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भारतीयता की प्रतीक हिन्दी

Dr. Yogesh mishr
Published on: 7 Jun 1992 12:18 PM IST
देश में अंग्रेजी हटाओ के नाम पर कई बार बड़े आंदोलन खड़े किये गये हैं। परंतु जैसे-जैसे यह मानसिकता प्रचार पाती गयी, वैसे-वैसे अंग्रेजी में भाषा के स्तर से ऊपर उठकर स्टेटस सिम्बल का स्तर प्राप्त कर लिया है। वैसे भाषा के स्तर पर अंग्रेजी की खिलाफत उचित नहीं है। हां अंग्रेजी के विशेषाधिकार के उसके बोलने की मानसिकता का विरोध लाजमी है।
इसी आंदोलन के नाम पर भारत उत्तर दक्षिण खेमों में बंट गया है। भारत का एक ओर जहां पूरब-पश्चिम के आधार पर बंटवारा विश्व स्तर पर पाया। वहीं देश के स्तर पर हुआ उत्तर-दक्षिण का बंटवारा दुर्भाग्यपूर्ण है। यह बंटवारा इसलिए भी उचित नहीं है क्योंकि हमने अंग्रेजी हटाओ की बात की है। अंग्रेजी मिटाओ की नहीं। फिर भी उत्तर-दक्षिण का बंटवारा किस बात का, क्यों? क्योंकि अंग्रेजी उनकी अपनी तो है नहीं।
अंग्रेजी हटाओ हिन्दी लाओ अभियान में हिंदी लाने के पीछे हिंदी को अंग्रेजी का दर्जा दिलाने की मंशा नहीं है। उसके पीछे मंशा यही है कि पूरे देश को जोड़ने वाली भाषा कोई भारतीय भाषा ही है। अंग्रेजी नहीं। क्योंकि अंग्रेजी की कृपा से उत्तर-दक्षिण में सच्चा मेल मिलाप नहीं होगा। अंग्रेजी वैसे भी देश के आठ प्रतिशत लोगों की भाषा है।
अंग्रेजी हटाओ आंदोलन जिस स्थिति में लड़ा गया। उससे लगा कि वह भारत की मुक्ति आंदोलन का एक हिस्सा है। लेकिन उससे मुक्ति न पाने का मुख्य कारण यह रहा है कि यह एक भारतवासी द्वारा दूसरे भारतवासी के मध्य की लड़ाई थी, जिसके कारण मुक्ति नहीं मिल पायी। कुछ लोगों ने यह तर्क दिया कि यदि भारत से अंग्रेजी हट गयी तो शेष दुनिया से वह कट सा जाएगा। उन्हें शायद यह नहीं पता कि पाक, वर्मा, लंका, घाना को छोड़कर किसी भी देश में अंग्रेजी का प्रयोग नहीं होता तो क्या बाकी देश दुनिया से कट गए। हमारी मानसिकता इतनी औपनिवेशिक हो गयी है कि जापान, फ्रैंच, जर्मन आदि दुनिया के हर देश के साथ अंग्रेजी में ही व्यवहार करते हैं। जबकि विजयलक्ष्मी पण्डित रूस में राजदूत बनकर गयी थीं, तो उनके अंग्रेजी में लिखे परिचय-पत्र को इस्तालिन ने उठाकर फेंक दिया और पूछा कि क्या आपकी अपनी कोई भाषा नहीं है। इससे भी कोई सबक नहीं लिया गया और वही परम्परा आज तक जारी है।
आज भी अंग्रेजी में समूचे विश्व को देखने की प्रक्रिया हम में जारी है। हम भूलते जा रहे हैं कि दुनिया के पैमाने पर प्रसिद्ध रहने वाले दार्शनिक कांट हीगल माक्र्स अंग्रेजी से सम्बद्ध नहीं रहे हैं। गहन और शोधपरक साहित्य फ्रांसीसी व जर्मन भाषा में अधिक हैं। अंग्रेजी में काफी कम हैं।
हमें अंग्रेजी और अंग्रेजियत की नकल करने की आदत क्यों पड़ी है? जबकि हमें यह पता है कि जब अमरीका का अस्तित्व नहीं था। लंदन में कुछ नहीं था। उस समय हमारे यहां विक्रमादित्य का व्यवस्थित राज्य कायम था। चाणक्य लोगों को अर्थशास्त्र व राजनीति शास्त्र की शिक्षा दे रहा था। अंग्रेजी हमारे यहां लिंक लैंग्वेज का भी काम नहीं कर सकती। क्योंकि अंग्रेजी के आने के बहुत पूर्व अशोक व समुद्र गुप्त ने चक्रवर्ती सम्राट होकर अंग्रेजी की अनुपस्थिति में भी एक सूत्र में बांधा था।
महात्मा गांधी ने 15 अगस्त, 1947 को बीबीसी को दिये एक साक्षात्कार में कहा था कि दुनिया से कह दो कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता। इसके बाद भी हमारे समाज में एक ऐसा वर्ग बढ़ता जा रहा है जो अंग्रेजी भाषा में शिक्षा को बेहद महत्वपूर्ण मानता है। उसे नहीं पता कि विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने की पद्धति से अपार हानि होती है। मां के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच में जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने से टूट जाता है। अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में कम से कम 16 वर्ष लगते हैं जबकि मातृभाषा में उसी शिक्षा को देने में मात्र 10 वर्ष लगेंगे। हजारों विद्यार्थियों को छह-छह वर्ष बचाने का मतलब कई हजार वर्ष की संचित पूंजी एकत्रित कर लेना विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा पाने में दिमाग पर जोर पड़ता है। उसे हमारे यहां के बच्चे उठा नहीं पाते हैं, जो उठाते हैं, उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। वे सारा बोझ उठाने के लायक नहीं रह जाते हैं, जिससे हमारे अधिकतर छात्र निकम्मे, कमजोर, निरूत्साहित, रोगी और नकलची होते जाते हैं। इससे वो एक ओर नई योजनाएं नहीं बना पाते/बनाते हैं। तो दूसरी ओर उन्हें पूरा नहीं कर पाते। एक अंग्रेज ने लिखा है कि मूल लेख ओर सोख्ता कागज के अक्षरों में जो भेद हैं, वहीं भेद और यूरोप और यूरोप के बाहरी लोगों में हैं। अगर हम लोगों ने पचास वर्ष तक मातृभाषा द्वारा शिक्षा पायी होती तो हम कई और बसु और राय पैदा कर सकते थे। जापान ने मातृभाषा द्वारा जन जागृति की है। इसलिए दुनिया उसे अचरज भरी दृष्टि से देख रही है।
यदि यही स्थिति कायम रही तो लार्ड कर्जन का यह आरोप सिद्ध हो जाएगा कि शिक्षित वर्ग जन साधारण का प्रतिनिधि नहीं है। वैसे चेम्स फोर्ड के इस कथन को तो सच होते हम देख ही रहे हैं कि अंग्रेजी कुछ ही दिनों में उच्च परिवारों की भाषा बन जाएगी।
आखिर इसके बाद भी हम अंग्रेजी साम्राज्यवादी अवशेषों को क्यों ढो रहे हैं। क्यों नहीं हम ताकत जुटा पा रहे हैं कि गांधी के तर्ज पर सारे विश्व से कह सकें कि पूरे विश्व से कह दो भारत अंगेे्रजी नहीं जानता।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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