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नई लाइन पर मोदी
पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने केवल बहुसंख्यक मतदाताओं के बलबूते सरकार बनाने का जो मंसूबा खड़ा किया उसमें इस बात का अंतरनिहित भय था कि बिना अल्पसंख्यकों को लिए इस मंसूबे को पूरा करना संभव नहीं है। इसी असंभव को संभव करने के लिए नरेंद्र मोदी ने ‘सबका साथ, सबका विकास‘ का नारा गढ़ा। बार-बार 125 करोड़ देशवासियों की बात की। इसी के मार्फत वह देश के अल्पसंख्यक मतदाताओं को संबोधित कर रहे थे। राष्ट्रीय फलक पर नरेंद्र मोदी के छा जाने की वजहों में गुजरात में उनकी सरकार के दौरान किये गये विकास के काम इकाई भर हैं। इसकी बड़ी वजह मोदी का टोपी और दाढ़ी से परहेज करना रहा। हिंदुओं के लिये मौत का सौदागर सरीखा तीखा तंज सह जाना रहा। नरेंद्र मोदी इकलौते हिंदू नेता थे। बाकी सब नेता धर्म निरपेक्ष थे या फिर तुष्टिकरण के अलम्बरदार। इनकी धर्म निरपेक्षता भी कथित और छद्म थी। मोदी में जो बहुसंख्यकवाद था वह ‘बोल्ड’ था। इसीलिए अंग्रेजी की कहावत ‘बोल्ड इज ब्यूजटीफुल’ की तरह अंगीकृत हुआ। अपने इसी संकल्प के चलते वह भारतीय जनता पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी बनाने में कामयाब हुये। जनमानस को एक विशेष किस्म की टोपी पहनने से इनकार करने वाले नरेंद्र मोदी बहुत भाये। शायद यही वजह थी कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी एक बार टोपी पहनने से इनकार करने का साहस दिखाया था। हालांकि बाद में उन्होंने टोपी पहन ली।
नरेंद्र मोदी के समर्थन का बड़ा आधार तुष्टिकरण से हाथ झाड़ना या फिर बहुसंख्यक तुष्टिकरण करना भी है। अब जब मोदी दूसरी बार लोकतंत्र की कसौटी पर कसे जाने के लिये जनता के बीच जाने की तैयारी में हैं तब उन्होंने नीतियां भले ही पुरानी जैसी रखी हों पर अपनी रणनीतियां इस कदर बदल ली हैं कि ठोस संकल्प, नया और बेहतर विकल्प वाले नरेंद्र मोदी नेपथ्य में जाते दिख रहे हैं। भाजपा जातीय राजनीति पर उतर आई है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार के दौरान उच्च न्यायालय ने जातीय सम्मेलन करने और नेताओं के इन सम्मेलनों में शिरकत करने पर तल्ख टिप्पणी की थी। भाजपा ने इस टिप्पणी का स्वागत किया था। आज भाजपा जायसवाल, निषाद, कहार, कुशवाहा, विश्वकर्मा, यादव, कुर्मी आदि जातीय सम्मेलनों की झड़ी लगा रही है। विपक्ष तंज कस रहा है। भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष ब्राह्मण हैं। मुख्यमंत्री क्षत्रीय हैं। दलित एक्ट को लागू कर मायावती के वोटों में सेंध की उसकी कोशिश उजागर हुई है। भाजपा के ये प्रयास या तो उसे दिशा हारा बता रहे हैं या फिर वह सब वोट बैंक समेटकर विपक्ष की झोली खाली करने की कोशिश में लगी दिख रही है। हालांकि लोकतंत्र में यह संभव नहीं है। नरेंद्र मोदी के आविर्भाव का कारण इस तरह की कोशिश करने वाले दलों से जनता का मोह भंग रहा।
लेकिन आज नरेंद्र मोदी इसके ठीक उल्टेे खड़े दिख रहे हैं। न केवल जातीय राजनीति का अंतहीन सिलसिला भाजपा की ओर से शुरू कर दिया गया है बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दाढ़ी और टोपी के बीच नजर आने लगे हैं। दाउदी वोहरा समुदाय के सर्वोच्च् धर्मगुरू सैयदना मुफद्दल सैफुद्दीन की मौजूदगी में मौका ए वाज पर इंदौर में नतमस्तक नजर आए। मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव हैं, इसी के मद्देनजर सैयदना को राजकीय अतिथि का दर्जा दिया गया। वोहरा समुदाय की मौजूदगी इंदौर, उज्जैन और बुरहानपुर में काफी है। इस समुदाय की अहमियत सिर्फ वोट की ही नहीं, नोट की भी है। यह समुदाय चंदे के रूप में राजनीतिक दलों को बड़ी धनराशि देता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह सैयदना की खिदमत में हाजिरी लगाई है। उससे नरेंद्र मोदी का पुराना बिंब और प्रतीक ढहा है। नरेंद्र मोदी तुष्टीकरण की राजनीति नहीं करते हैं। उन पर चस्पा् यह जुमला परीक्षण की बाट जोह रहा है। नरेंद्र मोदी से पहले 1960 के दशक में उस समय के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू सूरत शहर में दाउदी वोहरा समुदाय के एक शिक्षा संस्था्न का उद्घाटन करने गए थे। सैयदना अपने समुदाय के शासक हैं। मुंबई के भव्य विशाल आवास सैफी महल में शाही ढंग से रहते हैं। इन्हें हजरत मोहम्द्आवा का वंशज माना जाता है। यह समुदाय मुख्य रूप से इमामों के प्रति अपना अकीदा रखता है। ये आम तौर पर पढ़े लिखे और कारोबारी होते हैं। वोहरा गुजराती ‘वहौराउ’ का अपभ्रंश है। 11 वीं शताब्दी में मिस्र से धर्म प्रचारक के रूप में यह भारत आए थे। इनमें भी दाउदी वोहरा और सुलेमानी वोहरा होते हैं। ये शिया समुदाय का हिस्सा हैं। शिया 12 इमाम मानते हैं, वोहरा 21 इमाम मानते हैं। दाउदी वोहरा का मुख्यालय मुंबई में है और सुलेमानी का यमन में है। वोहरा समाज औरतों के खतने के लिए जाना जाता है। इसे खफ्ज भी कहा जाता है। तीन तलाक और हलाला जैसी कुप्रथाओं पर चर्चा के साथ-साथ खफ्ज भी जेरे बहस है।
भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में किसी भी प्रधानमंत्री का सभी धर्म, जाति और सम्प्रदाय के लिए अपने दरवाजे खोलना एक बेहतर शुरूआत है। लेकिन जिस देश में धर्म निरपेक्षता और साम्प्रादायिकता की परिभाषा अपने हिसाब से गढ़ी गई हो, उसके अपने चश्में हों। वहां इस तरह की शुरूआत का मतलब कुछ भी लगाया जा सकता है। वह भी तब जब सर पर चुनाव हों। हर राजनीतिक दल और नेता के बारे में कुछ अवधारणाएं रूढ़ होकर जनता के दिमाग में जम जाती हैं। इसका नफा भी होता है, नुकसान भी। पर नेता नफा होने के बाद उसे तोड़ने की कोशिश नहीं करता। अपने बारे में रूढ हुई धारणा के खिलाफ लड़ने को तैयार नहीं रहता। क्योंकि उसे लोकतंत्र में अपने इसी रूढ़ बिंब और प्रतीक पर समर्थन का सैलाब हासिल हो चुका रहता है। जहां सिर्फ गणतंत्र जरूरी है। गण जरूरी है। जहां गुणतंत्र का कोई मतलब नहीं होता, वहां संख्या बल ही राजनीति की थाती और आधार होता है। नरेंद्र मोदी अपने बारे में रूढ़ हो चुकी धारणाएं तोड़ने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। हालांकि किसी राजनेता ने आजादी के बाद से अभी तक ऐसा नहीं किया। लेकिन यह भी एक सच है कि नरेंद्र मोदी की तरह भारतीय राजनीति में कोई अस्पृहश्य राजनेता भी नहीं रहा है। ऐसे में यह देखना बेहद जरूरी होगा कि बदलते हुए नरेंद्र मोदी को क्या और कितनी स्वीकार्यता मिलती है। जिस दिशा में उन्होंने अपनी नई यात्रा शुरू की है, राजनीति के जो नए प्रयोग शुरू किए हैं उनमें वह कितने आगे तक निकलते हैं, यही देश की धर्मनिरपेक्षता की भी कसौटी होगी।
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