TRENDING TAGS :
हिन्दी फिल्मों का सच
मनोरंजन के सस्ते लोकप्रिय साधन के रूप में स्थापित हिन्दी फिल्मों ने गत दशक हमारे समाज को एक ऐसा भौतिकवादी ललचाई संस्कृति दी जिसमें मध्य वर्ग की दमित व संसाधनों के अभाव में पूर्ण न हो पाने वाली अभिलाषा का प्रतिनिधित्व करने का कथित साहस था। जिसमें मृगमरीचिका थी क्योंकि मनोरंजन के नाम पर कमजोर आत्मबल और अस्थिर चित्त को जो सम्बल मिला वह भौतिकता की आपाधापी में ‘शार्टकट-संस्कृति’ के माध्यम से निराश मन को मिलने वाली सांत्वना के लिए श्रेयस्कर नहीं कहा जाएगा।
फिल्मों में सुपर स्टार के माध्यम से एक ऐसी फसल उगाई गयी है, जिसे काट पाना उस वर्ग के लिए बहुत मुश्किल है जो बाक्स आफिस पर फिल्मों के एवांस बुकिंग और ‘हाउसफुल’ के लिये जिम्मेदार हैं। यहीं कारण है कि सुपर स्टार का युग राजेश खन्ना से चलकर अमिताभ बच्चन पर विराम लेने की स्थिति में नजर आ रहा है। क्योंकि इन सुपर स्टारों में फिल्म के कहानी के प्रति, उसकी कहानी के प्रति, उसके सामाजिक प्रभाव के प्रति कोई बोध नहीं है। इन्होंने वह सारे तरीके अख्तियार किये जिससे फिल्मों का व्यवसायिक पक्ष मजबूत हुआ। आम दर्शक भी अपने लिए सस्ते मनोरंजन की तलाश में यही अटक गया। सिल्वर जुबली और गोल्डेन जुबली इत्यादि के नाते सुपर स्टार भी गफलत में रहा। निर्माता फिर उन्हीं मसालों की थोड़ी हेर-फेर के साथ पुनरावृत्ति करने लगे। दर्शक दिग्भ्रमित हो गया। सुपर स्टारों के महिमा मण्ति व आरोपित व्यक्तित्व में उसका मनांरंजन गुम हो गया। तभी तो हीरो को एक दर्जन से अधिक लोगों को पिटते, सांतवीं मंजिल से कूदते, कार हवा में उड़ाते और लड़की के साथ सस्ते रोमांस एवं प्रेममय गीत गाते देखकर दर्शक दीर्घा की ओर से तालियों और सीटियों का स्वर मुखर हो उठता है।
मनोरंजन की तलाश में आया दर्शक यह नहीं तय कर पाया कि उससे मनोरंजन के नाम पर कौन से सपने बनवाये जा रहे हैं ? सस्ते मनोरंजन के नाम पर उसे क्या मिलना चाहिए ? क्या मिल रहा है ? निर्माता निर्देशक तो अपना सामाजिक दायित्व ही भूल बैठे। यह हिन्दी सिनेमा का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां व्यावसायिक निर्माता निर्देशक व हीरो कलात्मक फिल्मों के अपनी बिरादरी को हिकारत की दृष्टि से देखते हैं। हिन्दी सिनेमा का इससे बा दुखद अध्याय क्या होगा कि यहाँ एक दशक तक सुपर स्टार रहने वाले अभिनेताओं ने कोई सामाजिक जिम्मेदारी नहीं समी हो। जबकि इन दोनों अभिनेताओं ने समाज से लोकतंत्र की ताकत पाना चाहा उसी के माध्यम से संसद व लोकतंत्र की पंचायत में घुसपैठ भी की। ऐसे कर्तव्यहीन लोग जो शिखर पर रहे हों उनसे जनभावना के आदर की अपेक्षा करना लोकतंत्र के लिए सुखकर नहीं है।
पिछले दशक देश तमाम विभीषिकाओं से तमाम बड़ी दुर्घटनाओं से गुजरा शिखर पर स्थापित यह सुपर स्टार संस्कृति उसके पक्ष में कुछ नहीं कर पायी। एक ‘चैरिटी शो’ तक आयोजित नहीं किया गया। देश की तंग आर्थिक स्थिति में प्रधानमंत्री कोष में कुछ बढ़ोत्तरी का सपना तो दूर आयकर चोरी तक के हथियार अपनाये गये। अगर किसी अवसर-अनवसर में इकट्ठा भी हुए तो इनसे ‘दूरर्शनी’ मुद्रा मुखर रूप से पायी गयी। इन्होंने तो किसी ऐसी फिल्म तक में काम नहीं किया जिसमें देश प्रेम हो। देश प्रेम की प्रेरणा हो। कोई लम्बे समय तक जीवित रहने वाला देश के प्रति कोई संवाद भी नहीं दिया गया।
सिर्फ रंगीन सपने, रंगीन दृश्य बेचकर आखिर कब तक मनोरंजन कर चुकता करने वाले दर्शक को बहकाया जा सकता है। निर्माता निर्देशकों ने तो इस दिशा में हद पार कर दी है। तभी तो ‘हम’ जैसी फिल्म में अनुपम खेर की एक लम्बी पिटाई के बाद भी उसका चश्मा आंखों पर चढ़ा दीखता है। शोले में अमिताभ के मरने के दृश्य में पहले दाहिनी टांग खड़ी रहती है। बाद में बायीं टांग खड़ी दिखायी जाती है। फिल्मों में हेलीकाप्टर की काकपिट खुलने के बाद भी हेलीकाप्टर को उड़ान भरते दिखना। रिवाल्वर से दस-पन्द्रह गोलियां चलाना। बंदूक से तीन-चार गोलियां दाग देना जैसे दृश्य बहुतायत में मिलते हैं। दुश्मन का एक गोली में काम तमाम करना जबकि अभिनेता का कई गोलियां खाकर भी मुकाबला करना सरीखे दृश्य बहुतायत में मिलते हैं। निर्माता और निर्देशक तो इतना सुध खो बैठे हैं कि ‘पाले-खां’ फिल्म के एक दृष्य में फरहा मरने के बाद भी मुस्कराती रह जाती है। मृत्यु का यह नया जीवन दर्शन गढ़ना हिन्दी सिनेमा के बस की ही बात है। ‘वंचित’ के एक दृश्य में नायक पल्ल्वी जोशी का कपड़ा पकड़कर खींचता है जिसके परिणामस्वरूप पल्लवी के कपड़े का बायां हिस्सा फट जाता है लेकिन थोड़ी देर बाद ही उसका दायां हिस्सा भी फटा दिखाया जाना हिन्दी सिनेमा के प्रति निर्देशक के दायित्व बोध को उजागर करने के लिए पर्याप्त है।
सस्ते मनोरंजन के नाम पर अपने सामाजिक बोध को मारकर, सामाजिक दायित्व को भुलाकर यह ‘स्टार युग’ हमें अफीमची बनाने की साजिश कर रहा है। मनोरंजन कर के बाद भी मनोरंजनहीनता बेचना। अयथार्थता का बोध कराना व्यावसायिक को निजी तौर पर स्वीकार कर घटिया प्रदर्शन, भौे दृश्य के नाम पर गुमराह करना इसकी नियति बन गयी है। आवश्यकता है समानान्तर आन्दोलन की जो रंगीन सपने बेचने की मंशा को रोक सके। सेंसर बोर्ड की समाप्त हो रही प्रासंगिकता पर सवाल खा कर सके। नहीं तो हिन्दी सिनेमा का सच एक भयावह कल का जो निर्माण कर रहा है वह निर्मित हो जाएगा जिसमें प्रवेश हेतु स्टार पुत्रों सहित कई स्वप्न प्रेमी जुटे हैं।
फिल्मों में सुपर स्टार के माध्यम से एक ऐसी फसल उगाई गयी है, जिसे काट पाना उस वर्ग के लिए बहुत मुश्किल है जो बाक्स आफिस पर फिल्मों के एवांस बुकिंग और ‘हाउसफुल’ के लिये जिम्मेदार हैं। यहीं कारण है कि सुपर स्टार का युग राजेश खन्ना से चलकर अमिताभ बच्चन पर विराम लेने की स्थिति में नजर आ रहा है। क्योंकि इन सुपर स्टारों में फिल्म के कहानी के प्रति, उसकी कहानी के प्रति, उसके सामाजिक प्रभाव के प्रति कोई बोध नहीं है। इन्होंने वह सारे तरीके अख्तियार किये जिससे फिल्मों का व्यवसायिक पक्ष मजबूत हुआ। आम दर्शक भी अपने लिए सस्ते मनोरंजन की तलाश में यही अटक गया। सिल्वर जुबली और गोल्डेन जुबली इत्यादि के नाते सुपर स्टार भी गफलत में रहा। निर्माता फिर उन्हीं मसालों की थोड़ी हेर-फेर के साथ पुनरावृत्ति करने लगे। दर्शक दिग्भ्रमित हो गया। सुपर स्टारों के महिमा मण्ति व आरोपित व्यक्तित्व में उसका मनांरंजन गुम हो गया। तभी तो हीरो को एक दर्जन से अधिक लोगों को पिटते, सांतवीं मंजिल से कूदते, कार हवा में उड़ाते और लड़की के साथ सस्ते रोमांस एवं प्रेममय गीत गाते देखकर दर्शक दीर्घा की ओर से तालियों और सीटियों का स्वर मुखर हो उठता है।
मनोरंजन की तलाश में आया दर्शक यह नहीं तय कर पाया कि उससे मनोरंजन के नाम पर कौन से सपने बनवाये जा रहे हैं ? सस्ते मनोरंजन के नाम पर उसे क्या मिलना चाहिए ? क्या मिल रहा है ? निर्माता निर्देशक तो अपना सामाजिक दायित्व ही भूल बैठे। यह हिन्दी सिनेमा का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां व्यावसायिक निर्माता निर्देशक व हीरो कलात्मक फिल्मों के अपनी बिरादरी को हिकारत की दृष्टि से देखते हैं। हिन्दी सिनेमा का इससे बा दुखद अध्याय क्या होगा कि यहाँ एक दशक तक सुपर स्टार रहने वाले अभिनेताओं ने कोई सामाजिक जिम्मेदारी नहीं समी हो। जबकि इन दोनों अभिनेताओं ने समाज से लोकतंत्र की ताकत पाना चाहा उसी के माध्यम से संसद व लोकतंत्र की पंचायत में घुसपैठ भी की। ऐसे कर्तव्यहीन लोग जो शिखर पर रहे हों उनसे जनभावना के आदर की अपेक्षा करना लोकतंत्र के लिए सुखकर नहीं है।
पिछले दशक देश तमाम विभीषिकाओं से तमाम बड़ी दुर्घटनाओं से गुजरा शिखर पर स्थापित यह सुपर स्टार संस्कृति उसके पक्ष में कुछ नहीं कर पायी। एक ‘चैरिटी शो’ तक आयोजित नहीं किया गया। देश की तंग आर्थिक स्थिति में प्रधानमंत्री कोष में कुछ बढ़ोत्तरी का सपना तो दूर आयकर चोरी तक के हथियार अपनाये गये। अगर किसी अवसर-अनवसर में इकट्ठा भी हुए तो इनसे ‘दूरर्शनी’ मुद्रा मुखर रूप से पायी गयी। इन्होंने तो किसी ऐसी फिल्म तक में काम नहीं किया जिसमें देश प्रेम हो। देश प्रेम की प्रेरणा हो। कोई लम्बे समय तक जीवित रहने वाला देश के प्रति कोई संवाद भी नहीं दिया गया।
सिर्फ रंगीन सपने, रंगीन दृश्य बेचकर आखिर कब तक मनोरंजन कर चुकता करने वाले दर्शक को बहकाया जा सकता है। निर्माता निर्देशकों ने तो इस दिशा में हद पार कर दी है। तभी तो ‘हम’ जैसी फिल्म में अनुपम खेर की एक लम्बी पिटाई के बाद भी उसका चश्मा आंखों पर चढ़ा दीखता है। शोले में अमिताभ के मरने के दृश्य में पहले दाहिनी टांग खड़ी रहती है। बाद में बायीं टांग खड़ी दिखायी जाती है। फिल्मों में हेलीकाप्टर की काकपिट खुलने के बाद भी हेलीकाप्टर को उड़ान भरते दिखना। रिवाल्वर से दस-पन्द्रह गोलियां चलाना। बंदूक से तीन-चार गोलियां दाग देना जैसे दृश्य बहुतायत में मिलते हैं। दुश्मन का एक गोली में काम तमाम करना जबकि अभिनेता का कई गोलियां खाकर भी मुकाबला करना सरीखे दृश्य बहुतायत में मिलते हैं। निर्माता और निर्देशक तो इतना सुध खो बैठे हैं कि ‘पाले-खां’ फिल्म के एक दृष्य में फरहा मरने के बाद भी मुस्कराती रह जाती है। मृत्यु का यह नया जीवन दर्शन गढ़ना हिन्दी सिनेमा के बस की ही बात है। ‘वंचित’ के एक दृश्य में नायक पल्ल्वी जोशी का कपड़ा पकड़कर खींचता है जिसके परिणामस्वरूप पल्लवी के कपड़े का बायां हिस्सा फट जाता है लेकिन थोड़ी देर बाद ही उसका दायां हिस्सा भी फटा दिखाया जाना हिन्दी सिनेमा के प्रति निर्देशक के दायित्व बोध को उजागर करने के लिए पर्याप्त है।
सस्ते मनोरंजन के नाम पर अपने सामाजिक बोध को मारकर, सामाजिक दायित्व को भुलाकर यह ‘स्टार युग’ हमें अफीमची बनाने की साजिश कर रहा है। मनोरंजन कर के बाद भी मनोरंजनहीनता बेचना। अयथार्थता का बोध कराना व्यावसायिक को निजी तौर पर स्वीकार कर घटिया प्रदर्शन, भौे दृश्य के नाम पर गुमराह करना इसकी नियति बन गयी है। आवश्यकता है समानान्तर आन्दोलन की जो रंगीन सपने बेचने की मंशा को रोक सके। सेंसर बोर्ड की समाप्त हो रही प्रासंगिकता पर सवाल खा कर सके। नहीं तो हिन्दी सिनेमा का सच एक भयावह कल का जो निर्माण कर रहा है वह निर्मित हो जाएगा जिसमें प्रवेश हेतु स्टार पुत्रों सहित कई स्वप्न प्रेमी जुटे हैं।
Next Story