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विधायिका में बढ़ती अराजकता और गरिमा का सवाल

Dr. Yogesh mishr
Published on: 19 Dec 1933 10:28 AM IST
हम भारत के  लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न (समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष) लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के  लिए तथा उसके  समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के  लए तथा सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता (और अखण्डता) सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के  लिए, दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
कोष्ठकों में अंकित शब्द बयालिसवें संविधान संशोधन 1976 द्वारा बढ़ाए गए।
तो यह है हमारे संविधान की उद्देशिका जो नवंबर 1949 में अंगीकृत हुई और छब्बीस जनवरी 1950 से प्रचलित है।
छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ तीस, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के  इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इसी दिन देश ने पूर्ण स्वाधाीनता का लक्ष्य स्वीकार किया था। कहा था भारत ने इसी दिन एक स्वर से कि हम औपनिवेशिक स्वराज्य नहीं लेंगे, हम चाहते हैं पूर्ण स्वाधीनता, मुकम्मल आजादी। नहीं बनेंगे हम इंग्लैण्ड के  या किसी भी उपनिवेश और न ही हम किसी की बैसाखी लगाकर चलेंगे। यह भी घोषणा की गई थी कि भारत विश्व रंगमंच पर बनाएगा अपनी पृथक पहचान और पाएगा अपना गौरवशाली स्थान दुनिया के  महान राष्ट्रों के  साथ। यह सब तो ज्यादा पुराना नहीं हुआ है, इतना तो हमारे देशवासियों को याद होगा ही।
इसीलिए जब भारत के  इतिहास में वह क्षण आया कि देश अपने-आपको सर्वसंप्रभुता सम्पन्न गणराज्य के  रूप में उद्घोषित कर सके , जब भारतवासियों ने अपने लिए, स्वयं एक संविधान अपनी इच्छा से रचा और अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा बनाई गयी इस संहिता को अंगीकृत और आत्मार्पित किया था, जब सदियों से संघर्षरत भारतवासियों ने परतंत्रता के  पास से मुक्त होकर प्राप्त किया था अपने भाग्य निर्माण का अधिकार और अधिनियमित किया अपने देश के  प्रशासन तंत्र को सुव्यवस्थित रूप से देने वाले तथा विश्व के  विशालतम गणतंत्र की आधारभूत राज्य व्यवस्था के  विधान को तब उसे समर्पित किया छब्बीस जनवरी के  नाम उस संकल्प के  नाम, जिसमें भारत ने अपनी खोई अस्मिता को पुनः प्राप्त करने का निश्चय किया था।
आज उसी भारतीय गणतंत्र के  हम संसदीय राजनीति से उदास एवं निराश हैं। संसद के  अप्रासंगिक कार्रवाई झेलने को विवश। संसद में अराजकता बढ़ने लगी है। बहस में तू-तू मैं-मैं की जगह गाली-गलौज ने ले लिया है। उठापटक काॅलर पकड़ना अससंदीय शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग चल निकला है। गली-कूचे के  नेता बने असामाजिक तत्वों से अभद्र व्यवहार सदन में होने लगा है। राज्यसभा में सभापति रहे डा. शंकर दयाल शर्मा रो पड़े थे और उन्हंे यहां तक कहना पड़ा कि लोकतंत्र की हत्या न करें। चाहें तो मेरी जान ले लें। सदन के  सदस्यों को यह बताना पड़ता है कि यह सदन है। मछली का बाजार नहीं। फुटपाथ नहीं। समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि हमारा प्रजातंत्र फिजूलखर्ची की स्थिति में पनप रहा है। 21 करोड़ व्यक्ति के वल 20 पैसे प्रतिदिन की आय पर निर्वाह कर रहे हैं। यह अत्युक्ति भले ही हो परंतु 24 फरवरी, 1951 में संसद में प्रत्येक प्रश्नकाल की लागत 60 हजार रूपये आती थी। जबकि 6 दिसम्बर, 1966 को प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने बताया था कि संसद की बैठक के  प्रत्येक घंटे की कीमत देश को 18 हजार रूपये चुकानी पड़ती है। वैसे मोटे तौर पर संसद की प्रति मिनट की लागत 2060 रूपये आती है। अर्थात् 7.20 लाख रूपये प्रति दिन। गरीब देश की महंगी विधायी संस्थायें जो कुछ कर रही हैं उससे देश की आर्थिक स्थिति तो जर्जर हो ही रही है। साथ ही साथ सदन की गरिमा भी गिर रही है।
सदन की इन्हीं स्थितियों की चरम परिणति थी 16 दिसंबर को उप्र विधानसभा में घटी घटनायें। सदन की इस स्थिति के  लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनो दोषी हैं। क्योंकि सदन के  इतिहास में है कि समाजवादी मधुदंडवते जैसे सदस्य अध्यक्ष के  सामने रिवाल्वर रख देते हैं। राजनारायण सभापति के  आदेशों और निर्देशों की अवहेलना में अव्वल रहे। मनीराम बागड़ी, मधुलिमये जैसे सदस्य अपनी सदन में आक्रामकता के  नाते परवान चढ़े रहे। संसदीय पत्रों को सदन के  पटल से उठाकर फाड़ देने वाले सत्यनारायण रेड्डी जैसे सदस्य पुरस्कृत किये जाने लगे। इन्हीं लोगों को मीडिया में स्थान मिलने लगा। सदस्यों में हीरोइज्म की प्रवृत्ति बढ़ती चलती गयी। जुझारूपन और कर्मठता का पैमाना बदल गया। इसके  लिए मीडिया भी काफी दोषी है। क्योंकि पत्रकारों की अनुपस्थिति में सदन की कार्यवाही शांतपूर्ण तरीके  से चलते देखी गयी है। उदाहरण के  लिए बिहार विधानसभा में एक बार पत्रकारों ने सदन की कार्यवाही का बहिष्कार किया। उस समय शोर शराबा मचाने वाले सदस्यों ने कहा कि मीडिया की अनुपस्थिति में किसी तरह के  हंगामें का कोई मतलब नहीं है।
यह सब कुछ भारतीय लोकतंत्र के  मरणासन्न अवस्था का प्रतीक है और इस पर किसी का भी चिंता जताना महज आडंबरपूर्ण लगता है। सदन में सदस्यों एवं मंत्रियों की अनुपस्थिति से यह संदर्भ जुटाया जा सकता है कि सदन के  प्रति आचारसंहिता के  प्रति उनकी प्रतिबद्धता कितनी है। नये विधायकों, सांसदों के  लिए चलने वाले प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भी उपस्थिति की दर बेहद शर्मनाक होती है। यह स्थिति सत्ता पक्ष और विपक्ष सब में है। जब हमाम में नंगे सभी हैं तो शर्मसार होने की आशा किससे की जाय। सत्ता पक्ष द्वारा विपक्ष को घायल करने। सत्ता पक्ष द्वारा विपक्ष के  मुंह बंद करने की क्रियाविधि ने हमारे लोकतंत्र को बेहद पंगु बना दिया है। विपक्ष अपनी बात रखने के  लिए सदन में जिस असहयोगात्मक रवैया को अख्तियार करता है उसका उपयोग सत्तापक्ष मनमाना प्रस्ताव पास कराने में कराता है। परिणामतः बिना बहस के  विधेयक पारित हो जाते हैं। ये विधेयक कानून बनकर देश की जनता पर लागू हो जाते हैं। डा. भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि अगर हम लोकतंत्र का ढांचा ही नहीं उसकी आत्मा भी बचाना चाहते हैं तो हमें अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के  लिए संवैधानिक तरीकों का प्रयोग करना चाहिए। यानि हमें खूनी क्रांति के  रास्ते को छोड़ देना चाहिए। सिविल नाफरमानी का असहयोग का, सत्याग्रह का रास्ता नहीं अपनाना चाहिए।
फिर भी, अम्बेडकरवादी और/या हमारे संविधानवादी जन प्रतिनिधियों का सदन में व्यवहार सर्वाधिक चिंता का विषय बन गया है। उसका कारण है कि हमारा विपक्ष अपने संवैधानिक मर्यादाओं को भूल जाता है। दूसरी ओर सत्तापक्ष के  लोग यह भूल जाते हैं कि सरकारें किसी पार्टी की नहीं वरन् प्रदेश और देश की जनता की हुआ करती हैं। जब जो भी विपक्ष में होता है तो उसे सर्वथा यह विस्मृत रहता है कि वह कभी सत्ता में भी आ सकता है। हमारे जनप्रतिनिधि यह भूलते जा रहे हैं कि सदन की गरिमा बनाये रखने के  लिए उन्हें जो विशेषाधिकार मिले हैं उसके  दुरूपयोग के  लिए जनता के  प्रति उसकी जवाबदेही भी हो सकती है। सदन में अमर्यादित व्यवहार कभी एकपक्षीय नहीं होता। अमर्यादित आचरण के  सम्बन्ध में सत्ता और विपक्ष दोनों ही दोषी नजर आते हैं।
लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था और जीवन शैली है जिसमें अनवरत रचनाधर्मिता की अभिव्यक्ति हो सकती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की पहली शर्त है। परंतु क्या ऐसी अभिव्यक्ति जो 16 दिसंबर को उत्तर प्रदेश की बारहवीं विधानसभा के  शुरूआती सत्र के  समय हुई। आचार्य शुक्ल ने कहा है कि लोकतंत्र में ही लोक हृदय की असली पहचान संभव है। तंत्र की दृष्टि से भी लोक हृदय की अभिव्यक्ति ही यह निर्णय करती है कि सत्ता किन हाथों को ग्रहण करनी है। परंतु आज लोकतंत्र कहां है घोषित रूप में उसकी उपलब्धि भले ही स्वीकारी जाय परंतु चारों ओर दुराचार, सत्तागत आतंक, सामाजिक असमानता, उत्कोच अनिश्चय व्याप्त है। आवरण में लोकतंत्र में भले दिखे, परंतु अंतःकरण में एकतंत्र है। यह एकतंत्र जिसमें स्व की स्थापना का बोध, जारशाही की मनोवृत्ति है।
सच्चा लोकतंत्र वहां है जहां कोई खरीदा न जा सके  किंतु हमारे यहां भूख और ठण्ड के  बदले वोट खरीदा जाता है। राजनीतिक दल आदमी को आदमी की शक्ल में नहीं मतपत्र की शक्ल में देखने को अभ्यस्त हैं। हमारा नेता कुर्सी और सरकार के  लिए बिक जाता है। खरीदा जाता है। राजनीतिक दल जो कुछ भी कर रहे हैं वो समाज के  लिए, आदमी के  लिए कम वोट बैंक के  लिए अधिक। यह विडम्बना नहीं तो क्या है कि अपने को सड़क पर चल रहे आदमी का प्रतिनिधि कहने वाले से ही सड़क पर चलना सुरक्षित नहीं रह गया है। इस देश के  बुद्धिजीवियों में असत्य के  खिलाफ उच्चारण का लोप हो गया है।
हम जिस समाज में जी रहे हैं उसमें राजनीति में समता का दावा है। समाज में असमानता का सत्य है। नेतृत्व के  लिए आदर्श व्यक्तित्व चाहिए पर मतदान के  लिए आर्थिक या भौतिक सुविधाएं। नेतृत्व से ईमानदारी की आशा और स्वयं बिकने और खरीदने के  सर्वव्यापी सिद्धांत के  हम वाहक बन बैठे हैं। सदन में जो कुछ भी हुआ वह इन्हीं मनोवृत्तियों, एकतंत्र की शक्ल में उभरते लोकतंत्र की परिणति था। लोकतांत्रिक एकतंत्र के  आतंक से न्याय विधान, धर्म, दर्शन और ज्ञान की समस्त शक्तियां अर्थ खो बैठती हैं। सारे नियंत्रण व्यर्थ हो जाते हैं। लोग आत्मवान संस्कृति से वंचित कर दिये जाते हैं। लोगों में यह कहने का साहस नहीं रह जाता कि -
चेकबुक हो पीली या लाल
दाम सिक्के होें या शोहरत
कह दो उनसे
जो खरीदने आयें हों तुम्हें
हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होता। (सात गीत वर्ष)
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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