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जरूरत है मजदूर आंदोलन को नए सिरे से समझने की

Dr. Yogesh mishr
Published on: 1 May 1992 12:09 PM IST
01 मई 1886 की शिकागो घटना को समाप्त हुए एक शताब्दी से अधिक हो रहा है। इस बीच पूरी विश्व व्यवस्था में अनेक परिवर्तन हुए और मजदूर वर्ग ने दुनिया के कई देशों में समाजवादी परचम के तले रंगीन सपने बुने। दुनिया के मजदूर एक हों, का माक्र्सवाद नारा 1917 के बाद से खूब भुनाया गया। लेकिन अब जबकि विश्व व्यवस्था में यह नारा मर चुका है तो जरूरत है मजदूर आंदोलन को नए सिरे से समझने की।
लोकतांत्रिक प्रणाली के संकट से गुजरते समय मई दिवस का त्यौहार न तो शिकागो के शहीदों का मात्र स्मृति समारोह हो सकता है और न ही खोखले नारों का सालाना जलसा। यह पर्व हमें जनवाद की उस परम्परा की याद दिलाता है, जिसकी बुनियाद मजदूरों ने बनायी थी। एक ऐसे समय जब आधुनिक सर्वहारा विश्व व्यवस्था के परिवर्तन तले दब गया है, तब मई दिवस पर सोचना और भी प्रासंगिक हो जाता है।
भारत में मजदूर आंदोलन ने 1920 में एआईटीयूसी की स्थापना के बाद से संगठित रूप ले लिया। विगत 73 वर्षों के दौरान कई पड़ावों से होकर इसे गुजरना पड़ा। भारत में पहली बार मई दिवस 1927 में मनाया गया था।
मजदूर दिवस आंदोलन के मौजूदा दौर में से एक लगता है। जैसे मजदूर की चारित्रिक विशेषताओं की पृष्ठभूमि ढकेल दिया गया हो तथा बिखराव तथा पतन इसकी एक मात्र नियति बन चुका हो। हमारे देश का मजदूर आंदोलन गतिरोध में फंस गया है। गतिरोध की जब चर्चा की जाती है तब छिटपुट आंदोलन की संभावना से इंकार को स्वीकार करना पड़ता है। 1947 के बाद खासकर 1960 से 1975 तक की अवधि में मजदूरों ने अपने पहले के अधिकारों को सुरक्षित रखा। नई उपलब्धियां भी हासिल की। लेकिन स्थितियां उलट गयी। ट्रेड यूनियन आंदोलन के बुनियादी मुद्दों, वेतन और कार्य स्थिति को लिया जाय, तो ट्रेड यूनियन आंदोलन गुमराह होता नजर आता है।
सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण आटोमेशन और रेशनलाइजेशन पर जोर देने के नाते मजदूरों की छंटनी, मजदूरों पर बढ़ता काम का बोझ और औद्योगिक रूग्ड़ता एक स्थायी परिघटना हो गयी है। मजदूर यूनियन पता नहीं क्यों इसे गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। मजदूर कार्यकर्ता विक्टिमाइज्ड होता जा रहा है। अपनी मांगों के लिए मजदूर संगठन ताला बंदी का इस्तेमाल कर रहे हैं।
संगठित क्षेत्र में मजदूरों का एक खासा हिस्सा यूनियन की सदस्यता से पूर्णतया अलग है। जो है वह भी महज कागजी है। भारतीय संदर्भ में वामपंथी यूनियनें एटक और सीटू का आधार खिसकता हुआ इंटक और बीएमएस की ओर जा रहा है। कम्युनिस्ट विरोधी मानसिकता का प्रचार जारी है। समाजवादी विचारधारा की ओर से मजदूरों का मोहभंग हो गया है। आर्थिक तंगी ने मजदूर समुदाय को परिणामवाद के दलदल में फंसा दिया है। परिणामवाद निचले दर्जे का अर्थवाद होता है। वामपंथी यूनियनें भी इससे बच नहीं पायीं। एक साथ कई यूनियनों का सदस्य बनने की प्रवृत्ति परिणामवादी चिंता का अनिवार्य नतीजा है।
अस्सी दशक की शुरूआत में व्यक्ति केन्द्रित स्वतंत्र यूनियनों ने अपना सिर उठाया। पर शासक वर्गीय ढांचा में शामिल हो गयीं। भारतीय पंूजी व मजदूर वर्ग के बारे में एटक और सीटू का मूल्यांकन लगभग एक समान है। संगठित क्षेत्र के मजदूरों का अधिकांश हिस्सा सार्वजनिक उद्योगों में लगा है। सार्वजनिक क्षेत्र की पूंजी, उसके उद्देश्य और निजी क्षेत्र के साथ उसके संबंधों के बारे में गलत धारणाओं ने मजदूरों की चेतना को गिराया है तथा मजदूरों के आंदोलन की धार कुंद की है।
मजदूर एकता के बारे में भी यूनियनों का नजरिया विशुद्धतावादी किस्म का है। अकुशल मजदूरों को लेकर शिक्षित और कुशल मजदूरों के बीच मजदूरों के चिंतन को प्रभावित करने वाले कई कारक हैं। भारतीय मजदूर यूनियनें इन कारकों को अछूता समझते हैं। परिणामस्वरूप मजदूरों के बीच विभाजन का जन्म होता है। यह विभाजन प्रक्रिया में मदद यथा-बिहार के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में पृथकतावाद की संज्ञा देकर उसका विरोध कर उन्होंने आदिवासी और गैर आदिवासी मजदूरांे के बीच गहरे अंतर्विरोध के विकास में मदद पहुंचायी।
दलित आंदोलन के प्रति कम्युनिस्ट संगठनों के निषेधात्मक रवैये ने पिछड़ी जाति के मजदूरों को कांग्रेस की शरण में जाने के लिए बाध्य कर दिया।
मजदूरों के बीच विभाजन और यूनियन गतिविधियों में वह घट रही हैं। भागीदारी के पीछे ट्रेड यूनियन की घातक कार्यशैली जिम्मेदार है।
किसी उद्योग या क्षेत्र में अक्सर कई यूनियनें होती हैं, जिसमें स्वस्थ प्रतियोगिता तथा मजदूरों के खिलाफ संघर्ष में सहयोगी भूमिका होनी चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं। क्योंकि ट्रेड यूनियन में नीतियां और आदर्श गौण पड़ गए हैं। और जहां यह न हों वहां स्वस्थ प्रतियोगिता की कल्पना नहीं की जा सकती। नीतियों के अभाव में कार्यशैली में विकार आ जाता है। मजदूर की समस्या कड़ताा व्यक्तिगत ढंग से निपटने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। व्यक्तिगत निपटारे के कारण मजदूर को नेताओं के पीछे भागना पड़ता है। इस स्थिति में नेता ढीठ, लापरवाह, नौकरशाह बन जाते हैं। व्यक्तिगत निपटारे यूनियन में फूट डालते हैं। नीतियों की प्रमुखता देने की प्रवृत्ति में नेता को नम्र, मेहनती, मजदूर, आग्रही बनना पड़ता है। जो सहज नहीं है।
राष्ट्रीय और आंचलिक यूनियनें राजनीतिक दलों से सम्बद्ध हैं। अतः इसके कारण सकारात्मक योगदान की संभावना कम हो जाती है। इन्हीं का परिणाम है कि हड़तालें कम और तालाबंदी ज्यादा हो रही हैं। बंद मिलें न खुल पा रही हैं न उनका राष्ट्रीयकरण हो पा रहा है बल्कि इसकी जगह निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है। राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण हैं। अन्य राज्यों में अपनी यूनियन का विस्तार करने के लिए जुझारू आंदोलन चलाए जा रहे हैं और मजदूर संकट का निराकरण नहीं हो पा रहा है।
1947 से पहले का मजदूर आंदोलन राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रभावित था। परंतु कम्यूनिस्ट पार्टियों ने समाजवादी विचारधारा की प्रतिष्ठा करने की कोशिश की।
1981 में आठ ट्रेड यूनियनों को लेकर गठित राष्ट्रीय अभियान समिति से कुछ आशा थी। लेकिन राष्ट्रीय अभियान में शामिल वामपंथी यूनियनों सीटू और एटक का मानना था कि इंटक को साथ लिए बिना राष्ट्रीय स्तर पर कोई ढांचा नहीं खड़ा किया जा सकता।
इन स्थितियों के आधार पर लेनिन की यह धारण निर्मूल साबित हो रही है कि राजनीतिक आंदोलन मजदूरों के राजनीतिक शिक्षा का सबसे अच्छा जरिया होता है और इससे मजदूरों की एकता भी विकसित होती है। कुल मिलाकर राष्ट्रीय राजनीति में मजदूरों के हस्तक्षेप का मसला ट्रेड यूनियनों की प्रतिद्वंद्विता के कारण लटक गया है।
स्थानीय चरित्र के आधार पर यूनियनों का गठन जारी है। नई ट्रेड यूनियन संस्कृति विकसित करने हेतु आवश्यक है कि नौकरशाही की जगह आंतरिक जनवाद बढ़ाया जाय। प्रबंधन में नेताओं की भागीदारी की जगह मजदूरों की भागीदारी सुनिश्चित की जाय।


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Dr. Yogesh mishr

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