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रिश्तों में झूठ और फरेब पर आधारित कहानी: आशा की रोशनी

raghvendra
Published on: 7 Oct 2017 7:22 AM GMT
रिश्तों में झूठ और फरेब पर आधारित कहानी: आशा की रोशनी
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देखो न कहां इस फर्म से ‘प्रॉफिट’ हो रहा है? तीन चीज की एजेंसी हमने ली है, लेकिन कोई भी ‘आइटम’ ‘प्रॉफिट’ नहीं दे रहा है, लगता है यह फर्म बंद ही कर देना होगा।

रमेश ने अपने जीजा जी मोतीलाल की यह बात सुनी तो उनके नियति पर सोचने लगा। ‘वे जब न तब ऐसी बात उससे कहते रहते हैं। वह अनपढ़ है, जो जोड़-घटाव नहीं कर सकता है। अरे, भाई उनको इस फर्म से इतना-इतना फायदा हो रहा है। फिर वे कैसे कहते हैं कि यह फर्म घाटे में चल रहा है?’

रमेश ऐसी बात सोचते-सोचते, अचानक हाल की इनकी तिकड़मी चाल पर सोचने लगा। ‘मास्टर साहेब, जो इनकी ‘चाय की फैक्ट्री’ के लिए, ठोंगा बना रहे थे। इस फर्म में उनकी पत्नी पार्टनर थी, उसे हटाकर ये खुद पार्टनर बन गए थे। जबकि मास्टर साहेब का ही पूरा किया कराया यह फर्म था। फिर भी उनके पार्टनर ने, उनकी पत्नी को हटाते हुए यह नहीं सोचा कि यह गलती हम कैसे कर रहे हैं। जिस मास्टर साहेब ने हमें रास्ता दिखाया है, उसे ही इस फर्म से निकाल रहे हैं।

उनकी बेइमानी उस समय और देखने को मिली, जब उनकी पत्नी पार्टनर थीं, तब उससे उसके घर पर जाकर, यह कह कर उन्होंने ‘साइन’ करवा लेना चाहा कि ‘मैंने आज तक का चुकता हिसाब पा लिया है।’ यह सुनकर मास्टर साहेब की पत्नी, आक्रोशित होकर बोल पड़ी थीं, हम इस पेपर पर कैसे लिख दें कि मैंने चुकता हिसाब पा लिया है।

मैं इनको नहीं जानती हूं। इसलिए मुझे जब तक सारा बचा हुआ पैसा नहीं मिलेगा, तब तक मैं ‘साइन’ कर पेपर नहीं दूंगी? यह सुनकर मोतीलाल ने, उन्हें आश्वासन देकर कहा, ‘आपको सारा पैसा मिल जाएगा, आप विश्वास रखिए।’ तब मास्टर साहेब ने अपनी पत्नी से कहा, ‘तुम साइन’ कर दो न, इन लोगों से पैसा मिल जाएगा।

तब वह इस तरह की बात लिखकर दी थीं। लेकिन उनके विश्वास का फल यही निकला कि आज पांच साल हो गए हैं, उनका बकाया रकम पंद्रह हजार रुपया अभी तक नहीं मिला है।

आज वह खुद पछताते हुए सोच रही हैं, कि मैंने क्यों इस तरह लिखकर दे दिया था? अब तो मेरा हाथ हमेशा के लिए कट गया है। अब मैं कुछ भी कर नहीं सकती हूं? इस तरह रमेश सोचते-सोचते कहां से कहां वह गया था, खुद उसे भी पता न चला और शाम ढल गई।

इधर मोतीलाल ने देखा कि रमेश बार-बार फर्म में ‘इतना इनकम हुआ’-‘इतना इनकम हुआ’ कहता रहता है, इसलिए उन्होंने एक नई तिकड़मी चाल का पासा, उस पर फेंका। फिर जहां ‘चाय की फैक्ट्री’ में पार्टनर थे, वहीं उन्होंने उसे खींच लेना चाहा। इसलिए उन्होंने रमेश को, एक दिन सहानुभूतिपूर्वक यह राय दी, ‘रमेश तुम इस फैक्ट्री में आ जाओं, यहां तुम सुपरवाइजर के पोस्ट पर रहोगे।

तुम्हें यहां हजार रुपए महीना और ‘टूर प्रोग्राम’ से भी हजार-दो हजार रुपए मिल जाएंगे।’ ठीक है, आप जैसा चाहते हैं, वैसा ही कीजिए। मुझे कोई आपत्ति नहीं है। फिर मोतीलाल ने उसे अपने ‘पर्सनल’ दुकान के काम से हटाकर, हमेशा के लिए अपनी ‘चाय की फैक्ट्री’ में बुला लिया। रमेश भी काफी खुश था कि ये जो भी करेंगे, हमारे लिए अच्छा ही करेंगे। लेकिन आज उसे इस ‘चाय फैक्ट्री’ में चार-पांच साल रहते हो गया है फिर भी वह आठ-नौ सौ रुपए से ज्यादा नहीं पा रहा है।

आज वह यहां ‘सर्विस’ करता है लेकिन मोतीलाल, अपनी दुकान का काम, पूर्व की तरह कराते रहते हैं। सच कहिए तो उन्हें मुफ्त में एक ‘हेल्पर’ चाहिए था जो उन्हें मिल गया था। रमेश को, यहां ‘ज्वाइन’ करने के बाद, मोती लाल अब पूर्ण रूप से निश्चिंत हो गए थे।

क्योंकि रमेश को पहले एतराज था कि इतना काम करने के बाद भी, उसे कुछ पैसा नहीं मिलता? लेकिन अब तो यह बात नहीं थी। उसे इस फैक्ट्री से तो पैसा मिल ही रहा है। रमेश अपने जीजा जी की इस तिकड़मी चाल को आज पूरी तरह समझ चुका था।

एक दिन रमेश ने चाय फैक्ट्री के दूसरे पार्टनर जो इस फर्म के व्यवस्थापक थे, से अपना दुखड़ा रोते हुए कहा, ‘मुझे जीजा जी हजार की बात कह कर यहां लाए थे लेकिन आज चार-पांच साल बीत जाने के बावजूद, मुझे नौ सौ रुपए से ज्यादा महीना नहीं मिला है। क्या हमारी जिंदगी इसी हजार-बारह सौ रुपए पर अटकी रहेगी या और बढ़ेगी?’

ऐसा आप क्यों सोचते है? आप निश्चिंत रहिए, कभी भी आपको किसी फर्म का पार्टनर बनाया जा सकता है? आपको याद होगा, कुछ दिन पहले जब मुंबई में अपना एक नया फर्म खुला था, तब उसमें आपके एक भाई को मालिक के रूप में लिया गया था। अब संयोग ऐसा कहिए कि उस फर्म में हड़ताल हो गई और वह फर्म बंद हो गया। लेकिन आपके भाई को मौका मिला ही था।

‘सो तो आप ठीक कह रहे हैं।’

फिर आप इतना निराश क्यों हो गए। आपको मालूम है न आदमी को बिना फल की चिंता किए हुए, कर्म करते रहना चाहिए। फल मिलना निश्चित है। इसलिए आप अपने काम को ईमानदारी पूर्वक करते जाइए, फिर अभी दो-तीन नया-नया यूनिट भी खुला है, उसमें आदमी की जरूरत तो पडग़ी ही।

तो वहां कौन जाएगा, हम ही, आप न? इसलिए आप बिलकुल निश्चिंत होकर अपना काम कीजिए। ‘यह तो ठीक है लेकिन कब तक? या एक साल और हम आशा देखें।’ ‘कुछ कहा नहीं जा सकता है?’ मुझे सर्विस करने का थोड़ा भी मन नहीं था। अरे, रेलवे स्टेशन के ‘एएसएम’ और ‘सुपरिटेंडेंट’ से हमारे पिताजी की अच्छी पटती थी। जिस कारण उन लोगों ने कई बार हमारे पिताजी से कहा था, महेश बाबू, क्यों नहीं अपने बच्चों को रेलवे में नौकरी लगाया देते हैं?

लेकिन पिताजी उस समय कहते थे, नहीं हो, मेरा बेटा कभी सर्विस नहीं करेगा। अरे मेरे पास इतनी खेती-बारी है, अगर उसे ही वह करे तो कभी रोटी के लिए तरसना नहीं पड़ेगा। या वह खेती नहीं करना चाहे, तो अपना मार्केट है, उसमें ही किसी चीज की दुकान खोल लेगा, तो कभी उसे पैसे की कमी नहीं होगी?

हमारे पिताजी ऐसा ताल ठोक कर रेलवे अधिकारी से कहते थे। फिर सारी बात कहते-कहते अंत में रमेश यह बोल पड़ा, अगर मुझे मालूम होता कि मेरी हालत ऐसी होगी, तो मैं यहां कभी भी नहीं आता? मैं घर पर ही अपना व्यापार करता। यहां तो मेरे जीजा जी ने हमें, मुफ्त में फंसा दिया है।

नहीं रमेश जी, ऐसा आप नहीं सोचिए? जिंदगी में आपको एक बार अवश्य अवसर मिलेगा। इसलिए आप पूर्ण रूप से निश्चिंत रहिए। वैसे भी इस फर्म में हर आदमी को, एक बार जरूर मौका दिया जाता है। फिर आप तो अपने ही हैं, क्यों नहीं आपको मौका मिलेगा?

आज रमेश को, अपने फर्म के इस मालिक की बात सुनकर, उसे ऐसा लगा कि उसके ऊपर जो बोझ आज तक पड़ा हुआ था, वह अब हट गया है। जैसे उसका मन हल्का हो गया हो। अब उसके जीवन में इस सर्विस के प्रति जो निराशा की भावना थी, वह आज आशा में बदल चुकी है। इसलिए वह हंसते हुए, अपने व्यवस्थापक से इजाजत मांग कर, उनके ‘चैंबर’ से निकल पड़ा। उस समय उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उसके पैर जमीन पर नहीं, बल्कि मखमल भरे भविष्य पड़ रहे हों, क्योंकि उसमें आज आशा की रोशनी जल चुकी थी।

डॉ. सूरज मृदुल

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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