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#REPUBLIC DAY: दिलचस्प दास्तान भारतीय गणतंत्र की- पूनम नेगी

हम देशवासी प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को पूरी धूमधाम से अपना गणतंत्र दिवस मनाते हैं। हम सभी जानते हैं कि 26 जनवरी 1950 को भारतीय गणतंत्र और इसका संविधान प्रभावी हुआ था। हमारा संविधान दुनिया के सबसे बेहतरीन संविधानों में से एक है।

tiwarishalini
Published on: 26 Jan 2018 9:00 AM IST
#REPUBLIC DAY: दिलचस्प दास्तान भारतीय गणतंत्र की- पूनम नेगी
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पूनम नेगी

हम देशवासी प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को पूरी धूमधाम से अपना गणतंत्र दिवस मनाते हैं। हम सभी जानते हैं कि 26 जनवरी 1950 को भारतीय गणतंत्र और इसका संविधान प्रभावी हुआ था। हमारा संविधान दुनिया के सबसे बेहतरीन संविधानों में से एक है। यह हमें गरिमापूर्ण ढंग से जीने का अधिकार देता है। हमारे संविधान में देश की कानून व्यवस्था को सुचारू रूप से बनाए रखने के लिए जरूरी प्रावधान तो हैं ही, साथ ही यह देश के प्रत्येक नागरिक को उसके कर्तव्य से भी अवगत कराता है। इस दिन से हमारी अनेक महत्वपूर्ण स्मृतियां भी जुड़ी हुई हैं। इस गणतंत्र दिवस के मौके पर आइए साझा करते हैं इस ऐतिहासिक दिन से जुड़ी तमाम जानी-अनजानी दिलचस्प जानकारियों को-

हमारे लोकतांत्रिक गणराज्य के राष्ट्रजीवन में जिस तरह की सांस्कृतिक विविधता के बावजूद अनेकता में एकता के दर्शन होते हैं, उसकी जड़ें हमारी प्राचीन भारतीय शासन प्रणाली में ही निहित हैं। वेदों में इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं जो यह दर्शाते हैं कि तत्कालीन समाज बहुमत का सम्मान करता था।

महाभारत के "शांतिपर्व" में राज्यकार्य के निष्पादन के लिए बहुत से प्रजाजनों की भागीदारी का उल्लेख मिलता है, जो उस समय समाज में गणतंत्र के प्रति बढ़ते आकर्षण का संकेत है। सिकंदर के भारत अभियान को इतिहास में रूप में प्रस्तुत करने वाले डायडोरस सिक्युलस तथा कारसीयस रुफस ने लिखा है कि ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में भारतीय गणतंत्र काफी मजबूत था।

डायडोरस ने सोमबस्ती नामक स्थान का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ई.पू. सातवीं शताब्दी में भारत में शासन की प्रणाली गणतांत्रिक थी। जे. पी. शर्मा की पुस्तक "प्राचीन भारत में गणतंत्र" में भी उल्लेख मिलता है कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक भारत में गणतांत्रिक राज्यों का चलन आम हो चुका था। हालांकि ये राज्य राजशाही से नियंत्रित राज्यों की अपेक्षा आकार में छोटे थे किंतु उनके वैभव एवं समृद्धि के कारण बड़े राज्य भी उनकी ओर सम्मान की दृष्टि से देखते थे।

हम भारतवासी वाकई गौरवान्वित हैं कि हम ऐसे समृद्ध विरासत वाले लोकतांत्रिक गणराज्य के निवासी हैं जहां दर्जनों मान्यता प्राप्त व कुल मिलाकर सैकड़ों भाषाएं और हजारों उपभाषाएं हैं, जहां विश्व के लगभग सभी धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं, जिसके हर राज्य में एक अलग ही संस्कृति की खुशबू महकती है; फिर भी आपसी सहमति और हितों के बीच सामंजस्य पर आधारित लोकतंत्र अपनी पूरी खूबसूरती से कायम है।

लोकतंत्र के विश्वप्रसिद्ध अध्येता तथा जाने-माने राजनीतिशास्त्री रॉबर्ट डाल के भारत को काफ़ी हद तक सफल लेकिन एक असंभाव्य लोकतंत्र कहने के पीछे संभवतया हमारी यही खूबियां रही हों।

बताते चलें कि सन 1885 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई तो देश की आज़ादी उसके एजेंडे में नहीं थी, लेकिन संगठन का चरित्र शुरू से ही लोकतांत्रिक रहा। कांग्रेस अधिवेशन में मौजूद प्रतिनिधि उसके अध्यक्ष को चुनते थे, अधिवेशन की गतिविधियां और उसके प्रस्ताव संवाद पर आधारित होते थे। लोकतंत्र की भावना को को केन्द्र में रखकर ही संरचनाएं तैयार की जाती थीं। जनसहभागिता की इसी मूल प्रक्रिया के तहत स्वराज से लेकर स्वतंत्रता तक की मांगें सामने आयीं तथा भारत की बहुलवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव पड़ी।

आज की युवा पीढ़ी के कुछ लोगों को शायद यह नहीं पता होगा कि राजधानी दिल्ली में 26 जनवरी 1950 को पहला गणतंत्र दिवस राजपथ पर नहीं बल्कि इर्विन स्टेडियम (आज का नेशनल स्टेडियम) में हुआ था। सन 1950 से 1954 तक गणतंत्र दिवस का समारोह कभी इर्विन स्टेडियम, कभी किंग्सवे कैंप, कभी लाल किला तो कभी रामलीला मैदान में आयोजित होता रहा।

सन 1955 में पहली बार गणतंत्र दिवस समारोह राजपथ पर पहुंचा। तब से आज तक यह आयोजन राजपथ पर ही जारी है। आठ किलोमीटर लंबी परेड की शुरुआत रायसीना हिल से होती है और वह राजपथ, इंडिया गेट से गुजरती हुई लालकिला तक जाती है।

26 जनवरी का महत्व सिर्फ इतना नहीं है कि देश की आजादी के बाद इस दिन भारतीय संविधान प्रभावी हुआ था; 26 जनवरी का महत्व 1950 से पहले ही स्थापित हो गया था। इस तारीख को आधुनिक भारत के इतिहास में विशेष दिन के रूप में चिह्नित किया गया है।

31 दिसबर, 1929 को कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन यह घोषणा की गई कि 26 जनवरी 1930 को सभी भारतीय पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनाए यानी पूरी आजादी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इसी लाहौर अधिवेशन में पहली बार तिरंगा झंडा फहराया गया। हालांकि तब इस ध्वज में चक्र के स्थान पर चरखा था।

उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक कांग्रेस 26 जनवरी स्वतंत्रता दिवस के रूप में ही मनाती रही। बाद में जब 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में घोषित कर दिया गया; तब भी 26 जनवरी के इसके ऐतिहासिक महत्व के कारण 1950 में इसे भारतीय संविधान लागू होने की तिथि के रूप में चुना गया।

सन् 1950 में भारत के अंतिम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने 26 जनवरी को बृहस्पतिवार के दिन सुबह 10:18 बजे भारत को सम्प्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया। इसके छह मिनट बाद बाबू राजेंद्र प्रसाद को गणतांत्रिक भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में शपथ दिलायी। उस समय वाइसरॉय हाउस कहलाने वाले मौजूदा राष्ट्रपति भवन के दरबार हाल में राजेंद्र बाबू के शपथ लेने के बाद दस बजकर 30 मिनट पर उन्हें 21 तोपों की सलामी दी गयी। शपथ ग्रहण के बाद प्रथम राष्ट्रपति का कारवां दोपहर बाद ढाई बजे राष्ट्रपति भवन से इर्विन स्टेडियम (आज का नेशनल स्टेडियम) के लिए रवाना हुआ और कनॉट प्लेस व आसपास के क्षेत्रों का चक्कर लगाते हुए पौने चार बजे सलामी मंच तक पहुंचा।

राजेंद्र बाबू पैंतीस साल पुरानी लेकिन विशेष रूप से सुसज्जित बग्गी में सवार होकर आए थे, जिसमें छह बलिष्ठ ऑस्ट्रेलियाई घोड़े जुते हुए थे। इर्विन स्टेडियम में हुई मुख्य परेड को देखने के लिए लगभग15 हजार लोग मौजूद थे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इरविन स्टेडियम में झंडा फहराकर परेड की सलामी ली।

इस परेड में सशस्त्र सेना के तीनों बलों ने हिस्सा लिया, जिसमें नौसेना, इन्फैंट्री, कैवेलेरी रेजीमेंट, सर्विसेज रेजीमेंट के अलावा सेना के सात बैंड भी शामिल हुए थे। यह परंपरा आज भी कायम है। हमारे पहले गणतंत्र दिवस से ही मुख्य अतिथि बुलाने की परंपरा बनायी गयी। सन 1950 में पहले मुख्य अतिथि इंडोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति सुकर्णो थे। उसी साल 26 जनवरी को राष्ट्रीय अवकाश भी घोषित किया गया।

रक्षा जनसंपर्क निदेशालय के दस्तावेजों और "सैनिक" समाचार पत्र के पुराने अंकों के अनुसार 1951 के गणतंत्र दिवस समारोह में चार सैनिकों को वीरता के लिए सर्वोच्च अलंकरण परमवीर चक्र भी प्रदान किया गया था। सन 1952 से बीटिंग रिट्रीट का कार्यक्रम आरंभ हुआ। इसका एक समारोह रीगल सिनेमा के सामने मैदान में और दूसरा लाल किले में हुआ। सेना के बैंड ने पहली बार महात्मा गांधी के मनपसंद गीत "अबाइड विद मी" की धुन बजाई और तब से यह धुन हर वर्ष बीटिंग रिट्रीट का हिस्सा है।

1953 में पहली बार लोक नृत्य और आतिशबाजी को भी समारोह का हिस्सा बनाया गया। उस समय आतिशबाजी रामलीला मैदान में होती थी। उसी वर्ष पूर्वोत्तर राज्यों-त्रिपुरा, असम और नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) के वनवासी बधुंओं को भी समारोह में हिस्सा लेने के लिए बुलाया गया। इसी तरह 1954 में एनसीसी ने पहली बार लड़कियों का दल गणतंत्र दिवस समारोह में हिस्सा लेने के लिए भेजा गया।

सन 1955 में महाराणा प्रताप के अनुयायी राजस्थान के गाड़ोलिया लुहारों ने पहली बार समारोह में हिस्सा लिया था। 1955 में ही लाल किले के दीवान-ए-आम में गणतंत्र दिवस पर मुशायरे की परंपरा शुरू हुई। उसके बाद 14 भाषाओं का कवि सम्मेलन होने लगा जिसे रेडियो पर भी प्रसारित किया गया।

1956 की गणतंत्र दिवस परेड की खासियत पांच सजे-धजे हाथी थे। विमानों के शोर से हाथियों के बिदकने की आशंका को देखते हुए उस साल सेना की टुकड़ियों के गुजरने और लोक नर्तकों की टोली आने के बीच के समय में हाथियों को लाया गया। हाथियों के ऊपर शहनाई वादक बैठे थे।

1958 से लुटियन जोन में पड़ने वाले सरकारी भवनों, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक पर रोशनी वाले झालरों को लगाने की शुरूआत हुई। इसी तरह 1959 से गणतंत्र दिवस समारोह में दर्शकों पर वायुसेना के हेलीकॉप्टरों से फूल बरसाने की शुरूआत हुई। गणतंत्र दिवस के मौके पर बहादुर बच्चों को बहादुरी पुरस्कार से सम्मानित करने की शुरूआत पहले ही हो चुकी थी लेकिन 1960 से इन बच्चों को हाथी पर बिठाकर परेड का हिस्सा बनाया गया। कहा जाता है कि उस साल की परेड में सबसे ज्यादा भीड़ जुटी थी।

अनुमान लगाने वालों का आंकड़ा पांच से 20 लाख तक जाता है। गणतंत्र दिवस परेड और बीटिंग रिट्रीट समारोह के लिए टिकटों की बिक्री 1962 में शुरु की गयी। उस साल तक गणतंत्र दिवस परेड की लंबाई छह मील हो गई थी। यानी जब परेड की पहली टुकड़ी लाल किला पहुंच गई तब आखिरी टुकड़ी इंडिया गेट पर ही थी।

वर्ष में1963 चीन का हमला और नेहरू जी की तबियत खराब हो जाने के कारण भले ही परेड का आकार छोटा कर दिया गया मगर उस गणतंत्र दिवस समारोह में फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार, गायक तलत महमूद और गायिका लता मंगेशकर ने प्रधानमंत्री कोष के लिए चंदा जुटाने के लिए कार्यक्रम किया तथा चीन के खिलाफ युद्ध में वीरता दिखाने वाले सैनिकों और शहीदों के सम्मान में उस साल तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, उनके मंत्रिमंडल के सहयोगियों समेत भारी संख्या में दिल्ली आम नागरिकों ने राष्ट्रपति मंच के सामने परेड में भाग लिया। उसी वर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 3,000 पूर्ण गणवेशधारी स्वयंसेवकों ने भी राजपथ पर पथ संचलन किया।

1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इंडिया गेट पर स्थित अमर जवान ज्योति पर फूल चढ़ाकर सैनिकों को श्रद्धांजलि देने की परंपरा शुरु की। इसी तरह से हर साल का गणतंत्र दिवस पर कोई न कोई नई परंपरा शुरु होती है जो आगे के सालों के लिए नजीर बन जाती है।

आगे की स्लाइड में पढ़ें ... अनूठी कहानी 21 तोपों की सलामी की

अनूठी कहानी 21 तोपों की सलामी की

गणतंत्र दिवस पर दर्शकों को आकर्षित करने वाला बहुत ही गौरवपूर्ण पल होता है देश के राष्ट्रपति को दी जाने वाली 21 तोपों की सलामी। खास बात यह है कि 21 तोपों की ये सलामी 52 सेकंड तक चलने वाले राष्ट्रगान के दौरान 2.25 सेकंड के अंतराल पर दी जाती है। इसके लिए सात तोपों का इस्तेमाल किया जाता है।

इन 21 तोपों की सलामी देने की शुरुआत ब्रिटिश काल में 17वीं शताब्दी में हुई थी। जब ब्रिटिश नौसेना ने समुद्र में दुश्मन को शांतिपूर्ण वातावरण बनाये रखने के लिए जहाज पर मौजूद हथियारों से हवाई फायर किया और उनसे भी उनकी सहमति जताने के लिए ऐसा ही करने को बोला। ब्रिटिश सैनिकों द्वारा किया गया यह प्रयास एक परंपरा के रूप में अपने दुश्मन के प्रति सम्मान दिखाने के लिए किया गया ।

आपके मन में यह सवाल होगा कि केवल 21 तोपों की ही सलामी क्यों? जवाब यह है कि उस समय ब्रिटिश युद्धपोतों पर, बाइबिल में उल्लेखित सात अंक का विशेष महत्व होने के कारण एक स्थान पर सात हथियारों को एक साथ रखा जाता था तथा शांति का सन्देश देने के लिए सात हथियारों से तीन-तीन बार समुद्र में फायर किया जाता था। तभी से 21 तोपों की सलामी देने का रिवाज शुरु हुआ। भारत में भी इस परंपरा की शुरुआत ब्रिटिश शासन के दौरान ही हुई थी। आज़ादी से पहले यहां स्थानीय राजाओं और जम्मू-कश्मीर जैसी रियासतों के प्रमुखों को 19 या17 तोपों की सलामी दी जाती थी।

राष्ट्रीयता का सर्वोच्च प्रतीक तिरंगा

प्रत्येक स्वतंत्र देश का ध्वज उसकी राष्ट्रीयता का सर्वोच्च प्रतीक होता है। हमारा तिरंगा भी हमारी राष्ट्रीयता अस्मिता से जुड़ा है। हमारा राष्ट्रीय ध्वज हमारी राष्ट्रीय एकता, अखण्डता व समृद्ध सांस्कृतिक वैविध्य का द्योतक है।

ज्ञात हो कि संविधान सभा की बैठक में 22 जुलाई 1947 को भारत के राष्ट्रीय ध्वज को इसके वर्तमान स्वरुप में स्वीकार किया गया था; 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश शासन से देश की आजादी से कुछ दिनों पहले। इससे तीन रंगों, अशोक चक्र और खादी की मदद से पिंगाली वेंकैया ने तिरंगे का डिजाइन तैयार किया था।

जानना दिलचस्प होगा कि हमारे राष्ट्रीय ध्वज को क्षैतिज आकार में डिजाइन किया गया है जिसमें तीन रंग बराबर अनुपात में हैं। झंडे की चौड़ाई से इसके लंबाई का अनुपात 2:3 का है। ध्वज की ऊपरी पट्टी में केसरिया रंग है जो देश की शक्ति और साहस को दर्शाता है। बीच में स्थित सफेद पट्टी धर्म चक्र के साथ शांति और सत्य का प्रतीक है तथा निचली हरी पट्टी उर्वरता, वृद्धि और भूमि की पवित्रता को दर्शाती है।

बीच की सफेद पट्टी में नीले रंग का एक पहिया बना हुआ है जो 24 तीली से युक्त अशोक चक्र का प्रतिनिधित्व करता है। इस धर्मचक्र को विधि का चक्र कहते हैं जो तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बनाए गए सारनाथ मंदिर से लिया गया है। इस चक्र को प्रदर्शित करने का आशय यह है कि जीवन गतिशील है और रुकने का अर्थ मृत्यु है।

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Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

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