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विचार : सामूहिक संपदा पर बढ़ता कब्जा, संसाधनों की मची है लूट

raghvendra
Published on: 25 Nov 2017 5:38 PM IST
विचार : सामूहिक संपदा पर बढ़ता कब्जा, संसाधनों की मची है लूट
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प्रेम पंचोली

पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में 1960-64 के दौरान एक भूमि बन्दोबस्त हुआ था जिसे फिर 40 वर्ष बाद यानी 2004 में करना था। नये राज्य में तो पहले भूमि बन्दोबस्त होना ही चाहिए था जो नहीं हुआ। इसलिए सामूहिक और व्यक्तिगत संसाधनों की लूट मची है। यह तो स्पष्ट होता है कि भूमि के मामलों में सैटेलाइट सर्वे झूठे आंकड़े प्रस्तुत कर रहा है। संविधान की कुछ धाराओं को तोड़-मरोडक़र देश में जमीन कब्जाने का गोरखधंधा जोरों पर है।

यह हालात उत्तराखंड में भी है। इस पहाड़ी राज्य में जमीन हथियाने के कारण पहाड़ में काफी संख्या में लेग भूमिहीन हो रहे हैं। जानकारों का कहना है कि संविधान की धारा 25 के अन्तर्गत जमीन कब्जाने का काम सरल बनाया जा रहा है। बता दें कि यह धारा उद्योगों को कुछ समय के लिए जमीन उपलब्ध करवाने की वकालत करती है यानी जमीन को लीज पर लेना। इस तरह राज्य की 90 फीसदी से भी अधिक जमीन भू-माफिया के कब्जे में आ चुकी है।

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उत्तराखंड में सर्वाधिक सामूहिक संसाधन नदियां और जंगल हैं। यही सामूहिक संसाधन बड़ी विकासीय परियोजनाओं जैसे बांध, पार्क, सडक़ के लिए भेंट चढ़ाए जा रहे हैं। परम्परागत वन पंचायतों पर अध्ययन करने वाले ईश्वरी जोशी ने कहा कि उत्तराखंड में पिछले 10 वर्षों में जो 71 प्रतिशत जंगल बढ़े हैं वह स्थिति भी स्थानीय लोगों के लिये सवाल खड़ा कर रही है।

1996 से 2012 तक राज्य में बेनाप भूमि को वनभूमि माना गया और तमाम तरह के वनकानून लोगों और जंगल पर लागू कर दिये गये। जबकि भूमिहीन के सवाल को लेकर कानून कहता है कि 180 गज भूमि जिलाधिकारी स्वयं के अधिकार से भूमिहीन को दे सकता है, मगर अब तक राज्य में ऐसी कोई खबर सामने नहीं आ पाई। हां, ऐसी खबरें जरूर आईं कि पिछली सरकार ने 353 नाली सामूहिक जमीन जिन्दल ग्रुप को लीज पर दे डाली। उनका आरोप है कि जिन्दल को तो जमीन वैसे ही कौडिय़ों के भाव मिल जाती है परन्तु जब वन अधिनियम 2006 के तहत विनसर सेंचुरी के भीतर बसे 17 गांव के ग्रामीणों ने जनवरी 2012 में भूमि अधिकार के दावे भरे तो उन पर सरकार ने अब तक कोई निर्णय नहीं लिया। राज्य में भूमि के सवाल पर स्पष्ट नजरिया नहीं बन पाया है। सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि पहाड़ में कृषि की कुल सात प्रतिशत भूमि ही बची है जबकि गैर सरकारी आंकड़े इसे चार प्रतिशत ही बता रहे हैं।

प्रयास संस्था की सुनिता शाही ने सवाल खड़ा किया है कि खपराड़ (मुक्तेश्वर) का जंगल कहंा गायब हो गया? मौजूदा समय में तो वहंा कंक्रीट का जंगल ही दिखाई दे रहा है। वनगुजरों के साथ काम करने वाले गुजरात से आए दिनेश देसाई का कहना है कि घुमन्तू पशुचारकों का प्राकृतिक संपदा जैसे गोचर, चारागाह नामों से जाने जानी वाली जगह पर सामूहिक अधिकार था। पर इनको भी कब्जा करने के लिए सरकार ने नायाब तरीका निकाला कि एक विशेष क्षेत्र को स्पेशल जोन, इको सेंसेटिव जोन वगैरह घोषित कर दिया।

इंटरनेशनल लैंड कॉलियशन की अन्नू वर्मा ने कहा कि दुनिया में ऐसा प्रचार किया जा रहा है कि जमीन मुनाफे की नहीं बल्कि घाटे का सौदा है। इस प्रकार भू-माफिया छोटे और मझोले किसानों की जमीन पर कब्जा करके कॉन्ट्रैक्ट फाॄमग के कारोबार को बढ़ा रहे हैं। इस परिस्थिति में देश का एक बड़ा वर्ग भूमिहीन होने के कगार पर पहुंच गया गया है।

इतिहासकार व पद्मश्री प्रो.शेखर पाठक ने कहा कि इस देश में अंग्रेजों के आने के बाद 1853 में प्राकृतिक संसाधनों का परिदृश्य ही बदल गया है। जबकि जमीन एक मात्र संसाधन है, जिस पर तालाब, नदी, पहाड़, जंगल और लोग रहते हैं। कहा कि सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सर्वाधिक जमीन रेलवे विभाग के पास है। उन्होंने बताया कि आज से 200 साल पहले ट्रेल नाम के अंग्रेज ने यहां भूमि बंदोबस्त किया था। तब वन पंचायतों का प्रारम्भिक रूप लठ पंचायत ही हुआ करती थी और उन दिनों इन पंचायतों के पास सामूहिक संसाधन प्रचुर मात्रा में थे। उन्होंने सुझाया कि एक यूनिट खेती को विकसित करने के लिये छह यूनिट जमीन चाहिए। आज सभी प्रकार का ढांचागत विकास काश्त की जमीन पर ही हो रहा है। इस प्रकार आंकड़े कैसे बता सकते हैं कि काश्त की भूमि है कि नहीं।

उदाहरण के तौर पर 1817 का बंदोबस्त कहता है कि अब के उतराखंड में उन दिनों कृषिभूमि 8-10 प्रतिशत थी। 2017 में सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि राज्य में 12 प्रतिशत काश्त की भूमि है। जबकि तराई-भावर को छोड़ देंगे तो पर्वतीय क्षेत्र में मात्र छह प्रतिशत ही काश्त की भूमि बची है। पाठक का सुझाव है कि भूमि के मामलों में भरत सनवाल और मंगलदेव विशारद की रिपोर्ट की आज भी जरूरत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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