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कहानी: प्रवासी चिड़िया, कभी-कभी घर की याद बेचैन कर देती है

raghvendra
Published on: 23 Feb 2018 4:46 PM IST
कहानी: प्रवासी चिड़िया, कभी-कभी घर की याद बेचैन कर देती है
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योंग सू ओ

वाह! आप रास्ते में मिल गये! मैं स्वयं आपके पास पहुंचने वाला था। आपसे गपशप करने का मन था। मेरी निगाह कुछ बुझी-सी हो रही है? नहीं जी, ऐसा कुछ नहीं है। आइये, कहीं शराब का एक दौर हो जाए। मेरी सेहत ठीक है। जी हां, मन कुछ गिरा हुआ-सा है। आप कहते हैं, कभी-कभी घर की याद बेचैन कर देती है। आप जो चाहें, कह सकते हैं। आइये, चलें। कहां? उसी जगह, जहां आपको याद है न, हम पिछली बार गये थे! मेरा मतलब उस होटल से है, जिसे उत्तरी कोरिया के केंग-गी प्रदेश की रहनेवाली औरत चलाती है। तो भाई, अगर आज आप मेरी पकड़ में नहीं आये होते तो मैं सडक़ पर जो भी मिलता, उसी को पकड़ लेता। यह बड़ी बुरी बीमारी है, जो मुझे पिछले बीस साल से घेरे हुए है। लेकिन मैं अकेला ही इससे पीडि़त नहीं हूं। श्रीमती जी, आप भी थोड़ी देर के लिए आ जाइये। आप तो केंग-गी प्रदेश की रहनेवाली हैं? यही कारण है कि आपका रंग इतना गोरा है। आप पूछती हैं कि मुझे कैसे पता चला कि आप केंग-गी की हैं? पिछली बार मैं जब यहां आया था तब आपने ही तो बताया था। अच्छा, आपका जन्म वहां हुआ था; लेकिन जब युद्ध छिड़ा तो आप बोनसन में थी और वहां से भागकर दक्षिण चली गईं।

ओफ! हमलोग कितने अभागे हैं! कितने छोटे भूखण्ड में रहते हैं, और फिर भी हमारे आधे प्रियजन अलग रहते हैं! आधा उत्तर और आधा दक्षिण। अपने ही रक्त के संबंधी हैं और बीस साल हो गये, किसी भी पक्ष को इस बात का पता नहीं है कि दूसरा पक्ष सही-सलामत है या नहीं! मैने बीस साल पहले 38वीं पैरेलल (सरहद) को पार किया था। मेरी मां वहीं रह गई थीं। उनकी उम्र साठ के आसपास ही रही होगी। मेरी स्त्री और दो बच्चे भी वहीं छूट गये। बच्चों में एक तीन साल का था, दूसरा हाल ही में पैदा हुआ था।

मुझे आपसे बड़ी ईष्र्या होती है।

आप पूछते हो, ईष्र्या क्या है? आप यहां बैठकर फैसला दे सकते हैं कि मेरा घर की याद करना व्यर्थ है या आप यह भी कह सकते हैं कि मेरी हालत पर आपको दुख है। आप इन बातों को हंसी में भी उड़ा सकते हैं। आपसे ईष्र्या करने के लिए क्या इतना ही काफी नहीं है? आपके लिए या और किसी के लिए मेरे मन में दुर्भाव नहीं है। आपका सारा परिवार दक्षिण में चला गया था और आपके हैरान होने के लिए कोई बात नहीं है। आप यहां बीस साल से रह रहे है। इस काल में मेरा हृदय प्रतिदिन छटपटाता रहा कि ऐसा संयोग हो जाय कि मैं अपने कुटुम्बियों को देख सकूं या कम-से-कम उनके विषय में कुछ समाचार पा सकूं।

मेरा एक पड़ोसी था, जिसने टोंगडीमन बाजार में काम करके खूब कमाई कर डाली थी। वह उत्तरी कोरिया के एन्ब्योन प्रदेश का था। वह कहा करता था, भगवान की किसी दिन हम पर दया होगी। एक दिन आएगा जबकि हम अपने नगर में जाएंगे और अपने घरवालों से मिलेगे, नहीं तो ऐसे जीने का फायदा क्या है! उसने बीस साल तक ब्रह्मचर्य का पालन किया। उसकी स्त्री उत्तरी कोरिया में ही रह गई थी। पिछले साल वह दुर्घटना का शिकार हो गया। मरने से पहले उसने कहा था, मैं प्रभु से कामना करता हूं कि दूसरी दुनिया में 38वीं पैरेलल न हो उसका कोई सम्बन्धी यहां नहीं था। वह अकेला था।

क्षमा करें, आज कौन सी ऐसी बात हुई कि अचानक मुझे उसकी याद आ गई? मैं आपको बताऊंगा कि आज वास्तव में हुआ क्या? मेरा एक मित्र है, जिसका नाम है प्योंग-हो वन। आपने शायद उसका नाम सुना होगा। वह पक्षी-विद्या-विशेषज्ञ है। इस देश में वह पक्षियों के विषय में अधिकारी व्यक्ति है। उसका नाम नहीं सुना? खैर, हम दोनों हाई स्कूल में सहपाठी थे। एक दिन मैं उसके घर गया क्योंकि मुझे बहुत दिनों से उसका समाचार नहीं मिला था। उसकी पत्नी ने बताया कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है। मैंने सोचा कि लाओ, उससे मिलता चलूं! उसकी बीमारी गंभीर नहीं थी। उस पक्षी-विशेषज्ञ मित्र ने कहा कि सालों से उसकी दिलचस्पी इस बात में रही है कि एक खास किस्म के प्रवासी पक्षी किस तरह अपने को बांट कर उड़ते हैं, घर बनाते हैं, प्रवास की उनकी दिशा क्या होती है और उनके स्वभाव की विशेषताएं क्या हैं, इस शोध के लिए पक्षियों के पैरों में छल्ला डाला जा सके। आप पूछते हैं कि छल्ले जापान से क्यों बनवाये? इसलिए कि वे इस देश में नहीं बनते थे। एक दिन उसने छल्ला डालकर एक प्रवासी चिडिय़ा को उड़ाया। वह घुमंतू चिडिय़ा थी। उसने कहा कि जब कभी छल्लेवाली कोई चिडिय़ा किसी देश के पक्षी-विशेषज्ञ द्वारा पकड़ी जाती थी तो विद्वान के रूप में उस व्यक्ति का कर्तव्य होता था कि सारी जानकारी उस प्रयोग के मूल प्रारंभकत्र्ता को भेज दे। आपको याद है कि कुछ साल पहले यहां इस देश में बत्तख जैसी एक चिडिय़ा पकड़ी गयी थी, जिसे आस्ट्रिया के एक व्यक्ति ने छोड़ा था। इसी तरह से यह मामला चलता था। जो हो, मेरे मित्र ने जो चिडिय़ा छोड़ी, कल्पना करो, वह कहां पहुंची? आप कल्पना नहीं कर सकते? वह उत्तरी कोरिया जा पहुंची। वह प्योंग्यांग में जाकर पकड़ी गई।

चिडिय़ा पक्षी-विद्या-विशारद डा. बन द्वारा पकड़ी गई। इन डा. बन ने सारी आवश्यक सूचनाएं जापान में सांके संस्थान को भेजते हुए बदले में पूछा कि उस प्रयोग का आरंभ करने वाला कौन है? क्या आप सोच सकते हैं कि यह डा. बन कौन थे? वह विख्यात पक्षी-विद्याविद डा. हांग-गूवन—मेरे मित्र प्योंग-हों बन के पिता थे। कह सकते हैं कि पुत्र द्वारा छोड़ी गई चिडिय़ा उडक़र पिता के सीने से जा लगी। विश्वास नहीं होता? जी, यह घटना सच है।

इन अकल्पनीय घटना का हाल कुछ ही दिन पहले सांके-संस्थान के डाइरेक्टर डा. इन्यू ने मेरे मित्र को भेजा। इस तरह मेरे मित्र को पता चला कि उसके पिता जीवित थे। मेरे मित्र ने बताया कि डा. इन्यू ने चि_ी में लिखा, हम इंसान निर्माण करते हैं और इस प्रकार की त्रासदियों के शिकार हो जाते हैं, क्योंकि हम इंसान हैं। उन्होंने गहरी हमदर्दी दिखाई और उस दिन की आशा व्यक्त की जब हम ऐसी मूर्खताओं को छोड़ देंगे। ....पिता और पुत्र कोरिया के युद्ध के दौरान बिछुड़े थे और बीस लम्बे वर्षों के बाद एक चिडिय़ा के माध्यम से दनका एक प्रकार से पुनर्मिलन हुआ।

मुझे स्वयं इस बारे में बड़ा कौतूहल था और मैंने अपने दोस्त से यही सवाल किया। मेरा अनुमान है, उसके पिता के पास मसाला-भरी एक दुर्लभ किस्म की चिडिय़ा थी। जब उन्हें प्योंग्यांग से युद्ध शरणार्थी होकर भागना पड़ा, वे अपने साथ बराबर उस चिडिय़ा को रखते रहे। शायद यही कारण था कि वह स्वयं एक पक्षी-विद्याविद् बन गया। जरा सोचिए, एक ही आकाश के नीचे रहने वाले पिता और पुत्र के बीच सिवा उस प्रवासी चिडिय़ा की उड़ान के कोई भी सम्पर्क-सूत्र नहीं था।

यह घाटना कुछ ही समय पहले घटी और आज उस पक्षी-विशेषज्ञ ने मुझे बताया कि उसके पिता की मृत्यु हो गई। उत्तर कोरिया से यह समाचार पहले रूस भेजा गया, फिर अमरीका, उसके बाद न्यूजीलैण्ड और तब जापान और अंत में सांके संस्थान के डा. इन्यू ने यह खबर मेरे मित्र को दी। इसमें महीनों लग गये। वे दोनों एक-दूसरे के बहुत ही निकट थे, लेकिन पिता के निधन का समाचार आधी दुनिया का चक्कर लगाकर पुत्र को मिला। आज दोपहर बाद यह किस्सा मुझे सुनाने के बाद मेरे पक्षी-विद्या-विशारद मित्र ने छत की ओर देखा, लम्बी सांस ली और कहा, प्रवासी चिडिय़ों के लिए कोई सीमा-सरहद नहीं होती। जब उसने यह कहा तो मेरे लिए यह दुख बर्दाश्त से बाहर हो गया। आप समझ सकते हैं कि अंदर भावनाओं का ज्वार आता है तो आदमी की क्या हालत हो जाती है! मैं अपने दोस्त को खिंचकर यहां नहीं ला सका। इसलिए मैं अकेला आपकी खोज में दौड़ा।

- अनुवादक महेन्द्र कुलश्रेष्ठ

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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