगर काफी संख्या में लोग सर्वे पर यकीन भी करते हैं। अपने दल को मिल रही सफलता को देखकर न तो उस दल के नेता इसे गलत मानते हैं और न ही उससे जुड़े कार्यकर्ता सर्वे का खंडन करते हैं। वैसे यह भी सच्चाई है कि कई बार चुनावों में सर्वे और एग्जिट पोल गलत साबित हुए हैं। नतीजे वैसे नहीं निकले जैसा अंदाजा लगाया गया था।

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चुनाव परिणाम के पहले सर्वे एक ऐसा आकर्षण है जिससे कोई बच नहीं पाता। यही नहीं, कई राजनीतिक दल भी अपनी पार्टी की स्थिति जानने के लिए चुनाव पूर्व सर्वे कराकर यह जानने का प्रयास करते हैं कि आखिरकार उनकी पार्टी चुनाव पूर्व स्थिति क्या है? ये सर्वे चुनाव के पहले और कुछ चुनाव के बाद भी कराए जाते हैं। सर्वे कई बार सही साबित होते हैं तो कई बार इसके उलट परिणाम भी आते हैं। लेकिन यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि अपने देश में सर्वे के प्रति लोगों का आकर्षण कम न होकर लगातार बढ़ता ही जा रहा है।

लोकसभा चुनाव-2019 की सात चरणों की यात्रा अपना आधा सफर पूरा कर चुकी है। तीन चरणों में 300 लोकसभा क्षेत्रों में मतदान हो चुका है और शेष चार चरणों में 243 लोकसभा क्षेत्रों में मतदान होना है। मतदान से पहले कई सीटों का आकलन करने वाले कई सर्वे और ओपिनियन पोल आ चुके हैं। 19 मई को अंतिम चरण का मतदान होगा और मतदान समाप्त होने के बाद ही एग्जिट पोल शुरू हो जाएगा। एग्जिट पोल का यह सिलसिला 23 मई को होने वाली मतगणना से पहले तक चलेगा।

कब हुई सर्वे की शुरुआत

ओपिनियन पोल की शुरुआत सबसे पहले अमेरिका में हुई। जॉर्ज गैलप और क्लॉड रोबिंसन को इसका पितामह माना जाता है। इसके बाद इंग्लैंड और फ्रांस ने भी सर्वे कराया। इंग्लैंड में 1937 और फ्रांस ने अगले साल यानी 1938 में सर्वे कराया। इसकी खास बात है कि इसमें लोगों के मन की बातें सामने लाने की कोशिश की जाती है जिसके आधार पर उस क्षेत्र की जनता के मूड को आंका जा सकता है।

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सर्वे कम्पनी को पता चल जाता है कि जनता की नाराजगी किस दल से और किस बात पर है? मतदाताओं से पूछा जाता है कि वह किसको अपना मत देना चाहते हैं?

भारत में हुई 1998 में सर्वे की शुरुआत

भारत में चुनावी सर्वे की शुरुआत 1998 में भारतीय जनमत संस्थान (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन) के प्रमुख एरिक डी कोस्टा ने की। पहले इन सर्वे को पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में प्रकाशित किया गया। बाद में टेलीविजन का चलन तेजी से बढऩे के कारण इस पर इलेक्ट्रिनिक मीडिया का कब्जा हो गया। अब पहले टीवी पर सर्वे आते हैं और उसके अगले दिन समाचार पत्रों और फिर पत्रिकाओं में प्रकाशित किए जाते हैं।

क्या होता है एक्जिट पोल

एक्जिट पोल इससे कुछ अलग होता है। यह मतदान होने के बाद कराया जाता है। वोट देने के बाद जब मतदाता पोलिंग बूथ से बाहर आता है तो उससे पूछा जाता है कि आपने किस दल अथवा किस प्रत्याशी को मतदान किया है? कुछ मतदाताओं से बात करके उस क्षेत्र के मूड का पता कर लिया जाता है। एक्जिट पोल की शुरुआत नीदरलैंड से हुई। वहां के एक समाजशास्त्री और पूर्व राजनेता मार्शल वान डेम ने 15 फरवरी 1967 से इसकी शुरुआत की थी। धीरे-धीरे इसका प्रचलन विश्व में बढ़ा और 90 के दशक में यह भारत आ पहुंचा।

चुनाव से होती है कमाई

भारत में सर्वे एजेंसियों की आय का सबसे बड़ा साधन चुनाव ही होता है। चुनाव में विभिन्न न्यूज चैनल और मीडिया संस्थान तो इनकी सेवाएं लेते ही है, राजनीतिक दल भी इनकी सेवा लेते हैं। राजनीतिक दल रणनीति तय करने के लिए चुनाव पूर्व सर्वे कराते हैं। इस सर्वे से राजनीतिक दलों को यह जानकारी मिल जाती है कि देश की जनता का मूड क्या है और कौन से मुद्दे चुनाव में असर डाल सकते हैं। इसके अलावा मौजूदा समय में तो राजनीतिक दल अपने प्रत्याशियों का चयन करने से पहले उनकी लोकप्रियता का सर्वे कराते हैं। देश में सत्तारूढ़ भाजपा अपने प्रत्याशियों का चयन पूरी तरह से सर्वे के आधार पर ही करती है। इसके लिए पार्टी की राज्य इकाई जिला स्तर से चुनाव में प्रत्याशी बनाए जा सकने वाले कार्यकर्ताओं की सूची मंगाती है। राज्य इकाई इसमें से तीन या चार उपयुक्त नामों को राष्ट्रीय स्तर पर भेज देती है।

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इसके बाद इन तीन या चार नामों की दावेदारी के संबंध में एजेंसी सर्वे करती है और सर्वे में जिस नाम को सर्वाधिक अंक मिलते है, उसे पार्टी अपना प्रत्याशी बना देती है। इतना ही नहीं विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने यहां ऐसे विशेषज्ञों को रखा हुआ है जो इस पूरे काम पर नजर रखते हैं। कांग्रेस ने मौजूदा लोकसभा चुनाव में किसी एजेंसी की सेवा तो नहीं ली है लेकिन सोशल मीडिया प्रमुख दिव्या स्पंदना और डाटा एनालिसिस डिपार्टमेंट के चेयरमैन प्रवीण चक्रवर्ती इस काम को देख रहे हैं। कर्नाटक में अभिनेत्री रही दिव्या खुद भी सांसद रह चुकी है, जबकि प्रवीण आईबीएम माइक्रोसॉफ्ट में कार्यरत थे। इसी तरह भाजपा के सर्वे और रिसर्च कार्य के पीछे एसोसिएशन आफ बिलियन माइंड है।

कभी फेल तो कभी पास होते हैं सर्वे

वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में सभी मीडिया हाउस के एक्जिट पोल सटीक अनुमान लगाने में विफल रहे थे। इस लोकसभा चुनाव में सभी यूपीए और एनडीए की जोरदार टक्कर बता रहे थे। कहा जा रहा था कि दोनों गठबंधनों के बीच बहुत नजदीकी मुकाबला है, लेकिन जब नतीजे आए तो यूपीए को एनडीए से 100 सीट से ज्यादा की बढ़त हासिल हुई। वर्ष 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में कराए गए सर्वे में अधिकतर कंपनियों ने दावा किया कि यूपी में त्रिशुंक विधानसभा के आसार हैं। केवल सीएनएन आईबीएन के सर्वे में सपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनती दिखाई गयी थी। जबकि अन्य सभी कंपनियों के एक्जिट पोल सपा को 200 सीटों के भीतर ही आंक रहे थे, लेकिन जब परिणाम आए तो सपा 224 सीटें लेकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफल रही। केवल सीएनएन-आईबीएन ने सपा को 232 से 250 सीटें मिलने का अनुमान लगाया था।

विरोध के बाद लगा था प्रतिबंध

जब भारत में कुछ राजनीतिक दलों ने सर्वे और ओपिनियन पोल का विरोध शुरू किया तो चुनाव आयोग ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन कोर्ट में दायर की गयी एक याचिका के बाद इस पर प्रतिबंध हटा लिया गया। 2009 में सर्वे को लेकर फिर आवाजें उठीं तो कानून मंत्रालय ने जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में संशोधन करते हुए यह शर्त लागू कर दी कि जब तक अंतिम मतदान न हो जाए तब एक्जिट पोल का प्रसारण न किया जाए। इसके बाद हुए चुनावों में एक्जिट पोल फिर शुरू हो गया और तब से जनता में इसका आकर्षण दिनों दिन बढ़ता ही रहा है।

कैसे जानते हैं जनता की राय

चुनावी सर्वे में हमेशा रैंडम सैंपलिंग का ही प्रयोग होता है। देश की बड़ी सर्वे एजेंसी लोकनीति (सीएसडीएस) भी रैंडम सैंपलिंग ही करती है। इसमें सीट के स्तर पर, बूथ स्तर पर और मतदाता स्तर पर रैंडम सैंपलिंग होती है। मान लीजिए कि किसी बूथ पर 1000 मतदाता है। उनमें से 50 लोगों का इंटरव्यू करना है तो ये 50 लोग रैंडम तरीके से शामिल किए जाएंगे। इसके लिए एक हजार का 50 से भाग दिया तो उत्तर आ गया 20। इसके बाद वोटर लिस्ट में से कोई एक ऐसा नंबर रैंडम आधार पर लेंगे जो 20 से कम हो।

मान लीजिए आपने 12 लिया तो वोटर लिस्ट में 12वें नंबर पर जो मतदाता होगा वो आपका पहला उत्तरदाता है। इसका आप इंटरव्यू करेंगे, फिर उस संख्या 12 में आप 20, 20, 20 जोड़ते जाइए और जो संख्या आए उस नंबर के मतदाता का इंटरव्यू करते जाइए। ओपिनियन पोल भी तीन तरह से कराए जाते है- प्री पोल, एग्जिट पोल और पोस्ट पोल। आम तौर पर लोग एग्जिट पोल और पोस्ट पोल को एक ही समझ लेते हैं, लेकिन ये दोनों एक-दूसरे से काफी अलग हैं।

लंबी और खर्चीली प्रक्रिया

अब बात आती है कि चुनावी सर्वे कराने में आने वाले खर्च की। भारत की बड़ी आबादी और विस्तृत भौगोलिक स्थिति को देखते हुए यहां चुनावी सर्वे कराना एक लंबी और खर्चीली प्रक्रिया है। देश में सर्वे कराने के लिए बड़ी संख्या में लोगों की जरुरत पड़ती है। देश में काम कर रही सर्वे एजेंसियों के लिए संभव नहीं है कि वह अपने वेतनभोगी स्टाफ से यह काम करवा पाएं। इसलिए सर्वे एजेंसियां इसके लिए प्रोजेक्ट के आधार पर देश भर में लोगों से अनुबंध करती है।

उन्हें बताया जाता है कि उन्हें कितने लोगों का इंटरव्यू करना है। इसी आधार पर उनका भुगतान किया जाता है। इसके अलावा सर्वे में आने वाला खर्च इस पर भी निर्भर करता है कि यह कहां कराया जा रहा है। आधुनिक सुविधाओं वाले शहरों की अपेक्षा कम सुविधाओं वाले स्थानों पर सर्वे की कीमत बढ़ जाती है।

पहले करना होता है फील्ड वर्क

ओपिनियन पोल तैयार करने के लिए पहला बड़ा काम फील्डवर्क का होता है। ओपिनियन पोल और सर्वे के लिए आमतौर पर एजेंसियां कुछ सवालों का एक फार्मेट तैयार करती हैं, जिनमें लोगों से जवाब लिए जाते हैं। जबकि एक्जिट पोल के लिए अधिकतर एजेंसिया अब मोबाइल ऐप के जरिए काम कर रही हैं।

हर चरण के मतदान के बाद इस ऐप के जरिए लोगों के रुझान का डाटा इन एजेंसियों के पास पहुंच जाता है और सभी चरणों के मतदान से मिले डाटा का विश्लेषण करने के बाद एजेंसियां एक रिपोर्ट तैयार करके सेवा लेने वाले न्यूज चैनल या राजनीतिक दल को भेज देती हैं। सर्वे में खर्च होने वाली रकम ज्यादा होने के कारण कुछ रीजनल व नेशनल चैनल इसे आपस में बांट लेते हैं।

एजेंसियां कितनी प्रमाणिक

अपनी प्रामाणिकता व साख बनाए रखने की जिम्मेदारी खुद एजेंसियों की ही होती है। कोई एजेंसी कितनी प्रमाणिक है, इसके लिए उसका ट्रैक रिकॉर्ड देखा जाता है।

उदाहरण के तौर पर लोकसभा चुनाव 2014 और यूपी विधानसभा चुनाव 2017 में ज्यादातर एक्जिट पोल चुनाव परिणामों से काफी अलग थे। यही कारण है कि राजनीतिक दल इनके आंकड़ों को अपनी तरह से इस्तेमाल करते हैं। इसलिए एजेंसियों की प्रामाणिकता पूरी तरह से उनके पिछले प्रदर्शनों पर ही आधारित होती है।

35 एजेंसियां कर रहीं हैं काम

देश में इस समय करीब 35 एजेंसियां इस काम में लगी हुई हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि ये सभी 35 कंपनियां हमेशा सक्रिय रहती हों। ये सर्वे कंपनियां प्रोजेक्ट के आधार पर काम करती हैं और इनके पास अनुबंधित स्टाफ का नेटवर्क होता है।

जैसे ही एजेंसी को कोई प्रोजेक्ट मिलता है तो वह अपने नेटवर्क को सक्रिय कर उस पर काम शुरू कर देती है। देश की बड़ी सर्वे एजेंसियों की बात करें तो इनमें सीएसडीएस, नील्सन, टूडेज चाणक्य, सिसरो, सी वोटर, एक्सिस लेडटेक, ग्राउंड जीरो रिसर्च, हन्सा, आईपीएसी, जन की बात और सीएनएक्स शामिल हैं।

ब्रांडिंग का काम करने वाले प्रशांत बने चहेते

यूनिसेफ में ब्रांडिंग का जिम्मा संभालने वाले पेशेवर इंजीनियर प्रशांत किशोर वर्ष 2011 में गुजरात के वाइब्रेंट गुजरात से जुड़े और इसकी सफल ब्रांडिंग की। इसी दौरान उनकी मुलाकात गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से हुई और फिर प्रशांत ने मोदी के लिए काम करना शुरू कर दिया। इसके बाद वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा के लिए काम किया और भाजपा की प्रचंड जीत ने उन्हें देश के सफलतम रणनीतिकार का दर्जा दिला दिया।

बताया जाता है कि 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रचार अभियान के दौरान चाय पर चर्चा और थ्री-डी नरेंद्र मोदी के पीछे प्रशांत का ही दिमाग था। इस सफलता के बाद प्रशांत और भाजपा के संबंधों में कुछ खटास आ गयी और प्रशांत नीतीश कुमार के बगलगीर हो गये। उन्होंने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू और राजद गठबंधन के लिए ब्रांडिग का काम किया और वह यहां भी सफल रहे। इसके बाद वर्ष 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में वह कांग्रेस के मुख्य रणनीतिकार बने, लेकिन यूपी में उनका करिश्मा नहीं चल पाया और कांग्रेस-सपा गठबंधन बुरी तरह हार गया। इसके बाद प्रशांत पर्दे के पीछे की राजनीति से निकलकर राजनीतिक मंच पर आ गए। उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी की शुरूआत जनता दल यूनाइटेड के साथ शुरू की है।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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