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सृजन: बुद्धिमत्ता आखिर है क्या, यानी लंगर की चौकीदारी!...
आइजैक एसिमोव
जब मैं फौज में था, मैंने एक एप्टीट्यूड टेस्ट में हिस्सा लिया था। अमूमन सभी सैनिक इस टेस्ट को देते हैं। आम तौर पर मिलने वाले 100 अंकों की जगह मुझे 160 अंक मिले। उस छावनी के इतिहास में किसी ने भी अब तक यह कारनामा अंजाम नहीं दिया था। पूर दो घंटे तक मेरी इस उपलब्धि पर तमाशा होता रहा। (इस बात का कोई खास मतलब तो था नहीं। अगले दिन मैं फिर से उसी पुरानी और शानदार फौजी ड्यूटी पर तैनात कर दिया गया- यानी लंगर की चौकीदारी!)
जीवन भर मैं इसी तरह शानदार अंक लाता रहा हूं। और एक तरह से खुद को तसल्ली देता रहा हूं कि बड़ा बुद्धिमान हूं और उम्मीद करता हूं कि दूसरे लोग भी मेरे बारे में यही राय रखें।
वास्तव में ऐसे अंकों का लब्बो-लुआब यही है कि मैं इस तरह के अकादमिक प्रश्नों का जवाब देने में खासा अच्छा हूं, जो इस तरह की बुद्धिमत्ता परीक्षाएं लेने वाले लोगों द्वारा पसंद किए जाते हैं। यानी मेरी ही तरह के बौद्धिक रुझान के लोग।
उदाहरण के लिए, मैं एक मोटर मैकेनिक को जानता था जो इन बुद्धिमत्ता परीक्षाओं में किसी भी हाल मेरे हिसाब से 80 से ज्यादा स्कोर नहीं कर सकता था। मैं मानकर चलता था कि मैं मैकेनिक से ज्यादा बुद्धिमान हूं।
लेकिन जब भी मेरी कार में कोई गड़बड़ी होती तो मैं भागकर उसके पास पहुंच जाता। बेचैनी से उसे गाड़ी की जांच करते हुए देखता और उसके निर्देशों को ऐसे सुनता जैसे कोई देववाणी हो और वह हमेशा मेरी गाड़ी दुरुस्त कर देता।
सोचिए अगर मोटर मैकेनिक को बुद्धिमत्ता परीक्षा का प्रश्नपत्र तैयार करने को कहा जाता।
या किसी अकादमिक को छोडक़र कोई बढ़ई, या कोई किसान इस प्रश्नपत्र को तैयार करते। ऐसी किसी भी परीक्षा में मैं पक्के तौर पर खुद को बेवकूफ साबित करता और मैं बेवकूफ होता भी।
एक ऐसी दुनिया में, जहंा मुझे अपनी अकादमिक ट्रेनिंग और मेरी जुबानी प्रतिभा का इस्तेमाल करने की छूट न हो, बल्कि उसकी जगह कुछ जटिल-श्रमसाध्य करना हो और वह भी अपने हाथों से, मैं फिसड्डी साबित होऊंगा।
इस तरह मेरी बुद्धिमत्ता, निरपेक्ष नहीं, बल्कि उस समाज का एक फलन है जिसमें मैं रहता हूं। और यह उस सच्चाई का भी नतीजा है जिसे समाज के एक छोटे से हिस्से ने खुद को ऐसे मामलों का विशेषज्ञ बनाकर थोप दिया है।
आइए, एक बार फिर अपने मोटर मैकेनिक की चर्चा करें।
उसकी एक आदत थी- जब भी वह मुझसे मिलता तो मुझे चुटकुले सुनाता।
एक बार उसने गाड़ी के नीचे से अपना सर बाहर निकाल कर कहा: डॉक्टर! एक बार एक गूंगा-बहरा आदमी कुछ कीलें खरीदने को हार्डवेयर की दुकान में गया। उसने काउंटर पर दो अंगुलियां खड़ी कीं और दूसरे हाथ से उन पर हथौड़ा चलाने का अभिनय किया।
दुकानदार भीतर से हथौड़ा ले आया। उसने अपना सर हिलाया और उन दो अंगुलियों की ओर इशारा किया जिस पर वह हथौड़ा चलाने का उपक्रम कर रहा था। दुकानदार ने उसे कीलें लाकर दीं। उसने अपनी जरूरत की कीलें चुनीं और चला आया। इसी तरह डॉक्टर, अगला बंदा जो दुकान में आया, वह अंधा था। उसे कैंची की जरूरत थी। तुम्हारे हिसाब से उसने दुकानदार को कैसे समझाया होगा?
उसकी बातों में खोए-खोए मैंने अपना दायां हाथ उठाया और अपनी पहली दो अंगुलियों से कैंची की मुद्रा बनाकर दिखाई।
इस पर मोटर मैकेनिक जोर-जोर से हंसते हुए बोला, हे महामूर्ख, उसने अपनी आवाज इस्तेमाल की और बताया कि उसे कैंची चाहिए।
फिर उसने बड़ी आत्मतुष्टि से कहा, आज मैंने दिनभर अपने ग्राहकों से यही सवाल पूछा।
क्या तुमने काफी लोगों को इसी तरह बेवकूफ साबित किया? मैंने पूछा।
बहुत थोड़े, वह बोला, लेकिन तुम्हें तो मैंने बेवकूफ साबित कर ही दिया।
ऐसा क्यों हुआ? मैंने पूछा.
क्योंकि तुम बुड़बक पढ़े-लिखे हो डॉक्टर। मैं जानता हूं कि तुम ज्यादा स्मार्ट हो भी नहीं सकते।
मुझे कुछ बेचैनी महसूस हुई कि वह मेरे बारे में थोड़ा-बहुत जानता है।
(प्रसिद्ध विज्ञान लेखक की आत्मकथा का एक अंश। अनुवाद : आशुतोष उपाध्याय)