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वन मैन आर्मी थे सिनेमा के जनक, इन दो फिल्मों ने बदल दी थी इनकी लाइफ

Admin
Published on: 29 April 2016 12:34 PM GMT
वन मैन आर्मी थे सिनेमा के जनक, इन दो फिल्मों ने बदल दी थी इनकी लाइफ
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मुंबई: हिन्दी सिनेमा के पितामह कहे जाने वाले दादा साहेब फाल्के उर्फ धुंदीराज फाल्के ने फिल्मों का सपना तब बुना था जब देश में इस कला की कोई स्पष्ट विधा भी अच्छी तरह से नहीं पनप पाी थी। जब फिल्मों में इस्तेमाल होने वाली तकनीकों के लिए भी हम विदेश पर निर्भर थे, उस समय फाल्के ने भारत की पहली मूक फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई थी। फाल्के का जन्म महाराष्ट्र के नासिक से तकरीबन 30 किलोमीटर दूर त्रयम्बकेश्वर में 30 अप्रैल, 1870 को हुआ था। बचपन से ही उनमें कला के प्रति रुझान था। उन्होंने 1885 में मुंबई के सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में प्रवेश लिया।

साल 1890 में यहां से उत्तीर्ण होने के बाद फाल्के ने बड़ौदा के कला भवन में प्रवेश लिया, जहां उन्होंने मूर्तिशिल्प, इंजीनियरिंग, ड्राइंग, पेंटिंग और फोटोग्राफी का ज्ञान प्राप्त किया। हिन्दी सिनेमा के जनक कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के ने फिल्मों को नए आयाम तक पहुंचाया था। लगभग तीन दशक तक अपनी फिल्मों के जरिए दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने वाले फाल्के दुनिया को भले ही अलविदा कह गए, लेकिन अपने पीछे देश को सिनेमा की कला भेंट दे गए। जानिए फाल्के के जीवन से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें।

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मेकअप मैन भी रहे

फाल्के ने गोधरा में एक फोटोग्राफर के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की थी। साल 1903 में वह भारतीय पुरातत्व विभाग में ड्राफ्ट्समैन के तौर पर काम करने लगे। उन्होंने प्रख्यात चित्रकार राजा रवि वर्मा के साथ भी काम किया। उन्होंने एक जर्मन जादूगर के साथ बतौर मेकअप मैन काम किया। साल 1909 में उन्होंने जर्मनी जाकर सिनेमाई कला से संबंधित आधुनिक प्रौद्योगिकी और मशीनरी को जाना।

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लाइफ ऑफ क्राइस्ट से मिली प्रेरणा

यही वह समय था जब फिल्म निर्माण की कला उन्हें आकर्षित करने लगी। फाल्के के जीवन में फिल्म निर्माण से जुड़ा रचनात्मक मोड़ 1910 में लाइफ ऑफ क्राइस्ट देखने के बाद आया। इसी से उन्हें फिल्म निर्माण की प्रेरणा मिली। इसके बाद उन्होंने इस दौर की और भी फिल्में देखीं। उन्होंने अपने एक मित्र की मदद से इंग्लैंड जाकर फिल्म निर्माण के लिए उपकरण खरीदे।

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पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र

फाल्के ने 1912 में अपनी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई, जो एक मूक फिल्म और देश की पहली फीचर फिल्म थी। फिल्म के निर्माण में लगभग 15 हजार रुपये खर्च हुए। उस समय यह एक बहुत बड़ी राशि थी। फाल्के ने किसी तरह फिल्म पूरी की तो इसका प्रदर्शन एक बड़ी समस्या बन गया। उन दिनों नाटकों का बोलबाला था। दो आने में लोग छह घंटे के नाटक का आनंद लेते थे। ऐसे में तीन आने खर्च कर एक घंटे की फिल्म कौन देखता। शायद यही वजह थी कि फाल्के ने दर्शकों को आकर्षित करने के लिए एकदम नए ढंग से इसका विज्ञापन किया।

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फिल्म का ऐड

सिर्फ तीन आने में देखिए दो मील लंबी फिल्म में 57 हजार चित्र । भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र का विज्ञापन कुछ इसी प्रकार का था। 03 मई, 1913 को मुंबई के कोरोनेशन थियेटर में इसे दर्शकों के लिए प्रदर्शित किया गया। दर्शक एक पौराणिक गाथा को चलते-फिरते देखकर वाह-वाह कर उठे। भारत की पहली फिल्म दर्शकों के सामने थी। मूक फिल्म होने के कारण परदे के पीछे से पात्रों का परिचय और संवाद आदि बोले जाते थे। उस समय महिलाओं के किरदार पुरुष ही किया करते थे, इसलिए फिल्म में रानी तारामती की भूमिका सालुंके नामक युवक ने निभाई।

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अभिनेत्री की खोज

फिल्म निर्माण के क्रम में दादा साहब फाल्के को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। वे चाहते थे कि फिल्म में अभिनेत्री का किरदार कोई महिला ही निभाए, लेकिन उन दिनों महिलाओं का फिल्मों में काम करना बुरी बात समझी जाती थी। उन्होंने रेड लाइट एरिया में भी खोजबीन की, लेकिन कोई भी महिला फिल्म में काम करने को तैयार नहीं हुई। बाद में उनकी खोज एक रेस्तरां में बावर्ची का काम करने वाले व्यक्ति सालुंके पर जाकर पूरी हुई।

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पत्नी का समर्थन

फिल्म के निर्माण के दौरान दादा साहब फाल्के की पत्नी ने उनकी बहुत सहायता की। इस दौरान वह फिल्म में काम करने वाले लगभग 500 लोगों के लिए खुद खाना बनातीं और उनके कपड़े धोती थी।

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पर्दे पर भगवान

1918 में श्री कृष्ण जन्म और 1919 में और कालिया मर्दन जैसी सफल धार्मिक फिल्मों का निर्देशन किया गया। इन फिल्मों का सुरूर दर्शकों के सिर चढ़कर बोला। इन फिल्मों को देखते समय लोग भक्ति भावना में डूब जाते। फिल्म लंका दहन के प्रदर्शन के दौरान श्रीराम और कालिया मर्दन के प्रदर्शन के दौरान श्री कृष्ण जब पर्दे पर अवतरित होते, तो सारे दर्शक उन्हें दंडवत प्रणाम करने लगते।

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अंतिम फिल्म से लगा सदमा

अपने यादगार फिल्मी सफर के तकरीबन 25 वर्षो में उन्होंने राजा हरिश्चंद्र के अलावा सत्यवान सावित्री (1914), लंका दहन (1917), श्रीकृष्ण जन्म (1918), कालिया मर्दन (1919), कंस वध (1920), शकुंतला (1920), संत तुकाराम (1921), और भक्त गोरा (1923) सहित 100 से ज्यादा फिल्में बनाईं। 1937 में प्रदर्शित फिल्म गंगावतारम दादा साहब फाल्के के सिने करियर की अंतिम फिल्म साबित हुई। यह फिल्म टिकट खिड़की पर असफल रही जिससे उन्हें गहरा सदमा लगा और उन्होंने सदा के लिए फिल्म निर्माण छोड़ दिया।

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100वीं जयंती दादा साहेब फाल्के पुरस्कार

फाल्के के अंतिम दिन नासिक में बीते। 16 फरवरी, 1944 को 73 साल की आयु में उनका निधन हो गया। उनकी सौवीं जयंती के अवसर पर 1969 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की स्थापना हुई। ये भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा पुरस्कार है जो फिल्मों में आजीवन योगदान के लिए केंद्र सरकार की ओर से दिया जाता है। पहला फाल्के पुरस्कार अभिनेत्री देविका रानी को दिया गया।

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