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बदलाव की बेचैनी का परिणाम है डोनाल्ड ट्रम्प की जीत
प्रो. हर्ष कुमार सिन्हा
चेन्नई की एक मछली चाणक्य ने पहले ही इस बात की भविष्यवाणी कर दी थी कि अमेरिका में चल रहे राष्ट्रपति चुनावों में रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप की जीत होगी। मछली ने अपना भोजन उस नाव की तरफ से खाया था जिस पर ट्रंप की तस्वीर लगी हुई थी। इससे पहले इस मछली ने यूरो कप 2016 फुटबॉल प्रतियोगिता के विजेता की भी सही भविष्यवाणी की थी।
एक चीनी बंदर ने भी कुछ दिन पहले ही यह भविष्यवाणी कर दी थी कि ट्रंप ही राष्ट्रपति चुनावों में जीत दर्ज करेंगे। चीन में किंग ऑफ प्रॉफिट यानी देवदूतों के राजा के नाम से मशहूर जेदा नाम के इस बंदर को हिलेरी क्लिंटन और डोनाल्ड ट्रंप के कट आउट के सामने लाया गया। इसके बाद दोनों के कट आउट के सामने केला रखा गया। बंदर ने ट्रंप के सामने रखा केला उठाया। चाणक्य मछली की तरह इस बंदर ने भी फुटबॉल विश्व कप में पुर्तगाल की जीत की भी सही भविष्यवाणी की थी। और अब सचमुच ट्रंप अमरीका के 45वें राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं।
सवाल ये है कि जो बात मछली और बन्दर जैसे अविश्वसनीय टिप्पणीकार पहले से कह रहे थे उसे वे खांटी विश्लेषक, बड़े-बड़े पत्रकार और उड़ती चिडिय़ा के पर गिन लेने वाली अंतर्राष्ट्रीय मीडिया क्यों नहीं पढ़ पायी। क्या ट्रम्प की जीत मछली और बन्दर की तरह कोई जादुई घटना थी जो अचानक घटित हो गई या फिर यह एक स्वाभाविक परिघटना थी जिसके तार्किक कारण थे। बात तो दरअसल दूसरी ही सच है।
ट्रम्प की जीत सचमुच ऐतिहासिक है। केवल इसलिए नहीं की वे इस पद पर चुने जाने वाले सबसे उम्रदराज आदमी हैं। इसलिए भी नहीं की उनकी प्रत्याशिता हमेशा विवादों के घेरे में रही और वे खुद भी एक के बाद एक कई खराब विवादों में पड़ते रहे। उनकी जीत इसलिए ऐतिहासिक है कि अब तक उनका कोई राजनीतिक प्रोफाइल नहीं रहा है। वो शुद्ध कारोबारी हैं और उनकी तीन शादियों, अनेक अरुचिकर यौन प्रसंगों और टैक्स चोरी की कोशिश समेत तमाम दृष्टान्त उनकी मनमानी जीवन शैली की ही चुगली करते हैं जिसे बहुत अच्चा नहीं माना जाता। बावजूद इसके वे चुनाव जीत गए हैं और वो भी ऐसी प्रतिद्वंद्वी से जो अमेरिका की प्रथम महिला, तेज तर्रार विदेश मंत्री और सक्रिय राजनेता होने के अलावा देश-विदेश की मीडिया की पहली पसंद भी थीं।
इसलिए ट्रम्प की जीत ने बहुत करीने से इस बात को भी प्रमाणित कर दिया है कि किसी लोकतांत्रिक देश के मन के अन्त:पुर में क्या चल रहा है इसको भांपने का काम बौद्धिकों-पत्रकारों की आत्मरति निमग्न जमात के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।
अब दुनिया भर के अखबारों में ट्रम्प की जीत के विश्लेषण और वजहें प्रस्तुत की जा रही हैं। हालांकि सवाल यह भी है कि इतनी ठोस वजहें पहले मीडिया विमर्श में क्यों अहमियत नहीं रखती थीं। ट्रम्प की जीत की वजहें उनकी शख्सियत की तरह ही नितांत मौलिक और अलग किस्म की हैं। ये जीत बदलती दुनिया के साथ-साथ बदलते अमेरिकी मानस की झलक भी देती है। इस जीत ने बताया कि दुनिया भर में इस समय बदलाव का प्रबल जन-ज्वार है। मध्यपूर्व में कुछ साल पहले हुई अनेक क्रांतियों के पीछे यही जन ज्वार था, ब्रेक्जित के पीछे भी बदलाव की बेचैनी थी। भारत में 2014 के परिणाम भी बदलाव की बेचैन छटपटाहट से निकले थे और अब ट्रम्प की जीत भी उसी श्रृंखला की कड़ी है।
याद कीजिये कि खुद बराक ओबामा भी इसी बदलाव की लहर पर सवार होकर आ पाए थे। ओबामा ने अमेरिका को वित्तीय संकट से बचाया था और नौकरियां बढ़ाकर उन्होंने अमेरिकी लोगों का दिल जीता था। लेकिन ये उम्मीद वे बरकरार नहीं रख सके। कर्ज के बोझ से जूझती अर्थव्यवस्था और घटती-छिनती नौकरियों से हताश अमरीकियों को भरोसा नहीं हुआ कि मौजूदा नीतियों की अनुगामी हिलेरी क्लिंटन इसे बदल पाएंगी। उधर ट्रंंप ने सबको विश्वास दिलाया कि अमेरिका की खराब ट्रेड पॉलिसीज की वजह से संकट आया था और वह इससे पार पाना बखूबी जानते हैं। लोगों ने एक कामयाब बिजनेसमैन पर भरोसा करना उचित समझा और वे जीत गए।
इस चुनाव के दौरान बार-बार कहा गया कि ये अमेरिकी चुनावों के इतिहास का सबसे निम्नस्तरीय संग्राम था। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि पहली बार ऐसा हुआ था कि दोनों प्रत्याशी विवाद की गठरी लादे हुए जंग लड़ रहे थे। अब सवाल सिर्फ यही था कि दोनों में कम खराब कौन। नतीजों के पीछे का मनोविज्ञान पढ़ें तो ये समझ में आता है कि जनता ने आरोपों को छुपाने और नकारने वाले व्यक्ति की बजाय उस साफगोई को ज्यादा भरोसेमंद माना जिसने अपनी करनी के लिए साफ तौर पर माफी मांग ली। यह दरअसल उत्तर-आधुनिक दौर का जन मनोविज्ञान था जो अब खलनायकों के प्रति भी सहानुभूति रखते हुए ये समझने की कोशिश करता है कि उसके खल-तत्व के पीछे कौन से कारण जिम्मेदार हैं। यह एक नया फेनामिना है जिसे सबको ध्यान में रखना ही होगा। खासकर चुनावी भविष्यवक्ताओं को।
ओबामा 8 साल पहले बदलाव की जिन संभावनाओं को लेकर आये थे वे उनके दूसरे कार्यकाल में सुस्ती और लडख़ड़ाहट का शिकार दिख रही थीं और उससे बेहतर नतीजों की उम्मीद धुंधलाती दिख रही थी। हिलेरी इसे दोबारा तभी चमक भरा बना सकती थीं जब वे खुद चमक से भरी हों मगर मंच पर लडख़ड़ाहट, चेहरे पर गहराती झुर्रियों, ईमेल विवाद और नकारात्मक चुनाव प्रचार ने ऐसा नहीं होने दिया। इसके बरक्स बेलौस बोलने वाले, गैर राजनीतिक शब्दावली इस्तेमाल करने वाले कारोबारी पर जनता ने इसलिए विश्वास करना उचित समझा कि वो जो करेगा साफ-साफ करेगा और उलझन भरी नीतियों की जगह आर-पार की नीतियां लाएगा जैसा ट्रम्प ने मेक्सिको से लेकर चीन और पाकिस्तान से लेकर आतंकवाद के मसलों पर बार-बार जाहिर किया था।
खासकर इस्लामी आतंकवाद जैसे मुद्दों पर अपने कड़े रुख से उन्होंने आम अमेरिकी जनता को अपने पक्ष में खड़ा करने में सफलता हासिल की। हालांकि इस मुद्दे पर उन्हें काफी आलोचना का सामना भी करना पड़ा लेकिन इससे बेपरवाह होकर वह अपने रुख पर कायम रहे। डोनाल्ड ट्रंप की सबसे बड़ी कमजोरी ही उनकी सबसे बड़ी खासियत बन गई। इसकी वजह से अमेरिकी जनता में उनकी छवि एक ऐसे नेता की बन गई जो मजबूती से अपनी बात रखता है और फिर उसके पीछे उतनी ही मजबूती से डटा रहता है। अपने भाषणों में वह यह कहते दिखे कि अगर वह राष्ट्रपति बनते हैं तो वह चीन को कड़ा सबक सिखाएंगे। एक भाषण में तो उन्होंने यह भी कह दिया था कि चीन अमेरिकी अर्थव्यवस्था का रेप कर रहा है। ऐसे में चीन के प्रति कड़े रुख ने भी ट्रंप को आम मतदाताओं का चहेता बना दिया।
और इन सबसे अलग वे उस श्वेत अमेरिकी समुदाय को भी अपने पक्ष में लामबंद कर पाने में कामयाब हो गए जो पिछले कुछ सालों से खुद को अपने ही देश में दोयम दर्जे की हैसियत में होने की सांकेतिक अभिव्यक्तियाँ कर रहा था. यही वह प्रमुख कारण था जिसने उन्हें उन राज्यों में भी समर्थन दिलाया जो पारंपरिक तौर पर रिपब्लिकनों के गढ़ नहीं थे।
ट्रम्प ने मोदी का नारा इस्तेमाल करते हुए ‘अबकी बार ट्रम्प सरकार’ की हुंकार भरी थी। दोनों में और भी कई मामलों में समानताएं हैं। अगर मोदी दिल्ली के अभिजात्य लुटियंस जोन के लिए बाहरी होने के चलते बौद्धिकों की एलीट आशंकाओं के शिकार हुए तो ट्रम्प भी एलीट वाशिंगटन क्लब के न होने के कारण उपहास और आलोचना के पात्र बने। दोनों अपनी स्पष्टवादिता और मुखरता से फायदे में रहे। मोदी ने अपने प्रशासनिक कौशल को प्रमाणित किया है और भारत के इतिहास में सबसे कम समय में अपनी गहरी छाप छोड़ी है। अब बारी ट्रम्प की है। उनका जीत के बाद का प्रथम भाषण उम्मीद जगाने वाला है। वे शान्ति और स्थिरता के नारे के साथ आये हैं। उनकी कामयाबी अमेरिका के लिए ही नहीं दुनिया भर के लिए बेहतर होगी।