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Yogesh Mishra Special- जाति जाती नहीं, जाने नहीं दी जाती….

Yogesh Mishra
Published on: 9 April 2018 5:18 PM IST
Yogesh Mishra Special- जाति जाती नहीं, जाने नहीं दी जाती….
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जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो न ज्ञान। यह बात कबीर ने इसलिए कही थी क्योंकि जब भी ज्ञान प्राप्त होता है तो हर तरह के बंधन टूट जाते हैं। जातियां के बंधन भी। ज्ञान चक्षु खोलता है। हमारे राजनेता इसके ठीक उल्टा चाहते हैं क्योंकि खुले चक्षु से जब हम उन्हें निहारेंगे तो उनके अतल का पूरा तल सामने आ जाएगा। उनकी निरंतर कोशिश होती है कि ज्ञान की जगह जाति पूछी, जांची, परखी जाएँ। यही वजह है कि चुनाव में भी कास्ट केमिस्ट्री तैयार करते हैं।

बीते दिनों दलित उत्पीड़न कानून को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले पर प्रतिक्रिया हुई। इसने फिर से शाहबानो केस की याद ताजा कर दी। यह बताया कि अदालत कानून से नहीं लोकतंत्र, भीड़तंत्र और जनतंत्र के दबाव चलाने की कोशिश जारी है। शाहबानो फैसले के बाद ऐसी ही कोशिश के डैमेज कंट्रोल करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को राममंदिर का ताला खुलवाना पड़ा था। फैसलों को पुनर्विचार करने, दूसरी अदालत और बड़ी बेंच में दायर करने की व्यवस्था है। लेकिन इन सबको इनकार करते हुए देश भर के दलित उपद्रवी सड़कों पर उतर आए। रमईराम नाम के एक नेता ने तो अलग हरिजनिस्तान की मांग तक कर ड़ाली। सावित्री बाई फूले, ज्योतिबा फूले से आगे निकलने की होड़ में अपनी ही पार्टी के खिलाफ हो गईं।

अपने फैसले में सर्वोच्च अदालत ने यह कहा है कि दलित उत्पीड़न एक्ट के तहत दर्ज मामले में गिरफ्तारी से पहले जांच हो और संबंधित अथारिटी से अनुमति के बाद ही गिरफ्तारी हो। सर्वोच्च अदालत ने ऐसा कुछ नहीं कहा था कि विपक्ष हंगामा बरपा करे। सरकार को दलित को साधने के लिए डैमेज कंट्रोल करना पड़े। दलित सड़कों पर उतर आएँ। जिस प्रकरण में अदालत ने यह फैसला दिया है उसकी शुरुआत महाराष्ट्र के सतारा जिले के गवर्नमेंट कालेज आफ फार्मेसी बराड़ के स्टोर कीपर भास्कर करमारी गायकवाड की सालाना गोपनीय रिपोर्ट में दर्ज निगेटिव कमेंट से होती है। यह कमेंट उनके सीनियर अफसर डा सतीश भीमे और डा किशोर बुराडे ने किए हैं। इन्होंने भास्कर की वार्षिक प्रविष्टि में लिखा है कि वह अपना काम ठीक से नहीं करते। उनका चरित्र ठीक नहीं है। 4 जनवरी 2006 को भास्कर ने इन दोनों अफसरों के खिलाफ महाराष्ट्र के बराड़ में प्राथमिकी दर्ज की। यह मुकदमा वहां से चलता हुआ सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा।

क्या किसी सीनियर अफसर द्वारा जूनियर अफसर की प्रतिकूल प्रविष्टि लिखा जाना दलित उत्पीड़न का हिस्सा होना चाहिए। क्या यह दलित अस्मिता का प्रश्न होना चाहिए। डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने आरक्षण 10 साल के लिए ही दिया था। उसे निरंतर बढ़ाने, उसकी समीक्षा न होने देने वाले सिर्फ दलित जातियों के नहीं हैं। भारत मे जातिवाद की बहस बेहद दिलचस्प है। तभी तो जातियां राजनीतिक और समाजिक हैसियत में बेतहाशा बदलाव के बाद भी ढाल की तरह काम करती हैं।

बीते दिनों उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव में एका हुई। बसपा सुप्रीमो मायावती ने बयान दिया- मेरी नाराजगी उनके पिता मुलायम सिंह यादव से थी। उनके बेटे को क्यों सजा मिलनी चाहिए। उन्होंने अखिलेश यादव को माफ कर दिया। लेकिन पता नहीं किस जन्म में किस पीढी के हमारे पूर्वजों ने गरीबों, दलितों, पिछड़ों के साथ अत्याचार किया था यह बताया जाता है। ऐसे पूर्वजों को गुजरे कई सौ साल हो गये हैं। मायावती और उन जैसे दलित राजनेता समाज को उन्हें माफ नही करने देते। यानी अपनी भलाई के लिए दूसरी पीढ़ी को ही माफीनामा और सैकड़ों साल के गुनाह पर दोहरा रवैया।

आज तक किसी दलित उद्योगपति, नेता या नौकरशाह ने अपनी बिरादरी के दूसरे शख्स के लिए आरक्षण का लाभ दूसरी-तीसरी पीढी में भी नहीं छोड़ा। तो हम उन्हें दलित हित चिंतक मान लें और अपने जूनियर अफसर के खराब प्रविष्टि लिखने वाले को दलित विरोधी। यह तर्क एकदम अस्वीकार्य है। सिर्फ वोट बैंक के लिए दलित हो जाना, पिछड़ा हो जाना, दलित हित चिंतक हो जाना, समाज को बांटने का एक नया फार्मूला है।

किसी भी दलित और पिछड़े नेता ने अपनी जाति-जमात के लिए उत्तम शिक्षा नहीं मांगी है। यही कारण है कि इन बच्चों को प्रोफेशनल कोर्स पूरा करने में निर्धारित समय से अधिक लग जाता है। अकेले कानपुर आईआईटी में पिछले पांच साल में 113 छात्रों को खराब अकादमिक पर्फामेंस की वजह से पाठ्यक्रम से बाहर होना पड़ा। इसमें 105 छात्र आरक्षित वर्ग के थे। 3 दिव्यांग और 5 छात्र समान्य वर्ग के थे। हम अगर पिछड़ों-दलितों का भला चाहते हैं तो हमें यह सोचना होगा कि आरक्षित छात्रों की संख्या समान्य वर्ग के छात्रों की तरह 5 क्यों नहीं हो सकती। कैसे की जा सकती है। लेकिन यह सवाल लोकतंत्र के हित साधने में काम नहीं आता। अपने पक्ष में सर गिनने की कवायद को आगे नहीं बढ़ाता। वोटों की फसल को खाद-पानी नहीं देता। इसीलिए हमारा राजनेता, हमारी सरकार जाति पूछती है और गणेश परिक्रमा करती है कि जाति बनी रहे।

सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद केंद्र की भाजपा सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कई अभियान हाथ में लिए हैं। सरकार ग्राम स्वराज अभियान चलाएगी, राष्ट्रीय न्याय दिवस मनाएगी, जहां डा भीमराव अंबेडकर ने अंतिम सांस ली थी उसी अलीपुर में अंबेडकर मेमोरियल बनवाएगी। दलित उत्थान तभी हो सकता है जब दलित प्रधानमंत्री हो यह भी एक मुगालता विपक्ष की ओर से चलाया जा रहा। जिन राज्यों में दलित मुख्यमंत्री हुए हैं वहां दलितों को लेकर क्या हो पाया और क्या नहीं इसे पीछे छोड दिया है। 2007 से 2012 के बीच मायावती उत्तर प्रदेश की पूर्ण बहुमत की सरकार में मुख्यमंत्री थीं। उस समय दलित पर अत्याचार के मामलों में सात हजार का इजाफा हो गया था। उनके मुख्य सचिव ने बाकयदे पत्र जारी कर झूठा केस करने वाले दलित पर भारतीय दंड विधान की धारा 182 के अंतर्गत कार्यवाई का आदेश दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने भी तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगाई और कहा है कि इस कानून के जरिए किसी को अनावश्यक परेशान न किया जाय तो हंगामा हो गया। 11 लोगों की जानें चली गयीं।

इस कालखंड में जब आर्थिक हैसियत ही आदमी का स्तर तय करती है, सरकारी पद जाति के बंधन तोड़ देते हैं तब दलितों और पिछडों को आर्थिक तौर पर मजबूत बनाने, उन्हें सरकारी नौकरियों में अवसर देने की जगह उनकी प्रविष्टि को लेकर हंगामा खड़ा किया जा रहा है। अदालत सड़क से नहीं चलती है। नहीं चलनी चाहिए। जहां भीड़ कानून बनाती है वहां जंगलराज होता है।

Yogesh Mishra

Yogesh Mishra

Founder & Editor in Chief - Newstrack.com & Apnabharat.org

Journalism for Yogesh Mishra is not a profession but a mission. In his career, spanning over 26 years, he has served just not as journalist but an educationist and literary as well. Looking at journalism as an instrument of change, he has also highlighted corruption and problems faced in various sectors like education, health, water, sanitation and agriculture. The exposes to his credit which deserve mention include largest tax evasion in the country by Hasan Ali and the fraud committed by 25 Indians, while he was working for the Outlook magazine as the UP Bureau Head. The amount involved was whopping Rs 18,000 crores. He was the first to report the PMO’s involvement in the ‘2G Spectrum Scam’, during the UPA regime. Another commendable work by him is exposing the Commonwealth Games Scam along with the video footage of a meeting before the beginning of the tournament. The issue of banning the video is sub judice. His news item, “Uttar Pradesh ke sau gaon bhi Nirmal Gram Pusaraskar ke layak nahi” exposed how the state government wrongly claimed prizes for 1,269 villages. It led to the cancellation of the prizes. Even UNICEF research testified and led to discontinuation of the NIRMAL GRAM AWARDS. He is, presently Member of Fee Review committee set up by the government of Uttar Pradesh to fight menace of arbitrary fee structure in private schools across the state. Many of his suggestions concerning electoral reforms have been adopted and implemented by the Election Commission of India. He was a member of the ‘Navoday Vidyalaya Samiti’, review committee constituted by Govt. of India for the implementation of Sarv Siksha Abhiyaan in UP. Besides writing in national and international newspapers and magazines, he has taken up teaching assignments and served as a visiting faculty in about a dozen universities. Author of ten books, he has also received prestigious Madhu Limaye and Yash Bharti awards. His new goal is to set up a new media house. A beginning has been already made as he has launched a multi-lingual news portal and a weekly magazine, Apna Bharat.

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