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घर लौटते मजदूरों को देखकर बार बार खयाल आ रही है वो कविता
उनके अपने जो फिक्र भरी आँखों से इंतजार में हैं स्वादिष्ट भोजन के थाल लिए नहीं खड़े है। रोज़गार की उम्मीद भी नहीं ; होती तो घर छोड़ना ही क्यों पड़ता। कुछ के लिए तो बस यही आस है कि मरना ही है तो अपनों के बीच मरेंगे। अपने - जिन्होंने बाँध रक्खा है मुहब्बत से। अपने- जिन्होंने उनकी झोपड़ियों को घर होने की इज़्ज़त बख्शी
विजय पांडे
कविता पुरानी है लेकिन घर लौटते मजदूरों को देखकर बार बार खयाल आ रही है। वह कौन सा आकर्षण है जिसने दुनिया-जहाँन से निराश मजदूरों के पाँवों में वह ताकत भर दी कि उनके पाँवों तले हज़ारो किलोमीटरों की दूरियाँ छोटी पड़ने लगीं। उनके घर भी कोई राजमहल नहीं। उनके अपने जो फिक्र भरी आँखों से इंतजार में हैं स्वादिष्ट भोजन के थाल लिए नहीं खड़े है। रोज़गार की उम्मीद भी नहीं ; होती तो घर छोड़ना ही क्यों पड़ता। कुछ के लिए तो बस यही आस है कि मरना ही है तो अपनों के बीच मरेंगे। अपने - जिन्होंने बाँध रक्खा है मुहब्बत से। अपने- जिन्होंने उनकी झोपड़ियों को घर होने की इज़्ज़त बख्शी।
घर
एहसास होता है घर का,
मोहब्बत से बांध लेने वाले लोगों से,
मौजूदगी जिनकी ,
जताती है कि 'जड़ें' यहाँ है,
घूम-थक-हार
लौट आना है यहीं फिर फिर,
यहीं छाँव है,
जब ज़िन्दगी तपा दे बहुत,
मिलता है अपने घर में ही/
वह जीवनदायी अमृत ,
जिसने जिला लिया था तब भी,
जब दुनियाँ जहान ने
बंद कर लिए थे अपनी मश्कों के मुँह।