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नारे भी दिलाते हैं जीत, कई बार नारों ने बदल दी पूरी चुनावी फिजां

raghvendra
Published on: 29 March 2019 1:59 PM IST
नारे भी दिलाते हैं जीत, कई बार नारों ने बदल दी पूरी चुनावी फिजां
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लखनऊ: किसी भी चुनाव में जीत हासिल करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। बड़े राजनीतिक दल नेताओं की चुनावी रैलियों, बैनर-पोस्टर, नुक्कड़ सभाओं, जनसम्पर्क,पैम्फलेट बांटना, सोशल मीडिया, अखबारों में विज्ञापन आदि का सहारा लेकर माहौल को अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं। वैसे चुनावी फिजां को बनाने में इन माध्यमों के अलावा नारों की भी बड़ी भूमिका होती है और नारे भी किसी दल को चुनाव जिताने में काफी हद तक मददगार साबित होते हैं। तीन-चार दशक पहले जब आज की तरह सोशल मीडिया का जमाना नहीं था तो चुनावी नारे ही दलों के लिए सबसे बड़ा चुनावी हथियार हुआ करते थे। एक ही नारा पूरे चुनाव को पलट दिया करता था परन्तु अब नारों की महत्ता वो नहीं रही, जो कभी हुआ करती थी। चुनाव में नारे तो उछल रहे हैं मगर उनमें पहले की तरह पैनापन व असर नहीं दिख रहा है।

दो साल पहले हुए यूपी विधानसभा चुनाव में ‘कहो दिल से अखिलेश फिर से’, ‘27 साल यूपी बेहाल,’ ‘आने दो बहनजी को’ और ‘अबकी बार भाजपा सरकार’ नारे खूब उछले। 17वी विधानसभा के लिए चुनाव में ये नारे एक पंचलाइन की तरह इस्तेमाल हुए। नारों के इतिहास पर गौर करें तो यूपी में जब जनसंघ मुख्य विपक्षी दल था और उसका चुनाव निशान ‘जलता हुआ दीपक और कांग्रेस का ‘दो बैलों की जोड़ी’ हुआ करता था तब जनसंघ के कार्यकर्ता सत्ताधारी दल कांग्रेस के खिलाफ नारे लगाते थे ‘जली झोपड़ी भागे बैल, ये देखो दीपक का खेल’। इसका जवाब कांग्रेस के कार्यकर्ता ‘दीपक में तेल नहीं, तेरा मेरा मेल नहीं’ लगाकर देते थे। गोवध के खिलाफ हुए बड़े आंदोलन में जनसंघ के लोगों का नारा था ‘जन-जन से यह नाता है, गाय हमारी माता है’।

इसके बाद जब इंदिरा सरकार ने राशनिंग प्रणाली लागू की तो विपक्ष ने उसे घेरने के लिए लोकलुभावन नारा दिया ‘खा गई शक्कर पी गई तेल, यह देखो इंदिरा का खेल’। इसी दौर में हेमवतीनंदन बहुगुणा जब यूपी के मुख्यमंत्री बने तो विरोधियों ने कांग्रेस के खिलाफ नारा दिया ‘जब से आए बहुगुणा, महंगाई बढ़ गई सौ गुना।’

देश में आपातकाल की घोषणा के बाद जब 1977 में चुनाव हुए तो जैसे नारों की बौछार हो गई। उस दौर का सबसे हिट नारा था ‘स्वर्ग से नेहरू करे पुकार, अबकी बिटिया जइहो हार’। इसके अलावा नसबंदी कानून के खिलाफ भी खूब नारे लगे ‘नसबंदी के तीन दलाल, इंदिरा संजय बंसीलाल’। इसी तरह जब इंदिरा गांधी की आपातकाल के बाद सत्ता में वापसी हुई तो चिकमगलूर से चुनाव लडऩे के दौरान कांग्रेसियों ने विपक्ष के खिलाफ नारा बनाया ‘एक शेरनी सौ लंगूर, चिकमगलूर भई चिकमगलूर’। इस दौरान कांग्रेस का एक नारा और बहुत चला था ‘पूरे देश से नाता है, सरकार चलाना आता है’ साथ ही ‘आधी रोटी खाएंगे, कांग्रेस वापस लाएंगे’।

कांग्रेस के विभाजन के बाद जब इंदिरा गांधी ने अपनी नई पार्टी बनाई और चुनाव निशान हाथ का पंजा मिला तो नारा ‘जात पर न पांत पर, मुहर लगेगी हाथ पर’ खूब हिट हुआ। साथ ही तब स्थानीय समस्याओं में से एक समस्या बसों के संचालन की थी जिस पर नारा बना ‘बस तब आएगी, इंदिरा जब आएगी’।

1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में एक नारे ने पूरा चुनाव ही पलट दिया। उस चुनाव में स्व.इंदिरा गांधी का अंतिम भाषण ‘मेरे खून का एक-एक कतरा, देश के काम आएगा’, ‘जब तक सूरज चांद रहेगा, इंदिरा तेरा नाम रहेगा’ के साथ ही इंदिरा तेरा यह बलिदान, याद करेगा हिन्दुस्तान ने कांग्रेस के पक्ष में जबर्दस्त माहौल बनाने का काम किया था।

इसके बाद जब बोफोर्स दलाली के कारण राजीव गांधी की सरकार चली गयी तो 1989 में हुए चुनावों में वीपी सिंह के पक्ष में जबर्दस्त माहौल बना और उनके लिए कहा गया ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’। इसी चुनाव में किसी भी नेता के खिलाफ एक नारा खूब फिट किया गया ‘अब तो स्पष्ट है, ...........भ्रष्ट है’।

फिर जब अयोध्या आंदोलन आरम्भ हुआ तो ‘अब भी जिसका खून न खौले, खून नहीं वो पानी है, जन्मभूमि के काम न आवे वो बेकार जवानी है’ के साथ ही ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’ ने भाजपा को यूपी की सत्ता सौपने में बड़ी मदद की। फिर जब बहुजन समाज पार्टी की राजनीति में जोरदार इंट्री हुई तो 1993 के विधानसभा चुनाव में जनता के सामने एक नया नारा आ गया ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ साथ ही ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’, ‘पत्थर रख लो छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर’ तथा ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’। 1996 में जब अटल विहारी वाजपेयी के पक्ष में हवा बननी शुरू हुई तो नारा चला ‘लाल किले पर कमल निशान, मांग रहा है हिदुस्तान’। साथ ही एक और नारा भी गूंजा ‘अटल सरकार लाना है, धारा 370 हटाना है’।

नई सदी के आते ही दो चार लाइनों के नारे पंच लाइन में तब्दील होने लगे जैसे ‘एक ही चाहत, पहले भारत’, ‘रहे जो अपनी बात पर कायम, कहो मुलायम-कहो मुलायम,’ ‘उठे हजारों हाथ, सोनिया के साथ’ और भाजपा का ‘एक ही चाहत, पहले भारत’ आदि।

बदलती राजनीति और सबकुछ शार्टकट होने की परम्परा ने 2014 में ‘अबकी बार, मोदी सरकार’ और ‘चाय पर चर्चा,’ 2015 में ‘सबका साथ,सबका विकास’, 2016 में कांग्रेस मुक्त भारत, 2017 में ‘मेरा देश बदल रहा है’, 2018 मे ‘साफ नीयत, सही विकास’ नारा खूब उछला। 2019 में हो रहे लोकसभा चुनाव में फिलहाल ‘नामुमकिन अब मुमकिन है’ और मोदी है तो मुमकिन है तथा ‘मै भी चौकीदार हूं’ नारा खूब चल रहा है।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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