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प्रधानमंत्री का पलायनवाद
इट्स योर वल्र्ड के माध्यम से प्रधानमंत्री नरसिंह राव को दुनिया के दर्षकों और श्रोताओं के सामने उपस्थित होने का एक ऐतिहासिक अवसर जो मिला उसमे प्रधानमंत्री भाव के स्तर पर कहीं विचलित नहीं हुए। उनमें अतिरिक्त संयम और आत्मविष्वास भी था। लेकिन विषय के स्तर पर प्रधानमंत्री की पकड़ काफी कमजोर रही। प्रष्नों के उत्तर देते हुए वो अस्पष्ट रहे। जिसने उनकी राजनीतिक परिपक्वता के सामने सवालिया निषान लगा दिया है।
मुंबई के सुदेष कक्कड़ के अयोध्या मामले पर पूछे गए प्रष्नों के उत्तर में उनका यह स्वीकारना कि स्थिति पर हमारी पूरी निगाह थी। फिर भी विवादित ढंाचा गिरने के लिए स्वयं को दोषी न स्वीकार करना प्रषंसनीय है ? संघीय देष का प्रधानमंत्री किसी घटना के लिए प्रदेष सरकार को दोष दें और यह कहे कि वो राष्ट्रपति षासन के बाद ही हस्तक्षेप कर सकते हैं। उन्हें संविधान के अनुच्छेद 356 की स्मृति तो रही जिसके उपयोग व दुरुपयोग को लेकर खासा विवाद रहा है। लेकिन उन्हें अनुच्छेद 3356 का ध्यान नहीं आया। जिसमें उल्लिखित है कि केंद्र राज्य सरकार को संविधान के उपबंधों के अनुसार चलाया जाना सुनिष्चित करे। संघ द्वारा भेजे गए निर्देषों का अनुपालन करने से इंकार करने पर अवज्ञा करने वाले राज्य के विरुद्ध अनुच्छेद 365 लागू किया जा सकता है; इससे यह तो निष्कर्ष जुटाया ही जा सकता है कि हमारे प्रधानमंत्री अपने अधिकार व कर्तव्य के बोध में षून्य है।
इसे प्रधानमंत्री की अनभिज्ञता मानी जाए या पूरी घटना की जिम्मेदारी से उनका पलायन। जिस इलेक्ट्रानिक मीडिया ने पूरे दृष्य का जीवंत टेली कास्ट कर दिया था तब भी प्रधानमंत्री की अनभिज्ञता बनी रही ? वैसे भी दोपहर प्रधानमंत्री के सोने का आवष्यक व अविवार्य समय है; उसी समय यह घटना हुई इसलिए प्रधानमंत्री की अनभिज्ञता का बने रहना इसलिए प्रधानमंत्री की अनभिज्ञता का बना रहना लाजिमी था। प्रधानमंत्री ने ढांचे के पुनर्निमाण का प्रष्न 6 दिसंबर के बाद एक बार फिर उठाया है और साथ ही साथ गठित न्यासों द्वारा मंदिर व मस्जिद के निर्माण स्थल के चुनाव की बात भी कही है। इसमें प्रधानमंत्री कितने स्पष्ट हैं, यह पता नहीं चलता है। इतना ही नहीं, इस प्रष्न को इस सम पुनः उठाया गया है जबकि इसे संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत ले लिया गया है।
इसके बाद भी प्रधानमंत्री का दुनिया के लोगों के सामने ऐतिहासिक अवसर पर ढंाचे के पुनर्निमाण की बात दुहराना राष्ट्रपति व उच्चतम न्यायालय के अधिकारों को अनदेखा करना नहीं है। विदेष नीति के बारे में पूछे गए प्रष्नों में प्रधानमंत्री सैद्धांतिक व व्यवहार पक्षों में साफ-साफ बिखरे हुए थे। एक ओर उन्होंने दिनेष सिंह को विदेष मंत्री बनाया जो समाजवादी देषों के साथ श्रेष्ठ संबंध कायम रखने में सिद्धहस्त रहे हैं। आज स्थितियां एकदम विपरीत है। मिश्रित अर्थव्यवस्था व समाजवाद इन दोनों स्वरूपों का पराभव हो चुका है। पूंजीवाद विकल्पहीनता के साथ उपस्थित है, जिसे सारे देष अपनाते जा रहे हैं। फिर दिनेष सिंह को विदेष मंत्री होना।
प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की ओर इषारा करते हुए कहा कि एक देष दक्षेस के माहौल को विषाक्त कर रहा है। इससे संस्था के औचित्य पर बड़ा सटीक सवाल खड़ होता है। सुरक्षा परिषद पर भी उनके दृष्टिकोण की प्रष्ंासा हो सकती है परंतु श्रीलंका के सवाल ने हमारी कलई खोल दी। भारत की नौकरषाही की फिर आलोचना हुई। नरसिंह राव प्रधानमंत्री बनने के बाद जब विदेष यात्रा पर गए थे तो उस समय विदेषी पत्रकारों ने भारतीय नौकरषाही की खूब आलोचना की थी पंरतु उस समय प्रधानमंत्री ने किसी तरह के सुधार का न तो आष्वासन दिया और न ही इस दिषा में केाई कार्य किया। भ्रष्टाचार को जिस तरह प्रधानमंत्री ने झुठलाया वह देष के लिए गौरव करने वाली बात भले ही हो परंतु अनिवासी भारतीयों या भारतीयों को इस समस्या से निजात दिलाने की जिम्मेदारी से वो फिर कट गए। प्रतिभा पलायन के प्रष्न पर उनका पलायनवाद उन पर प्रभावी रहा तभी तो एक सवाल के जवाब में उन्होंने यह कहा कि अच्छा है लोग विदेष चले जाते हैं; इससे यहां पिछड़ों को नौकरी मिल जाएगी। यह भले ही उनका मजाक हो लेकिन यह इस खासे महत्वपूर्ण सवाल से उनका मुंह चुराना ही है। आरक्षण के नतीजे अच्छे रहे हैं, जैसी स्वीकारोक्ति कितनी हास्यास्पद है क्योंकि मंदिर मुद्दे की ध्वंसात्मक व राजनीति परिणित का कारण आरक्षण के आधार पर वोटों की राजनीति का धु्रवीकरण हो जाना ही है। देष के संरचना में जो भी सामाजिक परिवर्तन आए हैं उसके लिए आरक्षण व मंदिर विवाद को गौण करके सोचना सर्वथा बड़ी भूल होगी। मुस्लिम महिलाओं के प्रष्न पर समान अधिकार की बात की कलई खोलने के लिए षाहबानो प्रकरण पर्याप्त रहेगा।
अर्थनीति पर भी प्रधानमंत्री भटके से दिखे। एक ऐसी पार्टी के मुखिया जिसने घोषणा पत्र में 100 दिनों के अंदर कीमतों को पुरानी स्थिति में लाने की बात कही हो, वहां डंके ल प्रस्ताव को स्वीकारने और रुपए को पूर्णतया परिवर्तनीय बनाने की तैयारी को क्या कहेंगे? हमारी समझ में यह आर्थिक पराजय प्रस्तुत करें क्योंकि विष्व दर्षक उन्हीें के सामने है। आगामी बजट मूल्यवृद्धि, घाटे की अर्थव्यवस्था का परिणाम देगा। वैसे परिणामों के आधार पर अर्थनीति का विष्लेषण किया जाए तो हम देख सकते हैं कि फेरा में परिवर्तन, रुपए की आंषिक परिवर्तनषीलता, आयात-निर्यात नीति में उदारीकरण, लाइसेंसिंग प्रणाली की समापित आदि ऐसे कदम रहे हैं जिसके परिणाम निष्चिंत षून्य आए हैं और मनमोहन का अर्थषास्त्र किसी भी वर्ग का मन मोहन में सफल नहीं रहा है। आर्थिक उपलब्धियों को आंकड़ों के सहारे मैनीपुलेट किया जा रहा है।
वैसे प्रधानमंत्री ने खास मुद्दों पर जो भी अनभिज्ञतापूर्वक बयान दिए उसके पीछे यदि वास्तव में उनकी अनभिज्ञता बयान दिए उसके पीछे यदि वास्तव में उनकी अनभिज्ञता ही है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है परंतु अगर भारत की अंतर्राष्ट्रीयता, गौरव, बनाए रखने के लिए उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर की तो प्रषंसनीय और खूब रही कहा जाना चाहिए। इस ऐतिहासिक अवसर पर यही कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने यह कही नहीं महसूस किया है विष्वदर्षक श्रोता उनके सामने है जिसके प्रति उनकी जवाबदेही है वो खुद ही श्रोता दर्षकों के सामने बने रहे।
मुंबई के सुदेष कक्कड़ के अयोध्या मामले पर पूछे गए प्रष्नों के उत्तर में उनका यह स्वीकारना कि स्थिति पर हमारी पूरी निगाह थी। फिर भी विवादित ढंाचा गिरने के लिए स्वयं को दोषी न स्वीकार करना प्रषंसनीय है ? संघीय देष का प्रधानमंत्री किसी घटना के लिए प्रदेष सरकार को दोष दें और यह कहे कि वो राष्ट्रपति षासन के बाद ही हस्तक्षेप कर सकते हैं। उन्हें संविधान के अनुच्छेद 356 की स्मृति तो रही जिसके उपयोग व दुरुपयोग को लेकर खासा विवाद रहा है। लेकिन उन्हें अनुच्छेद 3356 का ध्यान नहीं आया। जिसमें उल्लिखित है कि केंद्र राज्य सरकार को संविधान के उपबंधों के अनुसार चलाया जाना सुनिष्चित करे। संघ द्वारा भेजे गए निर्देषों का अनुपालन करने से इंकार करने पर अवज्ञा करने वाले राज्य के विरुद्ध अनुच्छेद 365 लागू किया जा सकता है; इससे यह तो निष्कर्ष जुटाया ही जा सकता है कि हमारे प्रधानमंत्री अपने अधिकार व कर्तव्य के बोध में षून्य है।
इसे प्रधानमंत्री की अनभिज्ञता मानी जाए या पूरी घटना की जिम्मेदारी से उनका पलायन। जिस इलेक्ट्रानिक मीडिया ने पूरे दृष्य का जीवंत टेली कास्ट कर दिया था तब भी प्रधानमंत्री की अनभिज्ञता बनी रही ? वैसे भी दोपहर प्रधानमंत्री के सोने का आवष्यक व अविवार्य समय है; उसी समय यह घटना हुई इसलिए प्रधानमंत्री की अनभिज्ञता का बने रहना इसलिए प्रधानमंत्री की अनभिज्ञता का बना रहना लाजिमी था। प्रधानमंत्री ने ढांचे के पुनर्निमाण का प्रष्न 6 दिसंबर के बाद एक बार फिर उठाया है और साथ ही साथ गठित न्यासों द्वारा मंदिर व मस्जिद के निर्माण स्थल के चुनाव की बात भी कही है। इसमें प्रधानमंत्री कितने स्पष्ट हैं, यह पता नहीं चलता है। इतना ही नहीं, इस प्रष्न को इस सम पुनः उठाया गया है जबकि इसे संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत ले लिया गया है।
इसके बाद भी प्रधानमंत्री का दुनिया के लोगों के सामने ऐतिहासिक अवसर पर ढंाचे के पुनर्निमाण की बात दुहराना राष्ट्रपति व उच्चतम न्यायालय के अधिकारों को अनदेखा करना नहीं है। विदेष नीति के बारे में पूछे गए प्रष्नों में प्रधानमंत्री सैद्धांतिक व व्यवहार पक्षों में साफ-साफ बिखरे हुए थे। एक ओर उन्होंने दिनेष सिंह को विदेष मंत्री बनाया जो समाजवादी देषों के साथ श्रेष्ठ संबंध कायम रखने में सिद्धहस्त रहे हैं। आज स्थितियां एकदम विपरीत है। मिश्रित अर्थव्यवस्था व समाजवाद इन दोनों स्वरूपों का पराभव हो चुका है। पूंजीवाद विकल्पहीनता के साथ उपस्थित है, जिसे सारे देष अपनाते जा रहे हैं। फिर दिनेष सिंह को विदेष मंत्री होना।
प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की ओर इषारा करते हुए कहा कि एक देष दक्षेस के माहौल को विषाक्त कर रहा है। इससे संस्था के औचित्य पर बड़ा सटीक सवाल खड़ होता है। सुरक्षा परिषद पर भी उनके दृष्टिकोण की प्रष्ंासा हो सकती है परंतु श्रीलंका के सवाल ने हमारी कलई खोल दी। भारत की नौकरषाही की फिर आलोचना हुई। नरसिंह राव प्रधानमंत्री बनने के बाद जब विदेष यात्रा पर गए थे तो उस समय विदेषी पत्रकारों ने भारतीय नौकरषाही की खूब आलोचना की थी पंरतु उस समय प्रधानमंत्री ने किसी तरह के सुधार का न तो आष्वासन दिया और न ही इस दिषा में केाई कार्य किया। भ्रष्टाचार को जिस तरह प्रधानमंत्री ने झुठलाया वह देष के लिए गौरव करने वाली बात भले ही हो परंतु अनिवासी भारतीयों या भारतीयों को इस समस्या से निजात दिलाने की जिम्मेदारी से वो फिर कट गए। प्रतिभा पलायन के प्रष्न पर उनका पलायनवाद उन पर प्रभावी रहा तभी तो एक सवाल के जवाब में उन्होंने यह कहा कि अच्छा है लोग विदेष चले जाते हैं; इससे यहां पिछड़ों को नौकरी मिल जाएगी। यह भले ही उनका मजाक हो लेकिन यह इस खासे महत्वपूर्ण सवाल से उनका मुंह चुराना ही है। आरक्षण के नतीजे अच्छे रहे हैं, जैसी स्वीकारोक्ति कितनी हास्यास्पद है क्योंकि मंदिर मुद्दे की ध्वंसात्मक व राजनीति परिणित का कारण आरक्षण के आधार पर वोटों की राजनीति का धु्रवीकरण हो जाना ही है। देष के संरचना में जो भी सामाजिक परिवर्तन आए हैं उसके लिए आरक्षण व मंदिर विवाद को गौण करके सोचना सर्वथा बड़ी भूल होगी। मुस्लिम महिलाओं के प्रष्न पर समान अधिकार की बात की कलई खोलने के लिए षाहबानो प्रकरण पर्याप्त रहेगा।
अर्थनीति पर भी प्रधानमंत्री भटके से दिखे। एक ऐसी पार्टी के मुखिया जिसने घोषणा पत्र में 100 दिनों के अंदर कीमतों को पुरानी स्थिति में लाने की बात कही हो, वहां डंके ल प्रस्ताव को स्वीकारने और रुपए को पूर्णतया परिवर्तनीय बनाने की तैयारी को क्या कहेंगे? हमारी समझ में यह आर्थिक पराजय प्रस्तुत करें क्योंकि विष्व दर्षक उन्हीें के सामने है। आगामी बजट मूल्यवृद्धि, घाटे की अर्थव्यवस्था का परिणाम देगा। वैसे परिणामों के आधार पर अर्थनीति का विष्लेषण किया जाए तो हम देख सकते हैं कि फेरा में परिवर्तन, रुपए की आंषिक परिवर्तनषीलता, आयात-निर्यात नीति में उदारीकरण, लाइसेंसिंग प्रणाली की समापित आदि ऐसे कदम रहे हैं जिसके परिणाम निष्चिंत षून्य आए हैं और मनमोहन का अर्थषास्त्र किसी भी वर्ग का मन मोहन में सफल नहीं रहा है। आर्थिक उपलब्धियों को आंकड़ों के सहारे मैनीपुलेट किया जा रहा है।
वैसे प्रधानमंत्री ने खास मुद्दों पर जो भी अनभिज्ञतापूर्वक बयान दिए उसके पीछे यदि वास्तव में उनकी अनभिज्ञता बयान दिए उसके पीछे यदि वास्तव में उनकी अनभिज्ञता ही है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है परंतु अगर भारत की अंतर्राष्ट्रीयता, गौरव, बनाए रखने के लिए उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर की तो प्रषंसनीय और खूब रही कहा जाना चाहिए। इस ऐतिहासिक अवसर पर यही कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने यह कही नहीं महसूस किया है विष्वदर्षक श्रोता उनके सामने है जिसके प्रति उनकी जवाबदेही है वो खुद ही श्रोता दर्षकों के सामने बने रहे।
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