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राष्ट्र, अखबार और हम
संचार व्यवस्था पूरी दुनिया को जोड़ती है। अगर मनुष्य के बीच संवाद-संचार की स्थिति नहीं बनती तो न मनुष्य का विकास होता, न समाज का, न सभ्यता का, न राष्ट्र का। संचार तंत्र के बिना हम अपने ही परिवेश से अपरिचित रह जाते और तब हम मानुष नहीं अमानुष ज्यादा होते।
संचार व्यवस्था में सबसे व्यापक और सबसे अहम भूमिका दैनिक अखबार की होती है। दैनिक अखबार सुन्दर संसचार को सुन्दर बनाये रखने में बहुत अहम भूमिका निभा सकते हैं, पर यही दैनिक अखबार समाज में दुर्भावना, संकुचन और बिखराव पैदा करने का भी कारण बनते हैं। कुछ अखबार तो ऐसे अंदाज में काम करते हैं कि अमानुष को मानुष नहीं, बल्कि मानुष को अमानुष बना रहे हैं। अखबार का प्रकाशन सिर्फ एक व्यवसाय नहीं है। आजादी से पहले भारत में अखबार की कल्पना एक धर्म के रूप में, एक मिशन के रूप में की गयी थी। भारत के स्वाधीनता संघर्ष को परवान चढ़ाने और लोगों के सामने एक उद्देश्यपूर्ण जीवन का लक्ष्य रखने में अखबारों ने अपने सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्व को निभाया था, परन्तु आज की अखबारी दुनिया का चरित्र पर्याप्त रूप से बदल गया है।
इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कोई भी नया अखबार नव उद्यमियों की पहली पीढ़ी द्वारा शुरू नहीं किया जा सका। यह भी एक सच्चाई है कि आज का कोई भी राष्ट्रीय स्तर का बड़ा अखबार अपने मालिकान की पहली पीढ़ी के हाथ में नहीं है। अधिकांश मालिकान वे हैं जिन्हें अखबार का संचालन विरासत में मिला है। साथ ही यह भी सच है कि जब किसी विशेष उद्देश्य से जुड़े व्यावसायिक घराने की पहली पीढ़ी द्वारा कोई अनुष्ठान शुरू किया जाता है, तो उसके कार्य में, व्यवहार में, योजना में तथा निर्णय में एक संतुलन रहता है, तथा एक आदर्श रहता है, एक स्वप्न होता है जिससे उसकी गतिविधि संचालित होती है, लेकिन जब संचालन में जन्म के आधार पर, न कि योग्यता, क्षमता, कर्म के आधार पर दूसरी-तीसरी पीढ़ी आती है तो न तो वह किसी आदर्श का बोझ संभाल पाती है न ही वह राष्ट्रहित-समाजहित की बातों को समझने की कोशिश करती है और न उसका कोई स्वप्न देख पाती है। उसका प्रमुख लक्ष्य पैसा और भौतिक सुख-साम्राज्य का विस्तार मात्र रह जाता है।
अगर आज के प्रतिष्ठित अखबारों की लक्ष्यहीनता नजर आती है, तो उसका मुख्य कारण उपरोक्त बात ही है। जिन अखबारों ने आजादी दिलाने में अहम भूमिका निभायी थी , बाद में वे ही अखबार देश के निर्माण में कोई सार्थक योगदान नहीं दे सके। आज होना तो यह चाहिए कि हर अखबार शपथ ले कि उसे व्यावसायिकता को प्राथमिकता नहीं देनी है, समझौतावादी नहीं बनना है और राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखना है। अखबारों को यह समझ होनी चाहिए कि उनके पाठकों को कब, कितना, कैसे, क्या चाहिए। उनके सामाजिक हित क्या हैं तथा उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं, जिनके आधार पर उनके सुख, सम्मान, शांति, सन्तुष्टि और सुरक्षा का मार्ग प्रशस्त किया जा सके। बात को बतंगड़ बनाकर नहीं, बल्कि किसी बतंगड़ को बात बनाकर व्यावसायिकता को प्रथामिकता देकर नहीं, जनकल्याण को प्राथमिकता देकर तथा राष्ट्र की उपेक्षा करके नहीं, राष्ट्रीयता को परमधर्म मानकर। जो अखबार के प्रकाशन की उपरोक्त सच्चाइयों या आवश्यक बातों को नहीं समझ पाते, नहीं मान पाते, नहीं अपना पाते, बेहतर है वे अखबार के बारे में न सोचें। बिसाती की दुकान से लेकर लोहे के कारोबार तक सैकड़ों ऐसे धंधे हैं जिन्हें वे खुशी से अपना सकते हैं।
अखबार का प्रकाशन सत्ता और प्रभुत्व प्राप्ति की सनक नहीं है। यह एक अनुष्ठान है और इसमें निहित है समाज के एक सच्चे और अच्छे दोस्त की भूमिका। अखबार की भूमिका कठिन नहीं आसान है। इसमें कार्य का सौंदर्य है तथा नित नये सृजन की आत्म संतुष्टि है। वे सचमुच खुशकिस्मत हैं जो कर्म के इस रचनात्मक दायित्व से जुड़ते हैं।
राष्ट्रीय सहारा अभी शिशु है। वह अपने अग्रजों का सम्मान करता है तथा उनका आह्वान करता है कि वे अखबार की भूमिका फिर से तय करें, उस पर मनन करें और उसे राष्ट्रहितकारी बनाने के लिए नयी पहल करें। राष्ट्रीय सहारा प्रतिद्वन्द्वी नहीं, सहयोगी है। वह एकाकी नहीं सहगामी है। वह राष्ट्र के निर्माण में, इसकी समृद्धि में तथा इसके विकास में योगदान करने को प्रतिबद्ध है। इसका दृढ़ संकल्प है िकवह राष्ट्रबोध को चैतन्य रखे, राष्ट्रहित में समर्पित रहकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करता रहे। जनसंचार माध्यमों से जुड़े हम सभी लोगों के लिए सुन्दरतम सच्चाई यह है कि भारत हमारा घर है, हम भारतीय परिवार के हैं, राष्ट्रीयता हमारा धर्म है, मानवता पर आधारित आदर्शवाद हमारा जीवन-दर्शन है, हम जानते हैं कि सामूहिकतावाद सुन्दर जीवन का रहस्य है, स्वाभिमान, कर्तव्यपरायणता हमारी परम्परा है, कर्मयोग हमारा स्वभाव है और सच्चाई हमारी पूजा, इबादत, अरदास है।
संचार व्यवस्था में सबसे व्यापक और सबसे अहम भूमिका दैनिक अखबार की होती है। दैनिक अखबार सुन्दर संसचार को सुन्दर बनाये रखने में बहुत अहम भूमिका निभा सकते हैं, पर यही दैनिक अखबार समाज में दुर्भावना, संकुचन और बिखराव पैदा करने का भी कारण बनते हैं। कुछ अखबार तो ऐसे अंदाज में काम करते हैं कि अमानुष को मानुष नहीं, बल्कि मानुष को अमानुष बना रहे हैं। अखबार का प्रकाशन सिर्फ एक व्यवसाय नहीं है। आजादी से पहले भारत में अखबार की कल्पना एक धर्म के रूप में, एक मिशन के रूप में की गयी थी। भारत के स्वाधीनता संघर्ष को परवान चढ़ाने और लोगों के सामने एक उद्देश्यपूर्ण जीवन का लक्ष्य रखने में अखबारों ने अपने सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्व को निभाया था, परन्तु आज की अखबारी दुनिया का चरित्र पर्याप्त रूप से बदल गया है।
इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कोई भी नया अखबार नव उद्यमियों की पहली पीढ़ी द्वारा शुरू नहीं किया जा सका। यह भी एक सच्चाई है कि आज का कोई भी राष्ट्रीय स्तर का बड़ा अखबार अपने मालिकान की पहली पीढ़ी के हाथ में नहीं है। अधिकांश मालिकान वे हैं जिन्हें अखबार का संचालन विरासत में मिला है। साथ ही यह भी सच है कि जब किसी विशेष उद्देश्य से जुड़े व्यावसायिक घराने की पहली पीढ़ी द्वारा कोई अनुष्ठान शुरू किया जाता है, तो उसके कार्य में, व्यवहार में, योजना में तथा निर्णय में एक संतुलन रहता है, तथा एक आदर्श रहता है, एक स्वप्न होता है जिससे उसकी गतिविधि संचालित होती है, लेकिन जब संचालन में जन्म के आधार पर, न कि योग्यता, क्षमता, कर्म के आधार पर दूसरी-तीसरी पीढ़ी आती है तो न तो वह किसी आदर्श का बोझ संभाल पाती है न ही वह राष्ट्रहित-समाजहित की बातों को समझने की कोशिश करती है और न उसका कोई स्वप्न देख पाती है। उसका प्रमुख लक्ष्य पैसा और भौतिक सुख-साम्राज्य का विस्तार मात्र रह जाता है।
अगर आज के प्रतिष्ठित अखबारों की लक्ष्यहीनता नजर आती है, तो उसका मुख्य कारण उपरोक्त बात ही है। जिन अखबारों ने आजादी दिलाने में अहम भूमिका निभायी थी , बाद में वे ही अखबार देश के निर्माण में कोई सार्थक योगदान नहीं दे सके। आज होना तो यह चाहिए कि हर अखबार शपथ ले कि उसे व्यावसायिकता को प्राथमिकता नहीं देनी है, समझौतावादी नहीं बनना है और राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखना है। अखबारों को यह समझ होनी चाहिए कि उनके पाठकों को कब, कितना, कैसे, क्या चाहिए। उनके सामाजिक हित क्या हैं तथा उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं, जिनके आधार पर उनके सुख, सम्मान, शांति, सन्तुष्टि और सुरक्षा का मार्ग प्रशस्त किया जा सके। बात को बतंगड़ बनाकर नहीं, बल्कि किसी बतंगड़ को बात बनाकर व्यावसायिकता को प्रथामिकता देकर नहीं, जनकल्याण को प्राथमिकता देकर तथा राष्ट्र की उपेक्षा करके नहीं, राष्ट्रीयता को परमधर्म मानकर। जो अखबार के प्रकाशन की उपरोक्त सच्चाइयों या आवश्यक बातों को नहीं समझ पाते, नहीं मान पाते, नहीं अपना पाते, बेहतर है वे अखबार के बारे में न सोचें। बिसाती की दुकान से लेकर लोहे के कारोबार तक सैकड़ों ऐसे धंधे हैं जिन्हें वे खुशी से अपना सकते हैं।
अखबार का प्रकाशन सत्ता और प्रभुत्व प्राप्ति की सनक नहीं है। यह एक अनुष्ठान है और इसमें निहित है समाज के एक सच्चे और अच्छे दोस्त की भूमिका। अखबार की भूमिका कठिन नहीं आसान है। इसमें कार्य का सौंदर्य है तथा नित नये सृजन की आत्म संतुष्टि है। वे सचमुच खुशकिस्मत हैं जो कर्म के इस रचनात्मक दायित्व से जुड़ते हैं।
राष्ट्रीय सहारा अभी शिशु है। वह अपने अग्रजों का सम्मान करता है तथा उनका आह्वान करता है कि वे अखबार की भूमिका फिर से तय करें, उस पर मनन करें और उसे राष्ट्रहितकारी बनाने के लिए नयी पहल करें। राष्ट्रीय सहारा प्रतिद्वन्द्वी नहीं, सहयोगी है। वह एकाकी नहीं सहगामी है। वह राष्ट्र के निर्माण में, इसकी समृद्धि में तथा इसके विकास में योगदान करने को प्रतिबद्ध है। इसका दृढ़ संकल्प है िकवह राष्ट्रबोध को चैतन्य रखे, राष्ट्रहित में समर्पित रहकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करता रहे। जनसंचार माध्यमों से जुड़े हम सभी लोगों के लिए सुन्दरतम सच्चाई यह है कि भारत हमारा घर है, हम भारतीय परिवार के हैं, राष्ट्रीयता हमारा धर्म है, मानवता पर आधारित आदर्शवाद हमारा जीवन-दर्शन है, हम जानते हैं कि सामूहिकतावाद सुन्दर जीवन का रहस्य है, स्वाभिमान, कर्तव्यपरायणता हमारी परम्परा है, कर्मयोग हमारा स्वभाव है और सच्चाई हमारी पूजा, इबादत, अरदास है।
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