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व्यंग्य: गुस्से में, ...अक्षरों का डी.एन.ए. टेस्ट भी तो नहीं होता

raghvendra
Published on: 10 Nov 2018 2:09 PM IST
व्यंग्य: गुस्से में, ...अक्षरों का डी.एन.ए. टेस्ट भी तो नहीं होता
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अनूप शुक्ला

मीटिंग अच्छी-खासी चल रही थी। साहब को अचानक किसी बात पर गुस्सा आ गया। वैसे वे गुस्से के लिए कभी किसी के मोहताज भी नहीं रहे। जब मन आया कर लिया। कभी-कभी तो बेमन से भी गुस्से के पाले में कबड्डी खेलने लगते। लेकिन बेमन से गुस्सा करने में उनको वो मजा न आता। लगता गुस्सा न करके बंधुआ मजदूरी कर रहे हों।

गुस्से की गर्मी से अकल कपूर की तरह उड़ गई। कुछ मोटी अकल जो उड़ न पाई वो नीचे सरक कर घुटनों में छुप गई। दिमाग से घुटने तक जाते हुए शरीर के हर हिस्से को चेता दिया कि साहब गुस्सा होने वाले हैं। संभल जाओ। सारे अंग अस्तव्यस्त होकर कांपने लगे। कोई बाहर की तरफ भागना चाह रहा था कोई अंदर की तरफ। इसी आपाधापी में उनके मुंह से कुछ शब्द-गोले की तरह छूटते हुए एक दूसरे को धकिया कर ऐसे गिर-गिर पड रहे थे जैसे रेलवे के जनरल डिब्बे से यात्री उतरते समय यात्रियों पर गिर-गिर पड़ते हैं। कुछ बड़े-बड़े शब्द आपस में टकरा-टकरा कर चकनाचूर होने के बाद बाहर निकलने तक केवल अक्षर दिखाई देते थे। लेकिन वे जिस तरह से बाहर टूट-फूट कर बाहर सुनाई देते थे उससे पता नहीं लगता कि अक्षर बेचारा किस शब्द से बिछुडक़र बाहर अधमरा गिरा है। ‘ह’ सुनाई देता तो पता नहीं लगता कि ‘हम’ से टूट के गिरा है ‘हरामी’ से। हिम्मत खानदान का है या हरामखोर घराने का! अक्षरों का डी.एन.ए. टेस्ट भी तो नहीं होता।

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जब साहब गुस्से में काँप रहे होते तो किसी पम्प सेट के पाइप सरीखे उनका मुँह हिलता। शब्दों की धार बाहर निकलती और गुस्से में काँपने का मतलब यह नहीं होता कि गुस्सा बहुत तेज है। काँपना डर के मारे होता है कि अगला भी न गुस्साने लगे। न्यूटन का क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम हर जगह सही साबित होता है।

मैंने आज तक जितने गुस्सैल लोग देखे हैं हमेशा उनके गुस्से को ऊर्जा के गैरपरम्परिक स्रोत की तरह पाया। अगर लोगों के गुस्से के दौरान निकलने वाली ऊर्जा को बिजली में बदला जा सके तो तमाम घरों की बिजली की समस्याएँ दूर हो जाएँ। जैसे ही कोई गुस्से में दिखा उसके मुँह में पोर्टेबल टरबाइन और जनरेटर सटा दिया। दनादन बिजली बनने लगी। अभी लोग गुस्सैल लोगों से बचते हैं, पर तब गुस्सैल लोगों से बिजली के खंभे से कटिया की तरह सटे रहेंगे।

जैसे लोग नहाते समय आमतौर पर कपड़े उतार देते हैं वैसे ही गुस्से में लोग अपने विवेक और तर्क बुद्धि को किनारे कर देते हैं। कुछ लोगों का तो गुस्सा ही तर्क की सील टूटने के बाद शुरू होता है। बड़े-बड़े गुस्सैल लोगों के साथ यह सच साबित हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास ने लक्ष्मण जी के गुस्से का सौंदर्य वर्णन करते हुए लिखा है-

लक्ष्मणजी तमतमा उठे। उनकी भौंहें टेढ़ी हो गयीं। ओंठ फडक़ने लगे और आँखें गुस्से से लाल हो गयीं। गुस्से के लक्षण देखते ही उनकी तर्क बुद्धि ने उनसे समर्थन वापस ले लिया और वे बोले-यदि भगवान राम की आज्ञा पाऊँ तो ब्रह्मांड को गेंद की तरह उठा लूँ। उसे कच्चे घड़े की तरह फोड़ डालूँ। सुमेरू पर्वत को मूली की तरह तोड़ दूँ। जिस ब्रह्मांड में हम खड़े हैं उसे उठाने और घड़े के समान फोड़ देने की कल्पना केवल गुस्से में ही की जा सकती है। पोयटिक जस्टिस के सहारे। हम तो अपनी कुर्सी सहित अपने को उठाने की कल्पना करने में ही परेशान हो जाएँ।

गुस्से में आदमी चाहे कोई भी भाषा बोले समझ में नहीं आती। लेकिन भारत में लोग गुस्सा करते समय और प्यार जताते समय अंग्रेजी बोलने लगते हैं। ऐसा शायद इसलिये होगा कि जो भाषा समझ में न आए उसमें अटपटी बातें बेझिझक कही जा सकती हैं। मुझे तो यह भी लगता है कि शायद भारत की भाषा नीति भी गुस्से के कारण बनी। आजादी के बाद लोग अंग्रेजों से बहुत खफा रहे होंगे। अब अंग्रेज तो हमारी भाषाएँ सीखने से रहे। (जब हम ही नहीं सीखते तो वे क्या सीखेंगे?) इसलिए उनके प्रति गुस्सा जाहिर करने के लिए लोगों ने अंग्रेजी का प्रयोग शुरू किया। सोचा होगा दस बीस साल में जब सारा गुस्सा खतम हो जाएगा तब अपनी भाषाएँ अपना लेंगे। लेकिन अंग्रेजी अब मुंहलगी हो गई, कम्बख्त छूटती ही नहीं।

साहब भी जब तेज आवाज में अंग्रेजी बोलने लगते तो समझा जाता वे गुस्से में हैं। होता दरअसल यह है कि गुस्सा करने का वाले का दिमाग पटरी से उतर जाता है। सो भाषा को भी अपनी पटरी बदलनी पड़ती है। इसलिये देशज भाषाएँ बोलने वाला अंग्रेजी बोलने लगता है, अंग्रेजी जानने वाला फ्रेंच बोलने लगता है, फ्रेंच जानने वाला फ्राई होकर लैटिन बोलने लगता है। मतलब जो जिस भाषा में सहज होता है उससे अलग दूसरी भाषा का दामन पकड़ लेता है ताकि असहज लगे। लोगों को पता लगे कि अगला गुस्से में है। यही नहीं भाषा के अलावा लोग दूसरे प्रसाधन भी इस्तेमाल करते हैं। बड़बोला मौन हो जाता है, मितभाषी बड़बोला हो जाता है। धीमे बोलने वाला चिल्लाने लगता है। चिल्लाने वाला चिंघाडऩे लगता है। चिंघाड़ते रहने वाला हकलाने लगता है। हकलाते रहने वाले के मुँह में ताला पड़ जाता है। गुस्सा करने वाले के दुख एक गुस्सा करने वाला ही जानता है।

क्या आपको गुस्सा आ रहा है?



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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