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उत्तर प्रदेश में अभिशप्त है भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी
योगेश मिश्र /संजय तिवारी
लखनऊ: यदि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्षों के प्रदर्शन, इतिहास और इससे उपजे टोटके पर यकीन किया जाए तो यह कहा जा सकता है कि पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष डॉ महेंद्र नाथ पांडेय के लिए चुनाव जीतना टेढ़ी खीर होगा। हालांकि भाजपा के इस टोटके को कल्याण सिंह ने तोड़ कर दिखाया पर इसे अपवाद ही कहा जायेगा। यहाँ का अतीत प्रदेश भाजपा अध्यक्ष की कुर्सी को अभिशप्त होने की साफ़ साफ चुगली कर रहा है।
पिछले दरवाजे से 32 वर्ष सदन में रहे कलराज
पार्टी के प्रदेश अध्यक्षों की पराजय के इस टोटके के चलते कई नेताओ ने तो चुनाव लड़ने की जगह पीछे के दरवाजे से पैठ बनाये रखना जायज समझा। ऐसे नेताओ में कलराज मिश्र और राजनाथ सिंह भी आते हैं। कलराज मिश्र पार्टी के ऐसे भाग्यशाली नेता हैं जो 32 साल राज्यसभा और विधानपरिषद में रहे। केवल दो वर्ष का बीच में गैप हुआ। यह उपलब्धि किसी भी ऐसे नेता को हासिल नहीं है जिसकी अपनी पार्टी न हो। हालांकि राजनाथ सिंह ने कलराज की तरह सिर्फ पिछले दरवाजे से ही सदन में जगह नहीं बनाई। कलराज मिश्रा को भी विधान सभा और लोकसभा चुनाव लड़ना पड़ा पर अध्यक्ष पद पर रहते हुए या उसके ठीक बाद कलराज और राजनाथ का सीधे निर्वाचन में न जाना पार्टी के प्रदेश अध्यक्षों की पराजय के टोटके को सही साबित करता है।
माधव प्रसाद त्रिपाठी नहीं जीत सके चुनाव
भारतीय जनता पार्टी के पहले अध्यक्ष थे माधव प्रसाद त्रिपाठी। वह पूर्वांचल से आते थे। वह 1980 में अध्यक्ष बने। अध्यक्ष बनने से पहले वह जनसंघ के विधायक रह चुके थे। अध्यक्ष होने के बाद त्रिपाठी लोकसभा का चुनाव लड़े और बुरी तरह हार गए। माधव प्रसाद त्रिपाठी पार्टी के रसूखदार नेताओ में से थे।
कल्याण सिंह और राजेंद्र गुप्त की पारी
माधव प्रसाद त्रिपाठी के निधन के बाद कल्याण सिंह अध्यक्ष बने और 89 तक रहे। उन्हें दो कार्यकाल मिले। अध्यक्ष बनने के बाद से सक्रिय राजनीति में रहने तक वह कोई चुनाव नहीं हारे। इससे पहले ही 1980 में वह चुनाव की हार का दंश झेल चुके थे। इसके बाद 89 में राजेंद्र गुप्त को अध्यक्ष बनाया गया। वह 1977 से 91 तक लगातार जीत रहे थे। 1990 में जब सभी हार गए थे तब भी वह जीतने में कामयाब थे लेकिन अध्यक्ष रहते हुए 1991 में चुनाव लड़े और हार गए।
कलराज, राजनाथ और ओम प्रकाश
1991 में कलराज मिश्र अध्यक्ष बने। वह कोई चुनाव ही नहीं लड़े। 2012 से पहले तक वह पिछले दरवाजे से विधानपरिषद और राजयसभा में प्रवेश पाते रहे। उन्होंने पहले विधानसभा का चुनाव 2012 में लखनऊ से लड़ा। दूसरा चुनाव 2014 में देवरिया से लोकसभा का लड़ा। राजनाथ सिंह वर्ष 1996 से 99 तक प्रदेश अध्यक्ष रहे। राजनाथ सिंह 1977 में पहली बार विधान सभा में जीत कर आ गए थे पर 1993 में लखनऊ के बख्शी का तालाब से हार का दंश झेलना पड़ा । कमोबेश यही स्थिति ओमप्रकाश सिंह की भी रही। वह सिर्फ चार महीना ही अध्यक्ष रहे। एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत पर अमल करने के चलते उन्होंने अध्यक्ष पद छोड़ दिया। वह 2007 का चुनाव लड़े और जीत गए लेकिन 2012 का चुनाव हार गए। 2017 में उन्होंने अपनी सीट बेटे को दे दी।
विनय कटियार और केसरी नाथ भी हार गए
राजनाथ सिंह के बाद विनय कटियार अध्यक्ष बने। 2004 में लखीमपुर से लड़े और हार गए। केशरीनाथ त्रिपाठी भी अध्यक्ष होने के बाद चुनाव नहीं जीत सके। 2007 और 2012 में वह इलाहबाद शहर दक्षिणी से चुनाव हार गए। उन्हें हराने वाले नंदगोपाल नंदी इस समय उन्हीं की पार्टी की सरकार में मंत्री हैं।
रमापति राम त्रिपाठी और सूर्यप्रताप शाही भी पराजित
डॉ. रमापति राम त्रिपाठी 2010 तक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहे। उन्होंने विधानसभा चुनाव में सिसवा सीट से किस्मत आजमाई पर जनता ने उन्हें मौक़ा नहीं दिया। इस क्रम में सूर्यप्रताप शाही भी अध्यक्ष होने के दौरान 2012 के चुनाव में अपनी पारम्परिक सीट पर उतरे। इस सीट के बारे में कहा जाता है कि सपा और भाजपा के बीच यहाँ जीत हार का खेल बारी-बारी से चलता है। सूर्यप्रताप शाही चुनाव हार गए और इस्तीफ़ा देना पड़ा।
लक्ष्मी कांत और केशव मौर्य
अब लक्ष्मीकांत बाजपेयी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे। वह 2017 का विधानसभा चुनाव लड़े लेकिन भाजपा के लिए प्रचंड बहुमत के दौर में भी जीतने में कामयाब नहीं हो सके। केशव मौर्या तो सांसद बन कर ही अध्यक्ष बने। उससे पहले वह विधानसभा जीते थे लेकिन उपचुनाव में वह अपनी दोनों सीट गवां दिए। बावजूद इसके पार्टी की मेहरबानी से वह इस समय प्रदेश के उपमुख्यमंत्री हैं।
अब महेन्द्रनाथ पांडेय
पूर्व अध्यक्षों के प्रदर्शन और भाजपा के टोटके से यह नतीजा निकाला जा सकता है की डॉ महेंद्र नाथ पांडेय की राह भी आसान नहीं है। उनको अपने लिए पिछले दरवाजे भी खोल कर रखना चाहिए।