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सांसद से प्रधानमंत्री तक, कुछ ऐसा रहा ‘वाजपेयी’ का राजनीतिक सफर

Aditya Mishra
Published on: 16 Aug 2018 2:32 PM IST
सांसद से प्रधानमंत्री तक, कुछ ऐसा रहा ‘वाजपेयी’ का राजनीतिक सफर
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नई दिल्ली: भारतीय जनता पार्टी के युग पुरुष और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की हालत अभी नाजुक है। ऐसे में लोगों द्वारा दुआओं का सिलसिला जारी है। बता दें, उन्हें जीवन रक्षक प्रणाली पर रखा गया है। वाजपेयी 1942 से 2004 तक राजनीति में सक्रिय रहे। आज हम आपको अटल बिहारी वाजपेयी के सांसद से लेकर प्रधानमंत्री बनने तक के सियासी सफर के बारे में बता रहे है।

सांसद से लेकर प्रधानमंत्री तक ऐसा रहा राजनीतिक जीवन

-अटल बिहारी वाजपेयी कुल नौ बार लोकसभा के लिए चुने गए। दूसरी लोकसभा से तेरहवीं लोकसभा तक, बीच में कुछ लोकसभाओं से उनकी अनुपस्थिति रही। ख़ासतौर से 1984 में जब वे ग्वालियर में कांग्रेस के माधवराव सिधिया के हाथों पराजित हो गए थे।

-1962 से 1967 और 1986 में वे राज्यसभा के सदस्य भी रहे। 16 मई 1996 को वे पहली बार प्रधानमंत्री बने। लेकिन लोकसभा में बहुमत साबित न कर पाने की वजह से 31 मई 1996 को उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा।

-इसके बाद 1998 तक वे लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे। 1998 के आमचुनावों में सहयोगी पार्टियों के साथ उन्होंने लोकसभा में अपने गठबंधन का बहुमत सिद्ध किया और इस तरह एक बार फिर प्रधानमंत्री बने। लेकिन एआईएडीएमके द्बारा गठबंधन से समर्थन वापस ले लेने के बाद उनकी सरकार गिर गई और एक बार फिर आम चुनाव हुए।

-1999 में हुए चुनाव राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साझा घोषणापत्र पर लड़े गए और इन चुनावों में वाजपेयी के नेतृत्व को एक प्रमुख मुद्दा बनाया गया। गठबंधन को बहुमत हासिल हुआ और वाजपेयी ने एक बार फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली।

-अटल मार्च 1998 से मई 2004 तक, छह साल भारत के प्रधानमंत्री रहे, अटल बिहारी वाजपेयी को सांसद के रूप में लगभग चार दशक का अनुभव प्राप्त है। पहली बार संसद बनने पर जब उन्होंने राजनीतिक सफर की शुरुआत की तो वे पंडित नेहरू से काफ़ी प्रभावित हुए। पंडित नेहरू ने उनके बारे में कहा था कि वे एक प्रतिभावाशाली सांसद हैं जिनके राजनीतिक सफ़र पर नज़र रखनी चाहिए।

-संसद सदस्य के रूप में लगभग चार दशक के सफ़र में वे पांचवीं, छठी, सातवीं और फिर दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं लोकसभी के सदस्य रहे हैं।

-जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में इंदिरा गांधी सरकार के ख़िलाफ़ जनांदोलन छेड़ा गया तब आपातकाल के दौरान वर्ष 1975 से 1977 के बीच उन्हें जेल जाना पड़ा।

विदेश नीति का अडिग प्रतिज्ञ

आपातकाल के बाद वे जनता पार्टी के संस्थापक-सदस्यों में से एक बने और मोरारजी देसाई सरकार में दो साल से ज़्यादा समय के लिए देश के विदेश मंत्री बने। जब जनता पार्टी का विभाजन हुआ तो जनसंघ के सदस्यों ने 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। प्रधानमंत्री बनने पर पोखरण में मई 1998 में भारत ने दूसरी बार परमाणु बम धमाके किए तो इसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफ़ी आलोचना हुई और भारत पर कुछ प्रतिबंध भी लगे लेकिन वाजपेयी ने इन्हें भारत की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी बताया। इसके बाद फ़रवरी 1999 में वाजपेयी ने पड़ोसी देश पाकिस्तान से रिश्ते बेहतर बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण पहल की और बस यात्रा करते हुए अमृतसर से लाहौर पहुंचे।

इसके लिए अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर उनकी ख़ासी प्रशंसा हुई। लेकिन जब करगिल में पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ हुई तब कड़ा रुख़ अपनाते हुए उन्होंने सैन्य कार्रवाई का आदेश दिया और कई दिन तक चली कार्रवाई में भारतीय सेना घुसपैठियों को खदेड़ दिया। 1999 में वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने। ये सरकार पूरी पांच साल चली और ऐसा पहली बार हुआ कि किसी ग़ैर-कांग्रेसी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया हो। वर्ष 2001 में दूसरी बार पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने के मकसद से उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ को आगरा शिखर सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया लेकिन इसका नतीज़ा ज़्यादा सकारात्मक नहीं निकल पाया।

इसके बाद तीसरी बार मई 2003 में वाजपेयी ने फ़िर कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ बातचीत की पेशकश रखी और उसके बाद से भारत-पाकिस्तान रिश्ते काफ़ी बेहतर हुए। वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुए चीन से भी संबंध बेहतर बनाने की कोशिश हुई और वे चीन यात्रा पर गए। लेकिन उनके इसी कार्यकाल के दौरान गुजरात में मुसलमानों के ख़िलाफ़ दंगे हुए जिसमें अनेक लोग मारे गए और इस पर वाजपेयी की कड़ी आलोचना भी हुई। अनेक पर्यवेक्षक मानते हैं कि गुजरात जाकर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म का पालन करने की सलाह देने के अलावा, केंद्र सरकार ने उस समय कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभाई।

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