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कहानी: पंच महाराज... मैं क्या समझूँ पंडित या बाबू

raghvendra
Published on: 26 Oct 2018 4:57 PM IST
कहानी: पंच महाराज... मैं क्या समझूँ पंडित या बाबू
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बालकृष्ण भट्ट

माथे पर तिलक, पाँव में बूट चपकन और पायजामा के एवज में कोट और पैंट पहने हुए पंच जी को आते देख मैं बड़े भ्रम में आया कि इन्हें मैं क्या समझूँ पंडित या बाबू या लाला या क्या? मैंने विचारा इस समय हिकमत अमली बिना काम में लाए कुछ निश्चय न होगा, बोला - पालागन, प्रणाम, बंदगी, सलाम, गुडमार्निंग पंच महाराज -

पंच-न-न-नमस्कार नमस्कार-पु-पु-पुरस्कार-परिस्कार

मैंने कहा - मैं एक बात पूछना चाहता हूँ बताइएगा -

पंच - हाँ-हाँ पू-पू पूछो ना-ब-बताऊँगा, क्यों नहीं।

आप अपने नाम का परिचय मुझे दीजिए जिससे मैं आपको जान सकूँ कि आप कौन हैं -

पंच-प-प-परिचय क्या ह-ह हमतो कु-कुलीन हैं न!

मैं अचरज में आय कहने लगा, ‘ऐं कु-कुलीन कैसा?’

पंच - हाँ अ-अ और क्या।

मैं - तो क्या व्याकरण के अनुसार कुकुत्सित: कुलीन: कुकुलीन: अर्थात् कुलीनों में सबसे उतार अथवा कुत्सित: प्रकारेण कुपृथिव्यांलीन: - क्या इस मनुष्य जीवन में आपको क्या लोग अतिनिंदित समझते हैं?

पंच - अजी तुम तो बड़ी हिंदी की चिंदी निकालते हो। हम कुलीन हैं। एक कु को बतौर ब्याज के समझो।

मैंने फिर कहा - अजी ब्याज कैसा बड़े-बड़े सेठों के समान क्या कुलीनता में भी कुछ ब्याज देना होता है। मेरे मन में कुछ ऐसा आता है कि यह कुलीन कुलियों की जमात हैं

तो यहाँ आपका क्या काम है जाकर कुलियों में शामिल हो, बोझा ढोओ।

पंच - नहीं, नहीं तुम तो बड़े कठहुज्जती मालूम होते हो। अरे कुलीन के अर्थ हैं अच्छे वंश में उत्पन्न। अब तो समझ में आया?

मैं फिर बोला - तो क्या अच्छे वंश में पैदा होने ही से कुलीन हो गए कि कुलीनता की और भी कोई बात आप में है। मतलब सद्वृत्त अथवा विद्या इत्यादि भी है?

पंच - हम तो नहीं हमारे पूर्वजों में कोई एक शायद ऐसे हो गए हों। विद्या-बिद्या तो हम कुछ जानते नहीं। न सद्वृत्त जाने क्या है? हाँ पुरखों के समय से जो बित्ती भर दक्षिणा बँध गया आज तक बराबर पुजाते हैं और अंग्रेजी फैशन भी इख्तियार करते जाते हैं और फिर अब इस संसार में कौन ऐसा होगा जो मिलावटी पैदाइश का न हो। वैसा ही मुझे भी समझ लो - पैदाइश की आप क्या कहते हो। पैदाइश कमल की देखिए कैसे मैले और गंदले कीचड़ से उसकी उत्पत्ति है। तो जब हम कुलीन हैं तो हमें अपने कुल का अभिमान क्यों न हो?

मैं-पंच महाराज यह तो वैसी ही है कि बाप ने घी खाया हाथ हमारा सूँघ लो। खाली पैदाइश से कुछ नहीं होता। ‘आचार: कुलमा-ख्याति’ कुछ आचार-विचार भी जानते हो?

पंच - डैम, आचार-विचार इसी की छिलावट में पड़े हुए लोग अपनी जिंदगी खो देते हैं। तरक्की-तरक्की चिल्लाया करते हैं और तरक्की खाक नहीं होती! इसी से तो इन सब बातों को हम फिजूल समझ आजाद बन गए हैं और इस समय के जेंटलमैनों में अपना नाम दर्ज करा लिया।

सच पूछो तो शराब और कबाब यही दोनों सामयिक सभ्यता और कुलीनता का खास जुज है। हाँ इतनी होशियारी जरूर रहे कि प्रगट में बड़ा दंभ रचे रहे ऐसा कि कदाचित् कभी कोई देख भी ले तो रौब में आ किसी को मुँह खोलने की हिम्मत न रहे।

मैं - हाँ यह ठीक कहते हो, पर कुछ गुण की पूँजी भी तो होनी चाहिए।

पंच - नॉनसेंस! दुनियाँ में कौन ऐसे होंगे जो अपने पुरखों की कुलीनता का दम न भरते हों और गुण तो वे सीखें जिनको कहीं दूसरा ठिकाना न हो। यदि गुण सीखकर पेट चला तो कुलीनता फिर कहाँ रही?

मैंने अपने मानवीय मित्र की अधिक पोल खोलना मुनासिब न समझा। इससे उनसे दो-चार इधर-उधर की बात कर रफूचक्कर हुआ।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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