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कहानी: जीवन-संघर्ष- सरकार भी पैसे की भाषा बोलती है, केवल लेखन से क्या होगा
आज फिर सुबह वह हताश लौटा। हृदय में व्यथा और मस्तिष्क में तनाव लिए वह घर में किसी से भी बात करने के मूड में नहीं था। घर में दोनों बहनें भी आई हुई थीं। बहनोई भी थे। उसने कपड़े उतारते हुए स्नान की तैयारी आरम्भ कर दी। पत्नी ने पूछा,‘बात बनी?’
‘नहीं ,अभी तक कोई सूरत नहीं निकली।’ धीमे स्वर में कहकर वह बाथरूम में घुस गया और भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया मगर उसके कान बहन-बहनोइयों में हो रहे वार्तालाप की ओर ही लगे थे।
‘भइया जैसा सोचते हैं, उस हिसाब से कहीं मकान मिला है’, यह बड़ी बहन थी।
‘भइया थोड़ी हिम्मत और दिखाएँ तो तीन कमरे वाला ठीक-ठाक फ्लैट तो मैं दिला सकता हूँ ।’ यह छोटा बहनोई था।
यह संवाद कान में पड़ेते ही उसका मन हुआ कि वह इसी समय बाथरूम से बाहर निकले और बहनोई से कहे, ‘यदि इतना पल्ले होता तो मैं नहीं खरीद सकता था। मैं क्या मूर्ख हूँ। वह नहीं, हराम का पैसा बोल रहा है, बड़ा बाबू है न! टनाटन बरसता है सीट पर ही, वह तो बोलेगा ही।’ वह क्रोध और ईष्र्या से भर उठा और एक झटके से पानी भरा मगर सिर पर उलट लिया। एक क्षण रुका और फि तीन-चार मग अपने शरीर पर उलट लिए औद बदन पर साबुन रगडऩे लगा। लगा, जैसे गरीब मैल छुड़ाने हेतु संघर्ष कर रहा है। उसके कान पुन: बाहर चल रही वार्ता की ओर सतर्क हो गए।
‘आज पैसे का ही बोलबाला है। सरकार भी पैसे की भाषा बोलती है। केवल लेखन से क्या होगा! जुगाड़ किए बिना कुछ नहीं होगा।’ यह बड़ा बहनोई था।
साबुन रगड़ते उसके हाथ रुक गए। घुटकर रह गया । जिन बातों के विरोध में उसकी कलम चलती है, वही काम वह स्वयं करे, यह नहीं हो सकता । लेक्चर देने से काम नहीं होगा, जीवन के यथार्थ को समझना होगा । आदमी के कुछ अपने भी तो आदर्श होते हैं। अब मकान खरीदा जाए या न खरीदा जाए मगर वह ऐसा कुछ नहीं करेगा कि अपनी ही नजरों में गिर जाए ।
मग से पानी फिर बदन पर डालने लगा । साबुन बदन से उतरने लगा । उसने राहत महसूस की ।
‘ऐसी बात नहीं है, कोई रास्ता निकल ही आएगा। हर आदमी की अपनी-अपनी परिस्थितियाँ होती हैं, अपनी-अपनी समस्याएँ होती हैं। जो व्यक्ति जिम्मेदारियों से पलायन न करके जूझने में विश्वास रखते हैं, उन्हें मंजिल देर से ही सही मगर मिलती जरूर है। मुझे अपने पति पर न केवल विश्वास है, बल्कि गर्व भी है।’ यह उसकी पत्नी थी । पत्नी का संवाद सुनकर उसका चेहरा खिल उठा। उसका मन हुआ कि पत्नी को बाँहों में भर ले। अब तक वह तौलिए से अपना बदन पोंछकर कपड़े बदलने लगा था। वह किसी ताजे फूल की तरह फ्रेश हो गया था।
डॉ. सतीशराज पुष्करणा