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जियालाल का फलसफा
कामरेड जियालाल पांडेय मेरे पुराने मित्र हैं। इस शहर के आला अफसर हैं। फुरसत में खूब शराब पीते हैं। छक कर मांस खाते हैं। हसीन औरतों पर तवील बहस करते हैं। खरी उपमाएं पेश करते हैं। देहाती बीवी को जमकर गाली देते हैं। बच्चों के कैरियर पर खूब चर्चा करते हैं। नशा हल्का होते ही वह शून्यतावादी हो जाते हैं। अक्सर वह नशे में मानवेत्तर जीवन की ओर झुकने लगते हैं। इस हाल में वह सर्वहारा की विपदा की बजाय स्त्री के चरित्र और पुरुष के भाग्य की गूढ़ अन्वीक्षा करते हैं।
कामरेड जियालाल पांडेय बड़े सख्त मिजाज पुलिस अफसर हैं। वह इंसाफ के लिए आदिम कानूनों की बात भी करते हैं। यह भी मानते हैं कि गुण्डे अन्दर से बड़े अच्छे होते हैं। वह यह भी मानते हैं कि वेश्याओं के अड्डों पर बार-बार ‘रेड’ मारना अमानवीय काम है।
पांडेय महाराज पहले पैर छूने या छुआने से बड़ा परहेज रखते थे। अब पैर छूने वाले सिपाही दरोगा पर खास कृपा रखते हैं। हालांकि वह जनेऊ अब भी नहीं पहनते हैं, मगर मंगलवार को बजरंगी वाला टीका जरूर लगाते हैं। कामरेड इस बात को लेकर चिढ़ते हैं कि मैं उन्हें सिर्फ जियालाल क्यों नहीं कहता। मेरा हर बात यही जवाब रहा ‘इतनी अय्याशी के बाद सर्वहारा की पीड़ा का चिंतन कामरेड आपके अलावा कौन कर सकता है। कामरेड इस बात को लेकर हमेशा झेंपते हैं। मगर उन्होंने हर साल की अफसरी में अपना निजी दर्शन विकसित कर लिया है। वह फरमाते हंै - ‘पैसा प्रभुता है, प्रभुता स्वाभिमान है और स्वाभिमान ही आत्मिक दिलासा...।’ इस दर्शन को बखानते वक्त उनके चेहरे पर नियन्ता जैसा तेज झलकता है।
मैने कई बार पूछा कि कामरेड सर्वहारा और समता के सुहाने सपने कहां गये। उनका जवाब था - ‘अबे सर्वहारानुमा अपने नातेदारों के लिए ही नोट कमा रहा हूं। बिना प्रापर्टी के कहीं कोई घास नहीं डालता। बाप की मुंशीगीरी के कारण अभी तक मकान नहीं बन पाया। अब हम ईमानदारी को चूमें कि चाटें।’
मुझे लगा वाकई कामरेड जियालाल यथार्थवादी हो गये हैं। घूस, शराब और लड़की की बात पर उन्हें स्थिति प्रज्ञ देखकर मुझे पक्का यकीन हो गया है कि उनका पाला-पोसा आदर्शवाद असलियत के कोेड़ों की फटकार सुनते ही भाग गया है ।
मजे की बात यह है कि पांडेय जी रईसों से अब भी बहुत घृणा करते हैं । लेकिन अपनी रईसी उन्हें बड़ी प्यारी है। उनका ताजातरीन फलसफा यह है कि धन के बिना दाता होने का सुख नहीं प्राप्त किया जा सकता। जाहिर है सरकारी मुलाजिम दाता बनने की तमन्ना रखेगा तो दान अपनी टेंट से थोड़ेे करेगा। कुल मिलाकर उनका मानना है कि घूस के पैसे से निरीह और पसमांदा इंसान की मदद करते रहो। अकेले हजम करोगे तो कहीं न कहीं से फूटकर निकल जाएगा । इसका मतलब यह होता है कि घूस से पुण्य करते रहो, नहीं तो लड़के अवारा निकल जाएंगे । आधा पैसा बीमारी-हारी में घुस जाएगा। हाय-हा, किच-किच से घर का सुख चैन काफूर हो जाएगा।
इन बातों का खयाल रखते ही वह अपनी बीवी से शुक्रवार का व्रत रखवाते हैं। मंगल को पत्नी-बच्चों को गरियाते भी नहीं है। शनि से बचने के लिए नाव के कीला का छल्ला बनाकर उंगली में पहनते हैं। जाहिर है कि घूस के पास को बैलेंस करने के लिए उन्होंने परमशक्ति पर बड़े मन से डोरे डाले हैं। उनका मानना है कि इससे फायदा भी काफी हुआ है।
मुझे याद है पहले जियालाल के कमरे में महर्षि माक्र्स का एक फोटो लगा रहता था। अब हनुमान जी ने उनकी जगह ले ली है। इस मानस परिवर्तन का सबब बताने के लिए जियालाल हमेशा तैयार रहते हैं। उनका कहना है- ‘हिन्दुस्तानी पसे-मंजर में माक्र्स-फाक्र्स कूड़ा हो गये हैं। इस देश को महान बनाने के लिए हनुमान सा सेवा भाव जरूरी है।’
और मुझे यह भी याद है कि यही पांडेय जी यूनिवर्सिटी के दिनों में दस-दस रुपये की शर्त जीतने के लिए भगवानों को बीस गालियां सुनाते थे। सब दोस्त उनकी गालियों का मजा उठाते और बाद में कहते- ‘जियालाल तेरे बदन से कोढ़ फूटेगा ।’
लेकिन कम्युनिस्ट और अफसर बनने से पहले जियालाल गऊ जैसे सीधे-साधे थे। बड़े कुल के कारण शादी जल्दी हो गयी। पत्नी का गौना कराने के दस दिन बाद ही वह होस्टल में आ गये। बीबी को बिहारी की नायिका मानकर खयालों में खाये रहते। साथी जमकर तफरीह लेते। चुटइया होस्टल में उनकी असुरक्षा का कारण बनी रहती। रूम पार्टनर की सलाह पर उन्होने पहले दो इंच कतरी फिर वैसलीन लगाकर बालों में चिपका ली। लेकिन सीनियरों की नजरों से वह न बच सकी । उनकी तगड़ी रैगिंग हुई। पंडिताई पर करारे वार हुए। लड़कियों के पांव छुआकर उनके ब्रम्हचर्य को खलबलाया गया। उनसे फरमाइश की जाती - ‘लड़कियों को गाली बको।’ पाडंेय महाराज कहते - ‘वो भी किसी की बहन होगी।’ इस चक्कर में वह कई बार पिटे। इस अपमान और दुखों के सिलसिले ने जियालाल को बागी बना दिया। संयोग से उनके पास क्रांतिकारियों के जीवन चरित्र वाली एक किताब थी। उन्हें लगा कि इस किताब से कुछ वाजिब गुस्सा पैदा किया जा सकता है। बस इसी चक्कर में वह अकड़-अकड़ कर चलने लगे। खैर, छह माह में वह सामान्य व्यवहार के लायक बन गये। उनकी चुटइया का मजाक उड़ना बन्द हो गया। फिर भी उन्हें चैन नही था। मुझे याद है कि जियालाल उन दिनों सुबह टहलने जाया करते थे। लौटकर वह दातून करते, फिर कमरे के सामने घूम-घूम कर चना चबाते। देसी चीजों से उनका प्रेम बढ़ता जा रहा था। कभी-कभी वह ठकुरी धोती भी पहनते। हम कुछ कारण पूछते तो वह कहते - ‘अंगे्रजियत को मिटाओ, तन-मन से स्वदेशी बनो’ हमें लगा जियालाल तगड़े गांधी भक्त हो गये हैं, पर उन्होंने यह कभी कबूला नहीं। एक दिन उनके कमरे में एक जोड़ा खाकी नेकर देखकर मुझे शक हुआ। जियालाल कुछ पूछने के पहले ही लजाये हुए बोले - ‘मैने विद्यार्थी परिषद ज्वाइन कर ली है।’ कहने का भाव ऐसा था, जैसे वह मिलेट्री में चले गये हों। लेकिन जियालाल अकेले नहीं थे। उन्होंने शाखा जाने वाले तीन-चार साथी बना लिये थे।
हास्टल में कामरेडों का ग्रुप ज्यादा बड़ा था। जियालाल को ‘क्रांति’ से भटकता देख उन्होंने अफसोस जताया। उन्हें बुलाकर नये जमाने के चिंतन की बूटी संुधायी गयी। वह शशोपंज में थे। कम्युनिज्म की पार्टी पूजने के लिए जियालाल को लाल जिल्द वाली किताबें दी गयी। जियालाल को पता चला कि इन नोट्स के सहारे अब तक डेढ़ दर्जन कामरेड आईएएस और दर्जन भर पीसीएस बन चुके हैं। उन्हें यह साम्यवादी माया भा गयी। सड़क में वह अपने साथियों से चार घंटा ज्यादा पढ़ते। बाप का मर्नीआर और बीबी की चिट्ठी एक जैसा पैगाम लाती कहते हैं ‘सबसे बड़ा ईमानदार वह है जिसे बेईमान का मौका नहीं मिला। सबसे बड़ा जोगी वह है, जिसके पास औरतें नहीं आतीं।’ यानी जियालाल अपनी परिभाषाओं के मुताबिक जी रहे हैं। उन्हें अब भी लग रहा है कि यह इंकलाब के अभिनव प्रयोग हैं। वह अलमस्त इंसान जैसी हंसी फेंकते हुए कहते हैं - ‘हम अपने-अपने घर को सुखी बना लें, यह राष्ट्र भी सुखी बन जाएगा।’ इस ब्रह्मवाक्य को उन्होंने देशभक्ति का पेटेण्ट फार्मूला बना लिया है।
कामरेड जियालाल पांडेय बड़े सख्त मिजाज पुलिस अफसर हैं। वह इंसाफ के लिए आदिम कानूनों की बात भी करते हैं। यह भी मानते हैं कि गुण्डे अन्दर से बड़े अच्छे होते हैं। वह यह भी मानते हैं कि वेश्याओं के अड्डों पर बार-बार ‘रेड’ मारना अमानवीय काम है।
पांडेय महाराज पहले पैर छूने या छुआने से बड़ा परहेज रखते थे। अब पैर छूने वाले सिपाही दरोगा पर खास कृपा रखते हैं। हालांकि वह जनेऊ अब भी नहीं पहनते हैं, मगर मंगलवार को बजरंगी वाला टीका जरूर लगाते हैं। कामरेड इस बात को लेकर चिढ़ते हैं कि मैं उन्हें सिर्फ जियालाल क्यों नहीं कहता। मेरा हर बात यही जवाब रहा ‘इतनी अय्याशी के बाद सर्वहारा की पीड़ा का चिंतन कामरेड आपके अलावा कौन कर सकता है। कामरेड इस बात को लेकर हमेशा झेंपते हैं। मगर उन्होंने हर साल की अफसरी में अपना निजी दर्शन विकसित कर लिया है। वह फरमाते हंै - ‘पैसा प्रभुता है, प्रभुता स्वाभिमान है और स्वाभिमान ही आत्मिक दिलासा...।’ इस दर्शन को बखानते वक्त उनके चेहरे पर नियन्ता जैसा तेज झलकता है।
मैने कई बार पूछा कि कामरेड सर्वहारा और समता के सुहाने सपने कहां गये। उनका जवाब था - ‘अबे सर्वहारानुमा अपने नातेदारों के लिए ही नोट कमा रहा हूं। बिना प्रापर्टी के कहीं कोई घास नहीं डालता। बाप की मुंशीगीरी के कारण अभी तक मकान नहीं बन पाया। अब हम ईमानदारी को चूमें कि चाटें।’
मुझे लगा वाकई कामरेड जियालाल यथार्थवादी हो गये हैं। घूस, शराब और लड़की की बात पर उन्हें स्थिति प्रज्ञ देखकर मुझे पक्का यकीन हो गया है कि उनका पाला-पोसा आदर्शवाद असलियत के कोेड़ों की फटकार सुनते ही भाग गया है ।
मजे की बात यह है कि पांडेय जी रईसों से अब भी बहुत घृणा करते हैं । लेकिन अपनी रईसी उन्हें बड़ी प्यारी है। उनका ताजातरीन फलसफा यह है कि धन के बिना दाता होने का सुख नहीं प्राप्त किया जा सकता। जाहिर है सरकारी मुलाजिम दाता बनने की तमन्ना रखेगा तो दान अपनी टेंट से थोड़ेे करेगा। कुल मिलाकर उनका मानना है कि घूस के पैसे से निरीह और पसमांदा इंसान की मदद करते रहो। अकेले हजम करोगे तो कहीं न कहीं से फूटकर निकल जाएगा । इसका मतलब यह होता है कि घूस से पुण्य करते रहो, नहीं तो लड़के अवारा निकल जाएंगे । आधा पैसा बीमारी-हारी में घुस जाएगा। हाय-हा, किच-किच से घर का सुख चैन काफूर हो जाएगा।
इन बातों का खयाल रखते ही वह अपनी बीवी से शुक्रवार का व्रत रखवाते हैं। मंगल को पत्नी-बच्चों को गरियाते भी नहीं है। शनि से बचने के लिए नाव के कीला का छल्ला बनाकर उंगली में पहनते हैं। जाहिर है कि घूस के पास को बैलेंस करने के लिए उन्होंने परमशक्ति पर बड़े मन से डोरे डाले हैं। उनका मानना है कि इससे फायदा भी काफी हुआ है।
मुझे याद है पहले जियालाल के कमरे में महर्षि माक्र्स का एक फोटो लगा रहता था। अब हनुमान जी ने उनकी जगह ले ली है। इस मानस परिवर्तन का सबब बताने के लिए जियालाल हमेशा तैयार रहते हैं। उनका कहना है- ‘हिन्दुस्तानी पसे-मंजर में माक्र्स-फाक्र्स कूड़ा हो गये हैं। इस देश को महान बनाने के लिए हनुमान सा सेवा भाव जरूरी है।’
और मुझे यह भी याद है कि यही पांडेय जी यूनिवर्सिटी के दिनों में दस-दस रुपये की शर्त जीतने के लिए भगवानों को बीस गालियां सुनाते थे। सब दोस्त उनकी गालियों का मजा उठाते और बाद में कहते- ‘जियालाल तेरे बदन से कोढ़ फूटेगा ।’
लेकिन कम्युनिस्ट और अफसर बनने से पहले जियालाल गऊ जैसे सीधे-साधे थे। बड़े कुल के कारण शादी जल्दी हो गयी। पत्नी का गौना कराने के दस दिन बाद ही वह होस्टल में आ गये। बीबी को बिहारी की नायिका मानकर खयालों में खाये रहते। साथी जमकर तफरीह लेते। चुटइया होस्टल में उनकी असुरक्षा का कारण बनी रहती। रूम पार्टनर की सलाह पर उन्होने पहले दो इंच कतरी फिर वैसलीन लगाकर बालों में चिपका ली। लेकिन सीनियरों की नजरों से वह न बच सकी । उनकी तगड़ी रैगिंग हुई। पंडिताई पर करारे वार हुए। लड़कियों के पांव छुआकर उनके ब्रम्हचर्य को खलबलाया गया। उनसे फरमाइश की जाती - ‘लड़कियों को गाली बको।’ पाडंेय महाराज कहते - ‘वो भी किसी की बहन होगी।’ इस चक्कर में वह कई बार पिटे। इस अपमान और दुखों के सिलसिले ने जियालाल को बागी बना दिया। संयोग से उनके पास क्रांतिकारियों के जीवन चरित्र वाली एक किताब थी। उन्हें लगा कि इस किताब से कुछ वाजिब गुस्सा पैदा किया जा सकता है। बस इसी चक्कर में वह अकड़-अकड़ कर चलने लगे। खैर, छह माह में वह सामान्य व्यवहार के लायक बन गये। उनकी चुटइया का मजाक उड़ना बन्द हो गया। फिर भी उन्हें चैन नही था। मुझे याद है कि जियालाल उन दिनों सुबह टहलने जाया करते थे। लौटकर वह दातून करते, फिर कमरे के सामने घूम-घूम कर चना चबाते। देसी चीजों से उनका प्रेम बढ़ता जा रहा था। कभी-कभी वह ठकुरी धोती भी पहनते। हम कुछ कारण पूछते तो वह कहते - ‘अंगे्रजियत को मिटाओ, तन-मन से स्वदेशी बनो’ हमें लगा जियालाल तगड़े गांधी भक्त हो गये हैं, पर उन्होंने यह कभी कबूला नहीं। एक दिन उनके कमरे में एक जोड़ा खाकी नेकर देखकर मुझे शक हुआ। जियालाल कुछ पूछने के पहले ही लजाये हुए बोले - ‘मैने विद्यार्थी परिषद ज्वाइन कर ली है।’ कहने का भाव ऐसा था, जैसे वह मिलेट्री में चले गये हों। लेकिन जियालाल अकेले नहीं थे। उन्होंने शाखा जाने वाले तीन-चार साथी बना लिये थे।
हास्टल में कामरेडों का ग्रुप ज्यादा बड़ा था। जियालाल को ‘क्रांति’ से भटकता देख उन्होंने अफसोस जताया। उन्हें बुलाकर नये जमाने के चिंतन की बूटी संुधायी गयी। वह शशोपंज में थे। कम्युनिज्म की पार्टी पूजने के लिए जियालाल को लाल जिल्द वाली किताबें दी गयी। जियालाल को पता चला कि इन नोट्स के सहारे अब तक डेढ़ दर्जन कामरेड आईएएस और दर्जन भर पीसीएस बन चुके हैं। उन्हें यह साम्यवादी माया भा गयी। सड़क में वह अपने साथियों से चार घंटा ज्यादा पढ़ते। बाप का मर्नीआर और बीबी की चिट्ठी एक जैसा पैगाम लाती कहते हैं ‘सबसे बड़ा ईमानदार वह है जिसे बेईमान का मौका नहीं मिला। सबसे बड़ा जोगी वह है, जिसके पास औरतें नहीं आतीं।’ यानी जियालाल अपनी परिभाषाओं के मुताबिक जी रहे हैं। उन्हें अब भी लग रहा है कि यह इंकलाब के अभिनव प्रयोग हैं। वह अलमस्त इंसान जैसी हंसी फेंकते हुए कहते हैं - ‘हम अपने-अपने घर को सुखी बना लें, यह राष्ट्र भी सुखी बन जाएगा।’ इस ब्रह्मवाक्य को उन्होंने देशभक्ति का पेटेण्ट फार्मूला बना लिया है।
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