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आखिर क्यों किया था गांधीजी ने झंडे को सलाम करने से इनकार?
लखनऊ: तिरंगा और हमारे तिरंगे का प्रतीक चिह्न बहुत कुछ कहता है। इसमें सत्य, अहिंसा और शांति का संदेश छिपा है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि तिरंगे में मौजूद चक्र को लेकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी संतुष्ट नहीं थे। गांधी जी ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। आखिर ऐसा क्यों हुआ विस्तार से बताते हैं आपको पूरी बात...
जब 2 अप्रैल 1931 को कांग्रेस ने एक कमेटी बनाई, जिसमें 7 लोग थे, राष्ट्रीय ध्वज को अंतिम रूप देना था। जब इस ध्वज का प्रारूप तैयार हुआ तो ध्वज में ऊपर केसरिया नीचे सफेद रंग की पट्टी थी और बीच में एक नीले रंग का चक्र था। इसी की छत्र छाया में आजादी की आखिरी लड़ाई लड़ी गई।
ब्रिटिश यूनियन जैक का भी प्रस्ताव
आजादी मिलने के बाद फिर से राष्ट्रीय ध्वज को लेकर कुछ सवाल हुए और संविधान सभा ने राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक नई कमेटी का गठन 23 जून 1947 को किया और 24 जून को वायसरॉय लार्ड माउंटबेटेन ने एक प्रस्ताव में कहा कि भारत के झंडे के एक कोने में ब्रिटिश यूनियन जैक का निशान भी होना चाहिए पर ज्यादातर लोग इस प्रस्ताव के खिलाफ हो गए थे।
22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगे की संवैधानिक रूप से घोषणा कर दी, उस समय भी तिरंगे के तीनों रंगों की अहमियत वैसी ही रखी गई थी, जैसी की शुरुआत में थी। बस एक बदलाव हुआ। तिरंगे के बीच में स्थित चरखे की जगह अशोक चक्र ने ली थी।
गांधीजी को नहीं था पसंद झंडे में चक्र
इस बदलाव से गांधीजी नाखुश थे। उन्होंने झंडे में अशोक चक्र की जगह चरखे को रखने को कहा और नहीं रखने पर सलाम करने से इनकार कर दिया था।
नेहरू-पटेल ने समझाया गांधीजी को
गांधीजी का मानना था कि अशोक चक्र हिंसा का प्रतीक है पर बाद में बल्लभ भाई पटेल और पं.नेहरू ने गांधीजी को समझाया कि अशोक चक्र विकास और प्रगति का प्रतीक है और बहुत मान-मनौवल के बाद गांधीजी ने झंडे के स्वीकृति दी।