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कहानी: कद की कवायद- मुझे मेरा कद महसूस कराया गया

raghvendra
Published on: 30 Jun 2018 10:18 AM GMT
कहानी: कद की कवायद- मुझे मेरा कद महसूस कराया गया
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सुशील सिद्धार्थ

सहसा मुझे महसूस हुआ कि मेरा कद छोटा है या शायद छोटा होता जा रहा है। यह कहना अधिक सही होगा कि यह बात मुझे महसूस कराई गई। कुछ लोग महसूस कराने का कुटीर उद्योग चलाते हैं। वे किसी को कहीं भी रोककर कुछ भी महसूस करा सकते हैं। मुझे मेरा कद महसूस कराया गया। कुछ परोपकार-पिपासु लोगों के पास बाकायदा एक रजिस्टर रहता है जिसमें तमाम लोगों के कद का लेखा-जोखा होता है। परोपकारियों ने कद निर्धारण कमेटी बना रखी है। हमारे दोस्त साष्टांग समर्पित इसके अध्यक्ष हैं।

कमेटी ने देश के सभी महानगरों में इसकी शाखाएं खोल रखी हैं। इसी के सदस्य मेरुविहीन मनस्वी ने एक दिन अचानक कहा कि दोस्त, तुम्हारा कद छोटा है। मुझे कमेटी की गतिविधियों का थोड़ा बहुत पता था। फिर भी मैंने कहा, हो सकता है। मगर तुमको कैसे पता चला। वे बोले, तुम पर कुछ वक्त से हमारी नजर है। वैसे यह बात गोपनीय है, मगर तुम्हारी कायरता पर भरोसा कर बता देता हूं। इस मुल्क में समाज राजनीति संस्कृति वगैरह ठीक से चल सके इसलिए कई स्तरों पर कुछ कमेटियां काम करती हैं। ऐसे सलीके से काम करती हैं कि लोगों को पता भी नहीं चल पाता कि वे नजरबंद हैं। अब तुम अपने को ही लो। तुम समझ रहे होगे कि स्वतंत्र हो। कहीं आओ, कहीं जाओ, कुछ बोलो। हाहाहा। लेकिन तुम नजरबंद हो। ऐसे ही इस मुल्क में करोड़ों लोग नजरबंद हैं। मैं तो चकित। वाह इसे कहते हैं लोकतंत्र। एक तंत्र के भीतर सैकड़ों तंत्र।

होते होंगे, लेकिन समस्या तो कद की है। क्या करूँ। मैंने कहा, मित्र अब कोई रास्ता बताओ।

मित्र ने कहा रास्ता बताने से पहले तुम्हें वह रास्ता दिखाना है जिस पर चलकर मनुष्य समाज में सिर ऊंचा कर चलने वालों की भी खोपड़ी पर सवार रहता है।

मैं मित्र के साथ उनकी प्रयोगशाला जा पहुंचा। उन्होंने इसका नाम रखा है कदाचार। यहां कद के आचार सिखाए जाते हैं। एक तरफ दीवार पर बड़ा सा पर्दा झूल रहा था। कमरे की बत्ती गुल करने से पहले उन्होंने इस क्रिया का रहस्य बताया। बोले, जीवन के सबसे बड़े रहस्य अंधेरे में ही प्रकाशित होते हैं। दांपत्य के बारे में जानते ही हो। थोड़ा कहा थोड़ा ही समझना। मुल्क में इसीलिए बार-बार अंधकार लाया जाता है कि लोग...। मित्र ने कुछ इशारे किए और हंसने लगे। अब मशीन ऑन हुई। पर्दे पर दृश्य। कुर्सी पर बैठा आदमी। लोग गुजर रहे। वह बैठे-बैठे सवाल कर रहा। सब सिर झुकाकर निकल रहे। अचानक एक मरियल गुजरा। वह सवाल का जवाब देने लगा। हैरत। धीरे-धीरे वह मरियल छोटा होने लगा ।

मशीन बंद। मित्र मुस्कुराए, देखा। कुछ समझे। नहीं ना। समझाता हूं। कुर्सी सवाल पूछे तो जवाब न देने से कुर्सी खुश होती है। होती है तो सिस्टम में नाम होता है। होता है तो हनक होती है। होता है तो होती है। मैं परेशान। तो क्या किया जाए। मित्र नरम पड़े। डिक्टेशन लेने वाले लोग हमेशा पसंद किए जाते हैं। अपना दिमाग लगाना ही क्या। हमारी घोषणा, हमारी प्रेस कॉन्फ्रेंस, हमारा ये हमारी वो। बस काफी है। हम बोलें शांति तो लिखो शांति। बोलें सुरक्षा तो लिखो सुरक्षा। यार वह किसी ने कहा है ना, जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख।

मैं प्रसन्न कि भवानी प्रसाद मिश्र ने इसी अर्थ में यह कविता लिखी थी। पक्का हो गया। कुछ शक रह गया था। पूछने लगा। भाई जाने क्या-क्या बोलते रहते हो तुम लोग। कई बार कहते हो कि मेरे मुंह से इतिहास बोलता है। कभी कहते हो देश बोलता है। अगर यही इतिहास है, यही देश है तो फिर न बचेंगे न सुनेंगे। जो बोलते हो वही लिख दें तो अगली लाइन यह होगी-और उसके बाद भी साबुत बचा तू दिख। लोग छोड़ेंगे नहीं। तुम्हारे इतिहास से अलग भी एक इतिहास है।

वे परेशान हुए मगर खुश दिखे। ऐसा है, मैं तुम्हें अपने एक विशेषज्ञ के पास भेज रहा हूं। वे तुम्हारे कद के लिए कोई न कोई रास्ता निकाल लेंगे। नाम है चुम्मन उस्ताद। पता है यह।

उस्ताद की आलीशान दुकान। मैं पहुंचा तो वे फोन पर लगे थे। जब लग चुके तो मैंने परिचय और मित्र का संदर्भ दिया। वे मुस्कुराए। फोन कर रहा था। सुबह सुबह साहब लोगों को फोन कर लो तो रीढ़ की हड्डी में एक गुरिया जुड़ जाती है। खैर। यहां आ गए हो। ठीक हो जाओगे। यार तुम भी गजब हो। बाईं ओर से देखो तो ठीकठाक है। दाईं ओर से देखो तो छोटे दिखते हो। हुम्म हम्म। इधर आ जाओ।

उधर ऊंचा सा एक ढेर था। शवों का ढेर। उस्ताद बोले, इस पर चढ़ जाओ। मैं तुम्हारी फोटो खिंचवा दूंगा। जो फोटो में ऊंचाई पर दिखता है उसका कद ऊंचा माना जाता है। ऊंचाई शवों से निर्मित हो तब कहना ही क्या। कोई मुल्क एक झटके में किसी अन्य देश के कितने लोगों का शवीकरण कर सकता है इस बात पर उसकी ऊंचाई निर्भर करती है। यह नहीं पसंद? तो इधर आओ। हमारे नारंगी लाल हरे आसमानी साहबों के अथक प्रयासों से पूरे देश में घोटाला रंग महोत्सव चलता रहता है। तुम इसे संक्षेप में घारंगम कह सकते हो। तुम्हें इसके कार्यक्रमों में अध्यक्ष, मुख्य अतिथि वगैरह बनवा दिया जाएगा। ऊंचाई बढ़ जाएगी। देखो, लोग समझते नहीं। ईमानदारी एक दलदल है। आदमी धीरे-धीरे समाता जाता है। एक दिन छोटा होते होते दिखना बंद हो जाता है। यह नहीं पसंद? इधर आओ। आओ। इधर आओ।

उस्ताद अपने अनुभव का तहखाना खोल चुके थे। कुछ नुस्खे पसंद नहीं आ रहे थे। कुछ बेअसर थे। अब चुम्मन उस्ताद परेशान दिखे। उनकी दुकान के तहखाने में कद बढ़ाने के नुस्खों की सूची समाप्त होती जा रही थी मगर मैं उतने का उतना ही था। चुम्मन उस्ताद ने अब मुझे चश्मा हटाकर गौर से देखा। दाए-बाएं दोनों ओर से मुस्कुरा दिए। एक कद्दावर नाम लेकर बोले। उन महापुरुष के कहां तक पहुंच जाते हो।

मैं उत्साहित हुआ। अगर अपना जिस्म पूरा तान दूं तो उनके कंधे तक जा लगता हूं। चुम्मन उस्ताद मुस्कुराते हुए बोले, तो उचक कर उनके कंधे पर सवार हो जाओ। औरों के कंधों पर सवार लोगों के कद ऊंचे मान लिए जाते हैं। मानकर इतिहास में दर्ज कर दिए जाते हैं। कद रजिस्टर्ड होने के बाद किसी का कद ओछा हो या हो जाए तब भी गुनीजन परवाह नहीं करते। मैंने उस्ताद की ओर लगभग हताश होकर देखा। देखकर कहा, क्या आपको लगता है कि मैंने ऐसी कोशिश नहीं की होगी। छोटा होने का एहसास कराए जाने से पहले भी शौकिया तौर पर ऐसा कर चुका हूं। इसके भी अजीब अनुभव हैं।

एक के कंधे पर चढ़ा तो पता चला उनके पास खुद के कंधे ही नहीं हैं। वे उधार लिए कंधों से तमाम धंधों में शामिल थे। फिर किसी दूसरे के कंधों पर कूदा तो किसी बांस से टकरा गया। दरअसल उनके कंधे विचार इतिहास समस्या आदि के शव ढोने के लिए प्रतिबद्ध थे। जब मैं टकराया तब उस समय उनके कंधे पर ईमान की अर्थी जा रही थी। स्वयं वे किसी सेमिनार में जा रहे थे। कंधे किराए पर उठा रखे थे। फिर अगले के कंधों पर किस्मत आजमाई तो वहां कीचड़ था। उन्होंने बताया कि उनके कंधे हैं ही इसलिए कि कोई सुंदर स्त्री जब रोना चाहे तो कंधे की कमी महसूस न हो। जब किसी को रोना होता है तो टाइम लेकर आ जाती है। पानी जमा होने से कीचड़ हो गया। जब कोई रोकर चली जाती है तो कोई खास आदमी आकर कीचड़ में लोटने लगता है। स्त्रियों के आंसुओं से बने कीचड़ में लोटने से कुछ खास लोगों को बहुत सुकून मिलता है। वह रोआने और लोटवाने का कारोबार करते हैं।

चुम्मन चुगद की तरह मुझे देख रहे थे। बोले, यार तुम्हारा कद ही कम है। बाकी बातें गजब करते हो। यानी न डिब्बा न कूंची, बातें बड़ी ऊंची-ऊंची। कोई बात नहीं। मैं तुम्हारे पैरों को निकाल कर अपनी विचारधारा के बांस जड़ देता हूं। यही है समाधान। अब मेरे पैर काटे जा रहे थे।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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