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व्यंग्य: बेरंग नया साल, नहीं रहा नये साल का पहले वाला धूम-धड़ाका

raghvendra
Published on: 5 Jan 2018 3:53 PM IST
व्यंग्य: बेरंग नया साल, नहीं रहा नये साल का पहले वाला धूम-धड़ाका
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वीना सिंह

नये साल की सुबह पर अब न कोई कुंडी खटखटाता है और न ही घंटी। अब टेलीफोन ने भी नये साल में घनघनाना बंद कर दिया है। कैलेन्डर और डायरियों के लिए मार होती नहीं दिखती। सडक़ों पर हैप्पी न्यू ईयर मेरे लाल और हैप्पी न्यू ईयर सर के फिकरे भी अब पहले जैसे नहीं सुनाई देते। क्या हो गया है नये साल को? कौन हर ले गया नये साल का पहले वाला धूम-धड़ाका। पुराने साल का मिजाज भी नहीं पूछता कि क्या-क्या झेला अच्छा और बुरा। कितना मिला अपनापन और परायापन। सीधे आ धमकता है नया साल! बिना कैलेन्डर और बिना डायरी के ही पसर जाता है हर जगह।

शर्मा जी हर रोज इसी तरह किसी न किसी बात पर बड़बड़ाते सुने जाते थे। मैंने मस्करी करने के मूड में पूूछ दिया कि क्या बात है शर्मा जी! नये साल ने आपका क्या बिगाड़ दिया जो इतना...। वे बात काटकर झुंझलाते हुए बोले-मेरा नये साल ने कुछ नहीं बिगाड़ा। बिगाड़ तो लोग नये साल को रहे हैं। उसकी अनदेखी कर रहे हैं। मैने पूछा, लेकिन कैसे और क्यूं?

वे बोले, दरअसल बात यह है कि नये साल का हंगामा अब नहीं दिखता क्योंकि उसका उसका हक बीता हुआ कल एक दिन पहले यानी इकत्तीस तारीख को ही अपहरण कर चुका होता है। होटलों, क्लबों, यारों व न्यारों के बीच रंगबिरंगे स्वेटर मफलर और बेहतरीन सूटों से सजे-धजे जोड़ों की सजधज पुराने साल को विदा करने में अपना उत्साह खर्च कर चुकी होती है और नये साल के आने से पहले ही लोगों के जज्बात इतने मदहोश हो जाते हैं कि उनके कदम लडख़ड़ाने लगते हैं। कितना भी संभालें पर संभल नहीं पाते और बारह बजे से पहले ही आधी से ज्यादा भीड़ छट चुकी होती है और जो बचे खुचे लोग होते हैं उनके लिए हैप्पी न्यू इयर का शब्द बस रस्मअदायगी भर का ही रह जाता है।

फिर क्या बेचारा नया साल मन मसोसकर अपने प्रति बेरुखी देखता रह जाता है। इतना ही नहीं जब दूसरे दिन नया साल नये तेवर के साथ गुलाबी सर्दी में कंपकपाता हुआ तशरीफ लाता है तो लोग अपने मोबाइल में लाइक और कमेंटस गिनने में लगे होते हैं। पूरा हैप्पी न्यू इयर मोबाइल के भीतर ही समाया हुआ होता है। बाहर रोज की तरह सन्नाटा। कुछ भी नया सा नहीं। न मां के हाथ के बने लड्डू न दाल भरी कचौड़ी। न किसी के यहां जाना न किसी को बुलाना। हां जी यह है मोबाइल का जमाना। पिछले साल की डायरियां कोरी की कोरी ही रह जाती हैं। साल भर का लेखा-जोखा तो यह मुआं मोबाइल पी जाता है।

मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि नये साल का उत्सव समारोह साल की पहली तारीख को क्यों नहीं मनाते लोग? पुराने साल की विदाई में ही सारा जोश और होश खो देते हैं। नये साल के स्वागत के लिए खुमारी के अलावा कुछ भी नहीं बचता सो लोग अलसाए औंघाए से हैप्पी न्यू इयर के अल्फाज इतने धीरे से बुदबुदाते हैं कि पड़ोस के लोग क्या वे खुद भी नहीं सुन पाते हैं। काश! लोग पुराने की विदाई छोड़ नये साल के स्वागत की तैयारी करते तो हमारी हर नई मंशा पूरी होती।

आज पता चला कि शर्माजी यूं ही नहीं बड़बड़ाते। अपनी बड़-बड़ में पते की बात कह जाते हैं।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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