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कहानी: चोर- उसकी कनपटी पर जख्म का एक गहरा निशान था

raghvendra
Published on: 28 July 2018 1:51 PM IST
कहानी: चोर- उसकी कनपटी पर जख्म का एक गहरा निशान था
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रशीद जहां

रात के दस बजे का वक्त था। मैं अपनी क्लीनिक में अकेली बैठी थी और एक मेडिकल जरनल पढ़ रही थी कि दरवाजा खुला और एक आदमी एक बच्चा लेकर अंदर आया। मुझको अपनी नर्स पर गुस्सा आया कि यह दरवाजा खुला छोड़ गयी। मेरे मरीज देखने का वक्त बहुत देर पहले ही खत्म हो चुका था मैंने रुखाई से कहा, ‘मेरे मरीज देखने का वक्त मुद्दत हुई खत्म हो चुका, या तो कल सुबह लाना, वरना किसी दूसरे डाक्टर को दिखा दो।’

मर्द छोटे कद का तो था लेकिन बदन कसरती था और बच्चा जो गोद में था उसका साँस बुरी तरह से चल रही थी और साफ जाहिर था कि निमोनिया हो गया है। बच्चा गर्दन डाले निढाल था और चल चलाव के करीब मालूम होता था। मर्द ने अकड़ कर कहा! ‘मेम साहब फीस ले लीजिए और क्या आपको चाहिए!’

मैं फीस के नाम पर शायद धीमी भी हो जाती पर उसकी अकड़ से चिढ़ कर बोली ‘फीस के बगैर कोई डाक्टर देखता है? मैं इस वक्त मरीज नहीं देखती। तुम को मालूम होना चाहिए कि यह वक्त डाक्टरों के आराम का होता है। दूसरे तुम्हारा बच्चा बहुत बीमार है...।’

‘तभी तो आपके पास लाया हूँ। हमारी साली का बच्चा तो और भी बीमार था आप के इलाज से अच्छा हो गया।’ अब उसका बात करने का ढंग नम्रतापूर्वक था।

मैने बिगड़ कर कहा, ‘जो मेरा इलाज कराना था तो जल्दी आते!’ ‘कोई दूसरा लाने वाला ही न था, और मैं इससे पहले नहीं आ सकता था।’

उसकी कनपटी पर जख्म का एक गहरा निशान था! इतना बदमिजाज आदमी जरूर किसी मार पीट में जख्मी हुआ होगा!

बच्चे ने बिल्कुल मुर्दा आवाज में रोना शुरू किया! जिसको देखकर मुझको तरस आ गया और मैं आला निकाल कर खड़ी हुई। मर्द ने फौरन कमीज की जेब से दस रुपये का नोट निकालकर मेज पर रख दिया। बच्चे को देखकर मैंने कहा ‘एक इंजेक्शन तो मैं फौरन लगाए देती हूँ, चार रोज तक बराबर यह इंजेक्शन चार-चार घण्टे पर लगेंगे। इंतजाम कर लेना।’ उसकी गरीबी की तरफ निगाह करके मैंने कहा, ‘फीस की जरूरत नहीं इंजेक्शन की कीमत मैं ले लूँगी, बाकी की दवाएँ तुम बाजार में बनवा लो।’

उसने फिर अकड़ कर कहा! ‘साहब मैं खैरात का इलाज नहीं कराता!’ उसने अपने कुर्ते के अन्दर हाथ डाला और एक अँगोछा निकाला! इतने में टेलीफोन की घण्टी बजी, मैंने रिसीवर उठाया और साथ ही निगाह उस मर्द पर पड़ी, वह गाँठ खोल रहा था और मैं हैरान रह गयी। जब उसने एक मोटी सी गड्डी नोटों की निकाली, कम से कम पाँच सौ के नोट होंगे। कुछ रुपये का मेज पर रखकर बोला - ‘बस या और चाहिए!’

मैंने टेलीफोन का जवाब दिया,‘हाँ! हाँ! हाँ!’ उसकी तरफ संबोधित हुई और पूछा ‘तुम्हारा क्या नाम!’

‘कम्मन’ कहकर जरा झिझका!

यह नाम तो कहीं मैं सुना था! हाँ याद आया! दरोगा जब मेरे यहाँ चोरी की तहकीकात करने आया तब उसने कम्मन का नाम लिया था और पुलिस वाले आपस में बात करने में कम्मन की कनपटी के निशान की बात भी कर रहे थे। मैंने पूछा

‘तुम्हारा पेशा क्या है?’

वह जवाब देने ही वाला था कि मैंने जवाब दिया। ‘ताँगा चलाते थे ना!’

‘आपको कैसे मालूम?’ उसने हैरत से पूछा।

‘कम्मन, तुम भूलते हो। अभी दो महीने हुए एक रात के बीच तुम आये थे और मेरा घर साफ करके चल दिये। तुम चोरी

क्यों करते हो...?’

उसने आँख में आँख डालकर बराबरी से जवाब दिया। ‘मेम साहब, अपना-अपना पेशा है।’

अब मेरी बारी हैरान होने की थी।

‘मेरा नाम किसने आपको बताया?’

‘दरोगा जो तहकीकात करने आये थे वह लोग आपस में तुम्हारे कारनामों की बातें कर रहे थे।’

वह पुलिस वालों को गालियाँ देने लगा।

‘यह सारे पुलिस वाले ... पहले अपना हिस्सा वसूल कर लेते हैं फिर हमारा हिस्सा हमको मिलता है। हमको बदनाम करते हैं। दरोगा को मैं समझ लूँगा... मेरे घर मेम साहब साल में सैकड़ों बार दौड़ आती है। पर यही पुलिस वाले मुझे पहले से खबर देते हैं। सब सालों के महीने नहीं बाँध रखे हैं। पाँच साल से बराबर वारंट मेरे नाम जारी रहता है पर खुदा का फजल है कि अभी तक तो पकड़ा नहीं गया।’ उसने शेखी के अन्दाज में मुझे अपना हाल बताया।

‘खुद साले आकर बता जाते हैं कि तलाशी लेने आ रहे हैं। मेम साहब, पुलिस अगर हमारा साथ न दे तो हम दो दिन किसी इलाके में टिक नहीं सकते...।’

उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया। और बच्चे के रोने की भी जो धीमे-धीमे सिसक रहा था, उसने परवाह न की। मैंने बच्चे को मेज पर लिटा कर थपकना शुरू किया। अब उसमें और मुझमें बेतकल्लुफी होती जा रही थी। और मैं उससे बातें करना चाहती थी, मैं पहली बार एक चोर से और वह भी ऐसा चोर जो मेरा अपना घर साफ कर चुका था मिली थी। मैंने कहा, ‘कम्मन, तुम चोरी करते हो। तुमको तरस नहीं आता। मेरा घर तो तुमने बिल्कुल साफ कर दिया। पहनने तक का कपड़ा नहीं रहा। भला बताओ मेरी ऐनक भी तुम ले गये।’

‘कोई चीज बेकार नहीं जाती।’

मैंने उसकी तरफ हैरत से देखकर कहा और मेरी माँ की भी निशानी एक दुपट्टा रखा था वह भी तुम ले गये।

‘तुमने चोरी कैसे शुरू की?’

क्या मैं बिजली का बटन दबा कर नौकरों को बुला लूँ!

‘जैसे सब करते हैं। अपने उस्ताद से सीखी।’

‘तुम्हारे यहाँ भी उस्ताद होते हैं।’

‘और क्या! आपने डाक्टरी कैसे सीखी?’

‘मैंने तो कालेज में पढ़ा था।’ घण्टी बजाऊँ या नहीं।

‘मेरा कालेज जेल खाना था! एक मारपीट में छह महीने की जेल हो गयी थी वहीं उस्ताद से मुलाकात हुई...।’

बच्चा फिर रोने लगा और उसी वक्त दरवाजा खुला और मेरा छोटा भाई अपनी फौजी वर्दी में दाखिल हुआ। जवान लडक़ा था। कम्मन से कहीं ज्यादा ताकतवर था। उसके पास रिवाल्वर भी लटक रहा था। कम्मन उसको देखकर चौंका और फिर जल्दी से नुस्खा उठा कर चलने लगा। पकड़वाऊँ या न पकड़वाऊँ? मैंने जल्दी-जल्दी सोचा। अभी फैसला न कर सकी थी कि वह बाहर चला गया।

‘आपा! क्या बात है! परेशान क्यूँ हो?’

‘तुम्हें मालूम है यह कौन था? यह वही था जिसने मेरे यहाँ चोरी की थी।’

‘तुम्हें कैसे मालूम हुआ?’

‘मेरी इससे बातें हुईं।’

मेरा भाई दरवाजे की तरफ लपका और बाहर निकलकर इधर-उधर देखा। सडक़ साफ पड़ी थी। वह कुछ कदम एक तरफ

को भागा और सडक़े के मोड़ पर भी जाकर देखा, वहाँ कोई न था।

अन्दर आकर गुस्से से कहने लगा - ‘आपा तुम भी कमाल करती हो? चोर तुमको मिला और तुमने छोड़ दिया।’ रिवाल्वर पर हाथ फेर कर कहा ‘मैं उस हरामजादे को कभी न जाने देता।’

मैं खामोश थी।

‘आपा बहुत जज्बाती हैं, बच्चे को देखकर पिघल गयी होंगी।’

यह बात अब मेरे मिलने वालों को मालूम हो चुकी है कि जिसने मेरे यहाँ चोरी की थी वह अब अपने बच्चे का इलाज करवाने आया था और मैं उसको पकड़वा सकती थी लेकिन जाने दिया। सब मेरा मजाक उड़ाते थे लेकिन कोई मेरी दिमागी कशमकश को न समझता था। आज तक मेरी समझ में न आया कि मैंने गलती की थी या नहीं।

मेरे दोस्त पुलिस अफसर हैं जब उन्होंने सुना तो कहा, ‘मालूम है आप को आपने कानूनी गलती की है।’

चोरी की भी तो कई किस्में हैं। उठाई गीरी, जेब कतरी, सेंध लगाना, डाका डालना, चोर बाजारी, दूसरों की मेहनत के फायदे को लेकर अपना घर भर लेना और गैर मुल्कों को हजम कर लेना - यह सब चोरी में दाखिल नहीं?

लोगों के कहने सुनने की तो मुझको परवाह न थी लेकिन जब हर तरफ मुझको बेवकूफ समझकर मेरा मजाक उडऩे लगा तो मेरी अंतरात्मा के अन्दर एक कुरेद पैदा हो गयी क्या सच में मैंने इस चोर को न पकड़वा कर कोई इख्लाकी गुनाह किया था?

मैं अपने शहर की एक नागरिक हूँ। कुछ शहरी जिम्मेदारियाँ मुझ पर लागू हैं इस चोर को न पकड़वा कर क्या मैंने कोई शहरी जुर्म किया है?

फिर मेरी नजर चारों तरफ दौडऩे लगी। मैंने देखा कि बड़े-बड़े चोर बगुला भगत बने घूमते हैं, बड़े-बड़े मुहल्लों में रहते हैं, हवाई जहाज में उड़ते हैं और बड़े-बड़े खाये बैठे हैं या खाने की तैयारियाँ कर रहे हैं और अपनी हिफाजत के लिए कम्मन पुलिस को तो केवल रिश्वत ही देता था, यह उससे भी आगे बढ़े हुए थे। सारे देश की पुलिस व फौज इनकी पगार पर थी। कम्मन 500, 600 चोरी के नोटों पर सिर अकड़ाकर और बराबर का होकर बात करता था, यह सिर्फ अकड़ते ही नहीं बल्कि ऊपर से बैठकर आदेश भी देते हैं।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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