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नेता नहीं टेक्नोक्रेट चाहिए

Dr. Yogesh mishr
Published on: 24 Dec 2019 5:29 PM IST
देश के पूर्व राष्ट्रपति रहे भारत रत्न प्रणव मुखर्जी ने हाल-फिलहाल यह वकालत की है कि देश में लोकसभा के सदस्यों की संख्या कम है। इसे बढ़ाकर तकरीबन एक हजार तक किया जाना चाहिए। इस बात की वकालत की पीछे उनका तर्क यह है कि देश में निर्वाचित प्रतिनिधियों और मतदाताओं की संख्या के अनुपात में भारी अंतर है। अपनी बात को साबित करने के लिए वह यह भी कहते हैं कि लोकसभा की क्षमता को लेकर 1977 में अंतिम संशोधन हुआ था। जो 1971 की जनगणना पर आधारित था। उस समय देश की आबादी 55 करोड़ थी। आज यह बढ़ कर तकरीबन 125 करोड़ हो गई है।

प्रणव मुखर्जी प्रधानमंत्री का पद छोड़कर देश के सभी महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। कांग्रेस के पुरोधा पुरुष हैं। कांग्रेस और उसके बाहर दोनों जगह राजनीतिक अनुभव ले चुके हैं। वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाये, इस बारे में उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया कि उन्हें हिन्दी नहीं आती है। इसीलिए प्रधानमंत्री के पद से वह दूर रह गये। प्रणव मुखर्जी देश के हर बड़े बदलाव के साक्षी रहे हैं। ऑफ द रिकार्ड भी उनके पास देश की तमाम जानकारियां होंगी। प्रणव मुखर्जी 1982 से 1984 और 2009 से 2012 के बीच वित्त मंत्री रहे हैं। 1982 से 1984 के दौरान इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। 2009 से 2012 के दौर में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हो गये थे। पहली दफा जब वह वित्त मंत्री थे, तब मनमोहन सिंह रिजर्व बैंक के गवर्नर हुआ करते थे। मनमोहन सिंह तब उन्हें सर कहते थे। बाद में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। तब प्रणव मुखर्जी को उन्हें सर कहना पड़ा। आगे चलकर प्रणव मुखर्जी देश के राष्ट्रपति बने। तब वह मनमोहन सिंह के सर हो गये। यह जिक्र महज इसलिए जरूरी है, ताकि यह बताया जा सके कि प्रणव मुखर्जी तमाम उतार-चढ़ाव के मूक और मुखर गवाह रहे हैं।

उनके राजनीतिक अनुभव के बारे में कुछ कहना सूरज को चिराग दिखाने जैसा होगा। लेकिन जब वह देश को इतनी बड़ी राय दे रहे हों कि लोकसभा सदस्यों की संख्या तकरीबन दोगुनी कर दी जाये तब उनकी राय का सूक्ष्मविश्लेषण जरूरी हो जाता है। किसी भी देश में जनप्रतिनिधि से यह उम्मीद नहीं की जाती है और न ही की जानी चाहिए कि वह जनता के बड़े तबके को वन-टू-वन जाने। संसद और विधानसभा को विधायिका कहते हैं। जिसका काम विधान तैयार करना होता है। इसी विधान के तहत देश का संचालन होता है। विधान तैयार करने के लिए जनसंख्या और उसके आनुपातिक प्रतिनिधित्व की अनिवार्यता नहीं होती। हमारा संविधान भी इस तरह की कोई बात नहीं कहता है। दुनिया के किसी भी देश में मुट्ठीभर लोग ही नियम-कानून बनाने का काम करते हैं। भारत इससे अलग कैसे हो सकता है? पहले चुनाव में देश में लोकसभा सदस्यों की संख्या 489 थी। राज्यसभा के 216 सदस्य होते थे। आज यह संख्या बढ़कर 245 हो गई है। जबकि लोकसभा सदस्यों की संख्या में इजाफा करके 545 कर दिया गया है। 1973 में संविधान के 31वें संशोधन के तहत 525 सदस्यों वाली लोकसभा की संख्या बढ़ाकर 545 की गई। इसी के साथ संघ शासित क्षेत्रों से आने वाले सांसदों की संख्या घटाकर 25 से 20 कर दी गई। एक सांसद के वेतन और भत्ते पर सालाना खर्च तकरीबन 72 लाख रुपये होता है। यदि सांसदों की संख्या में इजाफा हुआ तो वित्तीय भार बढ़ना लाजिमी है। यदि संसद 100 दिन चलती है तो 600 करोड़ रुपये उस पर खर्च होते हैं। लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला ने यह कहकर कि हमारी कोशिश है कि जब आजादी के 75 साल हो रहे हों तो संसद का नया सत्र नई संसद में चले, प्रणव मुखर्जी के कहे का अपरोक्ष रूप से समर्थन कर दिया है।

समय-समय पर हमारे यहां सांसदों की संख्या में इजाफा किया जाता रहा है। आखिर ऐसा क्या हो गया है कि अचानक लोकसभा सदस्यों की संख्या दोगुनी करने की जरूरत आन पड़ी। यही नहीं, अगर जनसंख्या के आधार पर सांसदों की संख्या तय होगी तो उत्तर भारत को दक्षिण भारत की तुलना में ज्यादा फायदा होगा। पहले ही दक्षिण के राज्य इस बात को लेकर नाराजगी जता चुके हैं कि उत्तर भारत का बोझ उनके कंधे पर क्यों डाला जाये? सांसद ही नहीं विधायक भी अपने क्षेत्र के मुट्ठीभर से अधिक लोगों के संपर्क में रहता ही नहीं, रहना ही नहीं चाहता। एक ओर हम जनसंख्या को देश के आर्थिक विकास में बड़ी बाधा मानते हैं। दूसरी ओर जनसंख्या के आधार पर सांसदों की संख्या तय करने की बात करते हैं, जो विरोधाभासी लगता है। देश को इस समय राजनेताओं की जरूरत नहीं है। उसे डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक और टेक्नोक्रेट चाहिए। पर हम जब राजनेताओं को बढ़ाने की बात करते हैं तो लगता है कि प्रणव मुखर्जी राजनेता थे। इसलिए अपनी जमात को बढ़ाने की सोच रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक दल के सभी बड़े फैसले मुट्ठीभर लोग ही करते हैं। जिसे लोकतांत्रिक बताने और जताने के लिए संसदीय बोर्ड कहा जाता है। प्रणव मुखर्जी का बहुत लंबा राजनीतिक कॅरियर रहा है। उन्हें जरूर यह ध्यान होगा कि सत्तारूढ़ दल भी जब कोई बड़ा फैसला लेता है तब भी उसके हर सांसद और विधायक को उसका भान नहीं होता। यह काम भी कैबिनेट करती है। जहां मुट्ठीभर लोग होते हैं, जो पार्टी के सुप्रीमो की पसंद के होते हैं। सांसदों की संख्या के बढ़ने से किसी व्यवस्था के अधिक लोकतांत्रिक होने का कोई रिश्ता नहीं है। यह सच राजनीति को नजदीक से जानने और समझने वालों से छिपा नहीं है। देश के नागरिक भी यह जानते हैं कि राजनीतिक दलों में सुप्रीमो या संसदीय बोर्ड और सत्ता में कैबिनेट ही सर्वोच्च और अंतिम शक्ति होती है। कभी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सावरकर को भारत रत्न देने की सिफारिश की थी। उस समय के राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने उनकी सिफारिश नहीं मानी। प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति थे तो क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न आनन-फानन में दे दिया गया। उस समय खेल मंत्रालय के पास हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले ध्यानचंद का नाम भी इस सम्मान के लिए था। पर फैसला मुट्ठीभर लोगों को करना था।
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