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राष्ट्रगान का सच

Dr. Yogesh mishr
Published on: 24 May 1992 12:16 PM IST
देश बनने और होने के लिए राष्ट्रगान का होना भी जरूरी है। हम भारतीयों क¢ लिए यह सौभाग्य का सबब हो सकता है कि हमारे राष्ट्रगान के रचयिता रवींद्रनाथ टैगोर को 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था। नोबल पुरस्कार आज भी किसी भी राष्ट्र क¢ लिए गौरव का सबब है। पर तकरीबन एक दशक पहले तो यह कितना महत्वपूर्ण था। सिर्फ आज क¢ परिवेश से समझने की कोशिश करें तो न क¢वल रोमांच होता है बल्कि गर्व से सिर भी ऊंचा हो जाता है। नोबल पुरस्कार क¢ लिए हिंदी या भारतीय भाषाओं की प्रवृष्टियां स्वीकार्य नहीं हैं। ऐसे में किसी क¢ लिए यह हैरत का सबब हो सकता है कि गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की पुस्तक गीतांजलि और उनका साहित्य क्या भारतीय भाषा का नहीं था। हर कोई भली-भांति जानता था कि गुरुदेव टैगोर बंगला भाषा में लिखते थे। पर खुद को नोबल क¢ काबिल बनाने क¢ लिए उन्होंने अपनी रचनाओं को अंग्रेजी तर्जुमा भी किया था। लेकिन गुदेव रवींद्र नाथ टैगोर क¢ गीत को राष्ट्रगान बनाने तथा उन्हें मिला नोबल पुरस्कार दोनों शुरू से ही विवाद का सबब रहे हैं। यही नहीं, कभी भी इन दोनों सवालों पर विचार करने के लिए बैठिये तो विवाद का अंत दिखता ही नहीं है। लगता है राष्ट्रगान और टैगोर क¢ नोबल पुरस्कार क¢ विवाद में चोली-दामन का रिश्ता है। वजह भी साफ है।
1911 तक बंगाल भारत की राजधानी था। इसी साल अंग्रेज इसे दिल्ली ले आए। इसक¢ चलते देश में विद्रोह हुआ। अंग्रेज शासकों ने इंग्लैंड क¢ राजा को भारत आमंत्रित किया ताकि लोग शांत हो जाए। 1911 में इंग्लैं का राजा जार्ज पंचम भारत आया। उस समय रवींद्र नाथ टैगोर क¢ बड़े भाई अवनींद्र नाथ टैगोर ईस्ट इंडिया कंपनी क¢ डिवीजनल निदेशक थे। नतीजतन, उन्हें जार्ज पंचम क¢ आगमन पर एक गीत लिखने की जिम्मेदारी दी गई। अपने स्वागत गीत से प्रभावित जार्ज पंचम ने रवींद्र नाथ टैगोर को न क¢वल इंग्लैडं बुलवाया, बल्कि नोबल पुरस्कार देने का भी फैसला सुनाया। हालंाकि यह पुरस्कार उनकी किताब गीतांजलि पर था। यह बात दीगर है कि  जलियावाला बाग कां पर जब टैगोर की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई तो महात्मा गांधी ने उनसे मुलाकात कर उनकी खामोशी पर इतना कोसा कि उन्होंने नोबल पुरस्कार तक वापस करने का ऐलान कर दिया। टैगोर क¢ एक रिश्तेदार सुरेंद्र नाथ बनर्जी लंदन मंे अफसर थे। जिन्हें टैगोर ने खुद चिट्ठी लिख कर यह कहा था कि जन गण मन गीत अंग्रेजों ने दबाव डालकर लिखवाया है। यह गीत न गाया जाए तो अच्छा है। हालांकि अपने खत में रवींद्र नाथ टैगोर ने सुरेंद्र नाथ बनर्जी को यह लिख दिया था कि यह चिट्ठी किसी को न दिखायी जाए क्योंकि इसे मैं क¢वल आप तक सीमित रखना चाहता हूं। पर सात अगस्त को रवींद्र नाथ टैगोर की मौत क¢ बाद इस पत्र को सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने सार्वजनिक किया। लेकिन इन सबको दरकिनार करते हुए 24 जनवरी 1950 को राष्ट्रगान क¢ रूप में स्वीकृत उनक¢ गीत में जिन जन गण मन क¢ अधिनायक की प्रशस्ति की गई है, वह आखिर है कौन ? भारत क¢ भाग्यविधाता की उपाधि जिसे दी गई है उससे उसे जानने का कौतुहल सबमें होना लाजिमी है। क्योंकि अगर भारत माता की वंदना इस गीत का अभिप्राय है तो वह अधिनायक नहीं हो सकती। और भारत क¢ भाग्य क¢ विधाता की जगह अपने भाग्य क¢ विधाता का प्रयोग होना चाहिए था। राष्ट्रगान-
जन गण मन अधिनाय्ाक जय्ा हे भारत भाग्य्ा विधाता
पंजाब सिंधु गुजरात मराठा द्राविड़ उत्कल बंग
विन्ध्य्ा हिमाचल य्ामुना गंगा उच्छल जलधि तरंग
तब शुभ नामे जागे, जब शुभ आशिष मांगे
गाहे तब जय्ागाथा
जन गण मंगलदाय्ाक जय्ा हे भारत भाग्य्ाविधाता
जय्ा हे, जय्ा हे, जय्ा हे, जय्ा जय्ा जय्ा जय्ा हे

अहरह तब आह्वान प्रचारति
शुनी तब उदार वाणी
हिन्दू ब©द्ध सिक्ख जैन
पारसिक मुसलमान अ¨ ख्रिस्टानी
पूर्व पश्चिम आशे, तब सिन्हासन पाशे
प्रेमहार हय्ा गांथा
जन गण ऐक्य्ा विधाय्ाक जय्ा हे भारत भाग्य्ा विधाता
जय्ा हे, जय्ा हे, जय्ा हे, जय्ा जय्ा जय्ा जय्ा हे

पतन-अभ्य्ाुदय्ा बंधुर पंथा, य्ाुग य्ाुग धावति य्ाात्री
हे चिरसारथि, तब रथ चक्रे मुखरित पथ दिनरात्रि
दारुण विप्लप माझे तब शंखध्वनि बाजे
संकट दुःख त्राता
जग गण पथ परिचाय्ाक जय्ा हे भारत भाग्य्ा विधाता
जय्ा हे, जय्ा हे, जय्ा हे, जय्ा जय्ा जय्ा जय्ा हे

घ¨र तिमिर घन निबिड़ निशीथे पीड़ित मूच्र्छित देशे
जाग्रत छिल तब अविचल मंगल नत नय्ाने अनिमेषे
दुःस्वपे आतंक¢ रक्षा करिले
अंक¢ स्नेहमय्ाी तुमि माता
जन गण दुःख त्राय्ाक जय्ा हे भारत भाग्य्ा विधाता
जय्ा हे, जय्ा हे, जय्ा हे, जय्ा जय्ा जय्ा जय्ा हे

रात्रि प्रभातिल उदिल रविच्छवि
पूर्व उदय्ागिरी भाले
गाहे विहंगम पुण्य्ा समीरण
नव जीवनरस ढाले
तव करुणारुण रागे
निदाड़ित भारत जागे
तब चरणे नत माता
जय्ा जय्ा जय्ा है, जय्ा राजेश्वर
भारत भाग्य्ा विधाता
जय्ा हे, जय्ा हे, जय्ा हे, जय्ा जय्ा जय्ा जय्ा हे

में जो कुछ कहा गया है उसका अर्थ निकलता है -

जन गण मन के अधिनायक
भारत के भाग्य विधाता
तुम्हारी जय हो
पंजाब-सिन्धु, गुजरात-महाराष्ट्र
द्रविड़ उत्कल और बंगाल, तथा
विंध्याचल हिमालय गंगा-यमुना
एवं उत्ताल लहरों वाला सागर
सभी आपके नाम सुनने से ही
जग जाते हैं
और आपसे शुभ की आशीष मांगते हैं
साथ ही, तुम्हारी जयगान करते हैं
हे, जनगण मंगल दायक
भारत के भाग्य विधाता
तुम्हारी जय हो-जय हो जय हो
जय-जय-जय हो।
अगर इस गीत में भारतीय जनगण की प्रशस्ति है तो भाग्य विधाता की प्रशस्ति क्यों होनी चाहिए। शाब्दिक दृष्टिकोण से देखें तो अधिनायक शब्द का अभिप्राय यह है कि विशेष अवस्थाओं या परिस्थितियों के लिए नियत किया हुआ सर्वप्रधान और पूर्ण अधिकार प्राप्त शासक या अधिकारी। अंग्रेजी में इसके लिए ‘डिक्टेटर’ शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका एक अर्थ निरंकुशता से भी लगाया जाता है। अतः यह यक्ष प्रश्न हो जाता है कि भारत का भाग्य विधाता है कौन ? इतिहास का सिंहावलोकन करें तो पता चलता है कि भारत के अधिनायक व भाग्य विधाता जार्ज पंचम हैं। जिनकी आगवानी में 1911 में यह गीत लिखा गया था। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि इसे राष्ट्र गान क्यों स्वीकार किया गया ? राष्ट्रगान के रूप में यह हमारी औपनिवेशिक मस्तिष्क का प्रतीक क्या नहीं है ? क्या इसे रागान स्वीकार करते समय हमारे मन और दिमाक पर नोबेल का गहरा बोझ नहीं था ? क्योंकि इससे शर्मनाक स्थिति क्या हो सकती है कि साम्राज्यवाद और अधिनायक तत्व के प्रतीक जार्ज पंचम की आगवानी के समय की गयी प्रशंसा को हम आजादी के 45 वर्षों बाद तक स्वीकारते आ रहे हैं। जबकि राष्ट्रगान एक ऐसा आईना है जिसमें राष्ट्रीय स्वरूप, राष्ट्र की लाई में मरे-खपे लोगों के उत्सर्ग का बोध हो सके। पर हम जब अपना राष्ट्रगान गाते हैं तो हमारे सामने जार्ज पंचम का वह ‘गोरा’ स्वरूप उभरता है जिसमें भारतीय शोषण, भारतीयता के विदोहन करने के साथ-साथ हमारी संस्कृति एवं सभ्यता को समाप्त करने का जज्बा था। अधिनायक शब्द हमारी अहिंसा, गुट निरपेक्षता एवं पंचशील जैसे शब्दों को चुनौती देता हमारे सामने प्रतिध्वनित होता रहता है।
गुरुदेव की जिस गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार मिला था उसमें नोबल पुरस्कार पाने जैसा कुछ नहीं है। उससे अच्छी तमाम कृतियां भारतीय साहित्य में ज्ञानपीठ पाकर तुष्ट हो गयीं। यह एक विडम्बना ही है कि भारत का पहला नोबेल और भारत का पहला गान देश की साहित्य की और समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करते हैं।
पर हम जो ठहरे सम्पन्न ऐतिहासिक बोध के धनी, हमारी ऐतिहासिकता रही है - पश्चिम में। पश्चिम ने हमें जो भी दिया है वह हमें रचा, भाया। इसीलिए गुरुदेव हमें भाये। गुरुदेव का गान हमारा राष्ट्रगान बन गया। रहस्यवादी प्रकृत्ति की स्थापना में संलग्न गीतांजलि रहस्यवाद को स्थापित नहीं कर पायी। दुनिया के सारे देशों में आजादी के संघर्ष में उत्प्रेरक के रूप में काम आये गीत को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया गया है अथवा उन गीतों को चुना गया जिनमें उस राष्ट्र की शक्ति को दर्शाने की ताकत हो।
अगर यह मान भी लिया जाए कि रवीन्द्रनाथ टैगोर के इस गीत में यह ताकत है तो 1911 के बाद से किसी भी कांग्रेस अधिवेशन में इसे क्यों नहीं गाया गया। जबकि उन दिनों कांग्रेस स्वतंत्रता का पर्याय थी। उस समय तो हमेशा कांग्रेस अधिवेशनों में श्यामलाल गुप्त पार्षद जी का झंडंा गीत गाया जाता था। जो इस प्रकार है -
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा।
झंडंा ऊंचा रहे हमारा।

सदा शक्ति बरसाने वाला, प्रेम सुधार सरसाने वाला,
वीरों को हर्षाने वाला, मातृभूमि का तन-मन सारा,
झंडंा ऊंचा रहे हमारा।

स्वतंत्रता क¢ भीषण रण में, लखकर जोश बे क्षण-क्षण मंे,
कांपे शत्रु देख कर मन में, मिट जाए भय संकट सारा,
झंडंा ऊंचा रहे हमारा।

इस झंडंे क¢ नीचे निर्भय लें, स्वराज्य यह अविचल निश्चय,
बोलो भारत माता की जय, स्वतंत्रता है ध्येय हमारा,
ंझंडा ऊंचा रहे हमारा।

आओ प्यारे ! वीरों आओ, देश-धर्म पर बलि-बलि जाओ,
एक साथ सब मिलकर गाओ, प्यारा भारत देश हमारा,
झंडंा ऊंचा रहे हमारा।

उसकी शान न जाने पाए, चाहे जान भले ही जाए,
विश्व विजय करक¢ दिखलाएं, तब होवे प्रण पूर्ण हमारा,
झंडंा ऊंचा रहे हमारा।

संघर्षो में उत्प्रेरक के रूप में जो काम आया उसे भुलाकर रवीन्द्रनाथ टैगोर के नोबेल व्यक्तित्व के सामने हमने अपनी राष्ट्रीयता, बौद्धिकता तथा स्वतन्त्रता की सोच को, धारणा को दरकिनार करते हुए आत्मसमर्पण किया। वह भी तब जबकि प्रसाद का यह उद्बोधन हमारे सामने हैं:
हिमाद्रि तंुग श्रंग से,
प्रबुद्ध-शुद्ध भारती।
स्वयं प्रभा समुज्वला,
स्वतंत्रता पुकारती।।
अमत्र्य वीर पुत्र हो,
दृ प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है,
बढ़े चलो-बढ़े चलो।।
असंख्य कीर्ति रश्मियां,
विकीर्ण दिव्य दाह सी।
सपूत मातृभूमि के,
रुको न शूर साहसी।।
अराश्रित सैन्य सिन्धु में,
सुवांवाग्नि से जलो।
प्रवीर हो जयी बनो,
बढ़े चलो - बढ़े चलो।
जयशंकर प्रसाद के इस गीत में तो देश भक्ति, प्रेरणा और देश की ताकत छिपी है। वह राष्ट्रगान में नहीं दिखती। यही नहीं, रवींद्र नाथ टैगोर क¢ गीत को तरजीह देने क¢ लिए ही हमने राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत सरीखा खाका तैयार किया। बंकिम चंद्र चटर्जी क¢ उपन्यास आनंद मठ से राष्ट्रगीत चुना। 1880 में पूरी हुई यह रचना ठीक दो साल बाद 1882 में किताब क¢ रूप में प्रकाशित हो गई थी। प्रकाशन से शुरू क¢ दस सालों मंे बांग्ला में इसक¢ पांच संस्करण छपे। 1885 में इंडियन नेशनल कांगे्रस की स्थापना हुई थी। इसक¢ एक साल बाद 1886 में कालका में हुए दूसरे अधिवेशन में हेमचंद्र बंधोपाध्याय ने अपनी रचना क¢ तहत आनंद मठ क¢ वंदेमारतम गीत क¢ कुछ अंश गाकर सुनाए थे। यह पहला अवसर था जब सार्वजनिक रूप से इस गीत का उपयोग किया गया। दूसरी बार 1896 क¢ कांग्रेस अधिवेशन में रवींद्र नाथ टैगोर ने इसे गाया। 1901 क¢ बाद कांग्रेस क¢ हर अधिवेशन में वंदेमातरम गीत गूंजा। इस गीत का उल्लेख महर्षि अरविंद ने 1907 में लिखे अपने एक लेख में किया था।  बंग-भंग आंदोलन क¢ समय लोगों की जवान पर चढ़े इस गीत ने तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल को असम, ओडिसा, बिहार, झारखंड और बंगाल में विभाजित करने क¢ फरमान क¢ खिलाफ खड़े होने में बहुत मदद की। यह गीत इतना प्रचलित हुआ कि अंग्रेज सरकार इससे चिढ़ने लगी। जहां भी इस गीत को सुनती, बंद करा देती थी और गाने वालों को जेल भेज देती थी। मात्र चैदह साल की उम्र में फांसी का फंदा चूमने वाले खुदीराम बोस ने वंदेमातरम ही कहा था। यही नहीं, राजगुरू और अशफाक उल्ला खां तथा चंद्रशेखर आजाद की जुबान पर भी वंदेमारतम का गीत खूब चढ़ा था।
07 अगस्त 1905 को कलकत्ता क¢ टाऊन हाल में बंग-भंग क¢ खिलाफ इकट्ठे हुए हजारों लोगों ने वंदे मातरम को लोकप्रिय नारे क¢ रूप में मान्यता दे दी। इसक¢ बाद से सिर्फ बंगाल की सात करोड़ की जनसंख्या तक सीमित रहने वाला यह गीत भारत की तत्कालीन जनसंख्या 30 करोड़ तक जा पहुंचा। लोग कहने लगे -
सप्तकोटि कंठ कल कल निनादकराले,
द्विसप्त कोटि भुजैधृत खरकर वाले,
अबला केनो मां अेती बले-
कौन ऐसी माता को अबला कह सकता है जिसकी सात करोड़ संताने हैं, चैदह करोड़ हाथ जिसकी सेवा के लिए तत्पर हैं। वह मां तो अतुल बलशालिनी है। जैसे-जैसे इस गीत की लोकप्रियता बती गई इसे अखिल भारतीय स्वरूप मिलता गया। पहले सप्तकोटि के स्थान पर त्रिशंकोटि हुआ और बाद में कोटि-कोटि कर दिया गया। बंकिम चंद्र चटर्जी का यह गान -

वंदे मातरम
सुजलां सुफलां मलय्ाजशीतलाम्
शस्य्ा श्य्ाामलां मातरंम्
शुभ्र ज्य्ा¨त्सनाम् पुलकित य्ाामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलश¨भिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्
वंदे मातरम्

सप्त क¨टि कण्ठ कलकल निनाद कराले
द्विसप्त क¨टि भुजैघ्र्रत खरकरवाले
क¢ ब¨ले मा तुमी अबले
बहुबल धारिणीम् नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीम् मातरम्
वंदे मातरम्

तुमि विद्या तुमि धर्म, तुमि हृदि तुमि मर्म
त्वं हि प्राणाः शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदय्ो तुमि मा भक्ति,
त¨मारै प्रतिमा गड़ि मंदिरे-मंदिरे
वंदे मातरम्

त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदल विहारिणी
वाणी विद्यादाय्ािनी, नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम्
वंदे मातरम्
श्य्ाामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्
धरणीं भरणीं मातरम्
वंदे मातरम्

1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना क¢ साथ इस गीत क¢ खिलाफ विरोध क¢ स्वर उठने लगे। काकीनोड़ा कांग्रेस क¢ अध्यक्ष मौलाना अली ने 1923 में ऐलान कर दिया कि सम्मेलन में वंदेमातरम नहीं गाया जाएगा। यह इस्लाम विरोधी है। उनक¢ इस कथन का मंच पर बैठे किसी नेता ने विरोध नहीं किया। लेकिन हर कांग्रेस अधिवेशन में इस गीत को गाने वाले संगीतज्ञ पंति विष्णु दिगंबर पुरस्कार ने उनकी बात को खारिज करते हुए पूरा मूल गीत गाया। उन्होंने इस बाबत अपना जोरदार तर्क भी दिया। दारुल उलूम देवबंद ने वंदे मातरम् पर फतवा जारी किया। उसकी ओर से बार-बार यह भी कहा गया कि इसे वापस नहीं लिया जाएगा। हालांकि कई मुस्लिम नेताओं और बुद्धिजीवियों ने यह मत व्यक्त किया है कि वंदे मातरम का गायन इस्लामी सिद्धांतों के खिलाफ नहीं है। वह बुतपरस्ती को प्रोत्साहित नहीं करता है।
1937 में मुस्लिम लीग क¢ कलकत्ता अधिवेशन में वंदेमातरम को राष्ट्रीय गीत बनाने क¢ खिलाफ मुस्लिमों को लामबंद करने की कवायद शुरू कर दी गई। 1938 में मुस्लिम लीग ने कांग्रेस क¢ सामने वंदेमातरम गीत को बंद करने की मांग रख दी गई। मद्रास विधानसभा में वंदे मातरम गाए जाने पर मुस्लिमों ने बहिष्कार किया। इस गीत को लेकर उठते विवाद क¢ मद्देनजर मौलाना अबुल कलाम आजाद, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेंद्र देव की एक उपसमिति गठित की गई, जिसे रवींद्र नाथ टैगोर से परामर्श कर राष्ट्रीय गीत क¢ बाबत वंदेमातरम की स्थिति और उपयुक्तता पर फैसला लेना था। उप समिति ने सिफारिश कर दी कि इसक¢ क¢वल दो पद्य -
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्
सुजलाम सुफलाम्। मलयज शीतलाम्।
शस्य श्यामलाम् मातरम्। वंदे मातरम्।
शुभ्र ज्योत्सना पुलकित यामिनीम्।
फुल्ल कुसुमित द्रमुदल शोभिनीम्।
सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्।
सुखदां वरदंा मातरम्।
वंदे मातरम्।

ही सार्वजनिक सभाआंे में गाए जाएं। नेहरू और जिन्ना क¢ बीच इस गीत को लेकर लंबी खतो-किताबत भी हुई। जिन्ना इसे इस्लाम विरोधी बताते थे और कहते थे कि इसमें हिंदू देवियों की चर्चा है, यह बुतपरस्ती की प्रेरणा देता है। जिन्ना ने इन सवालों का जवाब देते हुए नेहरू ने साफ कर दिया था कि इस गीत की उपयुक्तता क¢ बाबत बनी कमेटी ने इसक¢ दो पद्य गाने की बात कही है। इन दो पद्यों में ऐसी कोई बात नहीं है जिस पर किसी को आपत्ति हो। पर जिन्ना क¢ गले यह भी बात नहीं उतरी तो उन्हांेने नया तर्क यह गढ़ा कि मुसलमान इस गीत को कैसे स्वीकार कर सकते हैं। क्योंकि जिस आनंद मठ किताब से यह गीत लिया गया है, वह घोर मुस्लिम विरोधी रचना है। अब इस गीत को लेकर उपसमिति क¢ सदस्यों और रवींद्र नाथ टैगोर की निंदा होने लगी। मुसलमानों की ओर से इसे इस्लाम विरोधी कहा जाने लगा तो हिंदुओं की ओर से इस गीत क¢ अंग-भंग का आरोप समिति क¢ सदस्यों पर लगा। कहा गया कि रवि बाबू की सलाह पर कांग्रेस ने वंदे मातरम क¢ दो पद्य अंगीकार किए हैं। इस विवाद से निजात पाने क¢ लिए रवि बाबू ने एक लंबा पत्र लिखा जिसकी इबारत बताती है -
‘‘वंदेमातरम् गीत हमारे देश के लिए राीय गीत के रूप में गृहीत होने योग्य है या नहीं, इस बारे में अपने विचार प्रकट करते समय मुे एक बात याद आ रही है कि इस गीत के लेखक के जीवन काल में पहले-पहल सुर देने का सौभाग्य मुे प्राप्त हुआ था, और कलकत्ता में हुए कांग्रेस के एक अधिवेशन में मैने इसे गाया था, इस गीत के प्रथमांश में कोमल भावना और हमारी मातृभूमि के सौन्दर्य का जिक्र किया गया है। इन सबने मुझे बेहद प्रभावित किया था। अपने पिता के एकेश्वरवादी आदर्श में ललित-पालित होने पर भी उसके सभी अंशों के प्रति मेरी सहानुभूति है। शासकों ने हम लोगों की इच के विरुद्ध जब बंगाल का विभाजन करना चाहा था, तब उस संग्राम की स्थिति में रागीत के रूप में इसका प्रचलन हुआ था। बाद में जिन घटनाआंे में वंदेमातरम् जय ध्वनि के रूप में स्वीकार हुआ, उसमें हमारे अनेक युवकों का त्याग निहित है।’’
1948 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस गीत क¢ बाबत साफ किया था, - ‘वंदेमातरम स्पष्टता और निर्विवाद रूप से भारत का प्रमुख राष्ट्रीय गीत है। उसकी महान ऐतिहासिक परंपरा है। हमारे स्वतंत्रता संग्राम में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पर यह सब कहने क¢ पीछे जवाहर लाल नेहरू का इरादा कुछ और ही था क्योंकि संविधान सभा क¢ 319 में से 318 ऐसे सदस्य थे जिन्होंने वंदेमारतम को राष्ट्रगान स्वीकार करने पर सहमति जतायी थी। अक¢ले जवाहर लाल नेहरू यह कहकर वंदेमातरम को राष्ट्रगान की कोटि से बाहर रखने पर अड़े थे कि इससे मुसलमानों क¢ दिल को चोट पहुंचती है। लेकिन यह सवाल भी तो उठता है कि आखिर जब अंग्रेजों को वंदेमारतम से इतनी रुचि थी कि वे न क¢वल इसे गाना बंद करा देते थे बल्कि गाने वालों को जेल तक भिजवाते थे। तब रुचि किसे हो सकती है - अंग्रेजों को या मुसलमानों को। शुरुआती दौर में मुसलमानों ने भी वंदेमातरम कम नहीं गाया। यही नहीं, उसक¢ शुरू क¢ दो पद्य गाने का भी रास्ता निकाला गया। जिसमंे सचमुच बुतपरस्ती नहीं है। महात्मा गांधी भी चाहते थे कि वंदे मातरम और जनगण मन क¢ विवाद को नए गीत की स्वीकृति से हल किया जाए। इसक¢ लिए उन्होंने झंडंा गीत पर सहमति भी जताई थी। नेहरू का तर्क था कि झंडंा गीत आर्केस्टा पर नहीं बज सकता। इस विवाद को टालने का सबसे अच्छा रास्ता नेहरू ने यह निकाला कि इसे ठडंे बस्ते क¢ हवाले कर दिया। महात्मा गांधी की मौत क¢ बाद राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान का खांचा तैयार कर इस विवाद को हल करने का नेहरू ने नया फार्मूला पेश कर दिया।
Dr. Yogesh mishr

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