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बंधुआ मजदूर का यथार्थ
पेड़। पेड़ के सहारे ईंटों को सटाकर बनी चाहरदीवारी पर सरकडंे की कुछ खुली कुछ बंद छत। जिसमें सभी ऋतुओं के स्वागत का समभाव है। सम्पत्ति के नाम पर ईंटों का चूल्हा, टूटी, जली-काली हंडिया। पत्ते झोंककर राशन पकाने में व्यस्त महिलायें। पास पड़ा नंग-धंड़ग बच्चा। लकड़ी के टुकड़े से भात चलाती, पत्तलों में भोजन करते परिवार। काला शरीर। पीली आंखें। शरीर के रंग का स्याह होंठ। कई जगह से मुड़ी-तुड़ी कृशकाय काया। वस्तु के नाम पर महिलाएं अंग ढकने की फिराक में चुकाती जीवन। नाम सुखवासी, रातरानी, रैना। नर कंकालों का सुखवासी बोध सहित जीते जाने का दैवीय अभिशाप। चिंता करने के लिए इनके पास कुछ नहीं - न जमीन, न धन, न कोई आगे-पीछे न ही गंवाने के लिए कुछ और न ही पाने के लिए कुछ। यह है भारत के बंधुवा मजदूर का सजीव चित्र जिसे देखते ही ‘मैन विद द हो’ पुस्तक की ये लाइनें याद हो जाती है -
सदियों के बोझ से दबा-दबा वह
फावड़े पर झुका हुआ भू को निहारता
चेहरे पर झलकता सदियों का खालीपन
कमर झुकी है दुनिया के बोझ से
गुलामी का इतिहास जितना पुराना है बंधुवा मजदूर प्रथा भी उतनी ही पुरानी है। बंधुवा मजदूर के आधार पर ही भारतीय वर्ण व्यवस्था का ढांचा खड़ा किया गया 1500 ईसा पूर्व के ऐतिहासिक वर्णनों में दास स्वामी की सम्पत्ति माना जाता था। आज बंधुवा मजदूर के कलंक को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक ढांचे से अलग करके हम सोच नहीं सकते हैं। जबकि इस कलंक को दूर करने के लिए संविधान के अनुच्ेद 23 में यह व्यवस्था है कि ‘कोई भी व्यक्ति बेगार करने के लिए बाध्य नहीं होगा, किसी भी व्यक्ति से जबरिया मजदूरी नहीं ली जा सकेगी, इस बात का अधिकार मौलिक अधिकारों के तहत देश के नागरिकों को प्रदान किया गया है।’ फिर भी इन अधिकारों से काम न चल पाने के कारण अनुच्छेद 23 के प्रावधानों के संदर्भ में 1976 में पहली बार अध्यादेश जारी किया गया और 1976 में ही इस संदर्भ में एक कानून - ‘बंधुवा मुक्ति अधिनियम-1976 बना।’ यह कानून आपातकाल में बनाया गया ?
आपातकाल में ही श्रीमती गांधी ने घोषणा की कि 1,33,718 बंधुवा मजदूर हमारे देश में हैं जिसमें 1,20,606 को चिन्हित कर मुक्त करा लिया गया है एवं पुर्नवासित भी कर दिया गया है। जबकि आपातकाल के बाद के आंकड़े बताते हैं कि 1978, 1981, 1984 व 1985 क्रमशः 1,18,844, 1,33,553, 1,73,814 एवं 1,94,263 बंधुवा मजदूरों को आजाद कराया गया। अगर सरकारी घोषणा पर विश्वास करें तो यह विश्वास करना पड़ेगा कि आपातकाल के बाद बंधुवा मजदूर प्रजाति समाप्त ही हो जानी चाहिए।
लेकिन ऐसा हो नहीं पाया जनता पार्टी के शासन में गांधी के नाम को खूब भुनाया गया। अन्त्योदय की बात खूब चली पर बंधुवा मजदूर की स्थिति संविधान के अनुच्छेद 23 जैसी ही रह गयी। गांधी का अन्तिम व्यक्ति अन्तिम ही गया उसकी कोई लाई आरम्भ होने से पहले ही समाप्त हो गयी। यह भी उल्लेखनीय है कि देश की टेªड यूनियनों ने बंधुवा मजदूरों पर आज तक कोई बात नहीं उठाई है, उन्हें फुर्सत नहीं है राजनैतिक पार्टियों के इशारे पर काम करने के अलावा। भारत दुनिया का इकलौता देश है जहां राजनैतिक पार्टियां टेªड यूनियन चलाती हैं। इस कारण जो भी बुराइयां राजनैतिक पार्टियों में होती हैं वो सारी की सारी टेªड यूनियनों में समा गयीं। बाकी देशों में टेªड यूनियन राजनीितक पार्टियां नहीं चलाती है।
इसलिए आज बधुंआ मजदूरों का सवाल उठाना इस व्यवस्था क¢ बड़े लोगों को चुनौती स्वीकार कराने जैसा ही है। यही कारण है कि आज तक भारत क¢ श्रम विभागों में बधुंवा मजदूर पुनर्वास क¢ नाम पर योजनाएं भले चली हों परंतु इसक¢ कोई परिणाम नहीं आए हैं। जो आए वह भी इंदिरा गांधी क¢ आपातकाल क¢ परिणाम सरीखे ही रहे।
माक्र्स कहता है कि श्रम का शोषण ही पूंजी सकेन्द्रण का एक मात्र आधार है जो एकदम सच है भले ही माक्र्सवाद फेल हो जाए। भले ही साम्यवादी किले पंूजीवाद फतह कर लें परन्तु सच सच है। रहेगा। बंधुआ मजदूरी के लिए आर्थिक शोषण के साथ-साथ धार्मिक शोषण भी जिम्मेदार है। धर्म के नाम पर इन मजदूरों को बताया जाता है कि तुम जो भी भोग रहे हो वह संचित कर्म का परिणाम है और मालिक को क्रियमाण कर्म मिल रहा है। यानि कहीं ‘कर्म का भोग, कहीं भोग का कर्म’ जैसा उदाहरण देकर उन्हें भाग्यवादी बना दिया जाता है।
हमारे यहां बंधुआ मजदूरों की स्थिति काले अफ्रीकियों से बेहतर तो नहीं ही है। भले ही कागज पर अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ कानून उतने सख्त न हों जितने हमारे यहां बंधुआ मजदूरों के खिलाफ हैं। वैसे दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाय तो पता चलता है कि दो करोड़ अफ्रीकियों के साथ हो रहे अन्याय के विरोध में पूरा विश्व है जबकि इससे ज्यादे संख्या में हमारे दलित व बंधुआ मजदूरों के खिलाफ देश में कोई आक्रोश नहीं है? और सरकारी तौर पर बंधुआ मजदूर न होने की घोषणा बढ़-चढ़ कर करने में सारे राज्य जुटे हैं। मध्य प्रदेश की दिवारे तो एक जमाने में इन स्लोइगन से पटी थीं कि ‘एक बंधुआ मजदूर लाओ, 25 रुपये इनाम पाओ।’ महाराष्ट्र के श्रम मंत्री ने तो एक साक्षात्कार में यहां तक कहा कि यदि महाराष्ट्र में किसी बीमार व्यक्ति को डाक्टर यह बताये कि बंधुआ मजदूर को देखकर आपका रोग ठीक हो जायेगा, तो शायद उसका इलाज महाराष्ट्र से बाहर कराना पड़े। बिहार ने भी स्वयं को बंधुआ मजदूर मुक्त घोषित कर दिया था। इन सच्चाइयों को अगर गम्भीरता से देखा जाए तो पता चलता है बिहार का पलामू देश का सबसे अधिक बंधुआ मजदूर वाला क्षेत्र है। दूसरे नम्बर पर मध्य प्रदेश का बस्तर।
फिर भी इन सरकारी घोषणाओं पर सरकार व नौकरशाह लज्जा तक महसूस नहीं करते? बस्तर और पलामू के बंधुआ मजदूर अस्तित्वहीन है, सभ्यता से निष्कासित और पशुओं से बदतर इनका जीवन स्तर है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.एन. भगवती ने भी संविधान के अनुच्छेद 23 की निष्क्रियता व अदक्षता को स्वीकार करते हुये इस कानून को बंधुआ मजदूर उन्मूलन के लिए अपर्याप्त कहा है।
बंधुआ आदिवासी आज भी यह गाते हुए मिल जायेंगे कि -
जागो तरेती अंधारा हो जांऊ,
जागो तरेती अंधारा में आंऊ,
म्हारो आखी उमर में अंधारूझ,
अंधारूझ है, उजारू कर कोनो है।
भावार्थ
उठकर अंधेरे में जाता हूँ,
अंधेरे में लौटकर आता हूँ।
मेरे पूरे जीवन में अंधेरा है,
अंधेरा है, उजाला कहीं नहीं है।
आदिवासी बंधुआ मजदूरों ने अपनी स्थिति व्यक्त करने क¢ लिए यह कुबूल कर लिया है कि
कोज्जा कि मालगू बाहिलू
आमेंतो पंकोनी लेदू
पिल्लू पुरू।
यानि
हिजड़े को चार बीबी
ना उनक¢ साथ सोना
न बच्चे पैदा करना।
यह देश का दुर्भाग्य ही है कि श्रमिक आन्दोलन में संलग्न लोगांे के लिए बंधुआ मजदूर उन्मूलन एक सामाजिक सेवा का विषय है। सामाजिक सेवा के लिए स्वयं सेवी संगठनों को आगे आना चाहिए लेकिन श्रमिक आन्दोलन को प्रणेताओं को संगठित श्रम आन्दोलन ही चलाने चाहिए ? जब तक श्रम आन्दोलन इनके साथ नहीं जुड़ेगा, श्रम का इस तरह वर्गीकरण होता रहेगा तब तक इनका उद्धार सम्भव नहीं है। इनके लिये रविन्द्र नाथ टैगोर की ‘की और कोमल’ कविता का अनुसरण करना होगा जिसमें उल्लिखित है कि -
‘इन मूढ़ म्लान और मूक-मुखी लोगों को,
हमें सिखाती है स्वाभिमान की भाषा,
इनके निस्तब्ध शुष्क टूटे अन्तर में,
संचालित करनी है नूतन आशा।’
सदियों के बोझ से दबा-दबा वह
फावड़े पर झुका हुआ भू को निहारता
चेहरे पर झलकता सदियों का खालीपन
कमर झुकी है दुनिया के बोझ से
गुलामी का इतिहास जितना पुराना है बंधुवा मजदूर प्रथा भी उतनी ही पुरानी है। बंधुवा मजदूर के आधार पर ही भारतीय वर्ण व्यवस्था का ढांचा खड़ा किया गया 1500 ईसा पूर्व के ऐतिहासिक वर्णनों में दास स्वामी की सम्पत्ति माना जाता था। आज बंधुवा मजदूर के कलंक को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक ढांचे से अलग करके हम सोच नहीं सकते हैं। जबकि इस कलंक को दूर करने के लिए संविधान के अनुच्ेद 23 में यह व्यवस्था है कि ‘कोई भी व्यक्ति बेगार करने के लिए बाध्य नहीं होगा, किसी भी व्यक्ति से जबरिया मजदूरी नहीं ली जा सकेगी, इस बात का अधिकार मौलिक अधिकारों के तहत देश के नागरिकों को प्रदान किया गया है।’ फिर भी इन अधिकारों से काम न चल पाने के कारण अनुच्छेद 23 के प्रावधानों के संदर्भ में 1976 में पहली बार अध्यादेश जारी किया गया और 1976 में ही इस संदर्भ में एक कानून - ‘बंधुवा मुक्ति अधिनियम-1976 बना।’ यह कानून आपातकाल में बनाया गया ?
आपातकाल में ही श्रीमती गांधी ने घोषणा की कि 1,33,718 बंधुवा मजदूर हमारे देश में हैं जिसमें 1,20,606 को चिन्हित कर मुक्त करा लिया गया है एवं पुर्नवासित भी कर दिया गया है। जबकि आपातकाल के बाद के आंकड़े बताते हैं कि 1978, 1981, 1984 व 1985 क्रमशः 1,18,844, 1,33,553, 1,73,814 एवं 1,94,263 बंधुवा मजदूरों को आजाद कराया गया। अगर सरकारी घोषणा पर विश्वास करें तो यह विश्वास करना पड़ेगा कि आपातकाल के बाद बंधुवा मजदूर प्रजाति समाप्त ही हो जानी चाहिए।
लेकिन ऐसा हो नहीं पाया जनता पार्टी के शासन में गांधी के नाम को खूब भुनाया गया। अन्त्योदय की बात खूब चली पर बंधुवा मजदूर की स्थिति संविधान के अनुच्छेद 23 जैसी ही रह गयी। गांधी का अन्तिम व्यक्ति अन्तिम ही गया उसकी कोई लाई आरम्भ होने से पहले ही समाप्त हो गयी। यह भी उल्लेखनीय है कि देश की टेªड यूनियनों ने बंधुवा मजदूरों पर आज तक कोई बात नहीं उठाई है, उन्हें फुर्सत नहीं है राजनैतिक पार्टियों के इशारे पर काम करने के अलावा। भारत दुनिया का इकलौता देश है जहां राजनैतिक पार्टियां टेªड यूनियन चलाती हैं। इस कारण जो भी बुराइयां राजनैतिक पार्टियों में होती हैं वो सारी की सारी टेªड यूनियनों में समा गयीं। बाकी देशों में टेªड यूनियन राजनीितक पार्टियां नहीं चलाती है।
इसलिए आज बधुंआ मजदूरों का सवाल उठाना इस व्यवस्था क¢ बड़े लोगों को चुनौती स्वीकार कराने जैसा ही है। यही कारण है कि आज तक भारत क¢ श्रम विभागों में बधुंवा मजदूर पुनर्वास क¢ नाम पर योजनाएं भले चली हों परंतु इसक¢ कोई परिणाम नहीं आए हैं। जो आए वह भी इंदिरा गांधी क¢ आपातकाल क¢ परिणाम सरीखे ही रहे।
माक्र्स कहता है कि श्रम का शोषण ही पूंजी सकेन्द्रण का एक मात्र आधार है जो एकदम सच है भले ही माक्र्सवाद फेल हो जाए। भले ही साम्यवादी किले पंूजीवाद फतह कर लें परन्तु सच सच है। रहेगा। बंधुआ मजदूरी के लिए आर्थिक शोषण के साथ-साथ धार्मिक शोषण भी जिम्मेदार है। धर्म के नाम पर इन मजदूरों को बताया जाता है कि तुम जो भी भोग रहे हो वह संचित कर्म का परिणाम है और मालिक को क्रियमाण कर्म मिल रहा है। यानि कहीं ‘कर्म का भोग, कहीं भोग का कर्म’ जैसा उदाहरण देकर उन्हें भाग्यवादी बना दिया जाता है।
हमारे यहां बंधुआ मजदूरों की स्थिति काले अफ्रीकियों से बेहतर तो नहीं ही है। भले ही कागज पर अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ कानून उतने सख्त न हों जितने हमारे यहां बंधुआ मजदूरों के खिलाफ हैं। वैसे दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाय तो पता चलता है कि दो करोड़ अफ्रीकियों के साथ हो रहे अन्याय के विरोध में पूरा विश्व है जबकि इससे ज्यादे संख्या में हमारे दलित व बंधुआ मजदूरों के खिलाफ देश में कोई आक्रोश नहीं है? और सरकारी तौर पर बंधुआ मजदूर न होने की घोषणा बढ़-चढ़ कर करने में सारे राज्य जुटे हैं। मध्य प्रदेश की दिवारे तो एक जमाने में इन स्लोइगन से पटी थीं कि ‘एक बंधुआ मजदूर लाओ, 25 रुपये इनाम पाओ।’ महाराष्ट्र के श्रम मंत्री ने तो एक साक्षात्कार में यहां तक कहा कि यदि महाराष्ट्र में किसी बीमार व्यक्ति को डाक्टर यह बताये कि बंधुआ मजदूर को देखकर आपका रोग ठीक हो जायेगा, तो शायद उसका इलाज महाराष्ट्र से बाहर कराना पड़े। बिहार ने भी स्वयं को बंधुआ मजदूर मुक्त घोषित कर दिया था। इन सच्चाइयों को अगर गम्भीरता से देखा जाए तो पता चलता है बिहार का पलामू देश का सबसे अधिक बंधुआ मजदूर वाला क्षेत्र है। दूसरे नम्बर पर मध्य प्रदेश का बस्तर।
फिर भी इन सरकारी घोषणाओं पर सरकार व नौकरशाह लज्जा तक महसूस नहीं करते? बस्तर और पलामू के बंधुआ मजदूर अस्तित्वहीन है, सभ्यता से निष्कासित और पशुओं से बदतर इनका जीवन स्तर है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.एन. भगवती ने भी संविधान के अनुच्छेद 23 की निष्क्रियता व अदक्षता को स्वीकार करते हुये इस कानून को बंधुआ मजदूर उन्मूलन के लिए अपर्याप्त कहा है।
बंधुआ आदिवासी आज भी यह गाते हुए मिल जायेंगे कि -
जागो तरेती अंधारा हो जांऊ,
जागो तरेती अंधारा में आंऊ,
म्हारो आखी उमर में अंधारूझ,
अंधारूझ है, उजारू कर कोनो है।
भावार्थ
उठकर अंधेरे में जाता हूँ,
अंधेरे में लौटकर आता हूँ।
मेरे पूरे जीवन में अंधेरा है,
अंधेरा है, उजाला कहीं नहीं है।
आदिवासी बंधुआ मजदूरों ने अपनी स्थिति व्यक्त करने क¢ लिए यह कुबूल कर लिया है कि
कोज्जा कि मालगू बाहिलू
आमेंतो पंकोनी लेदू
पिल्लू पुरू।
यानि
हिजड़े को चार बीबी
ना उनक¢ साथ सोना
न बच्चे पैदा करना।
यह देश का दुर्भाग्य ही है कि श्रमिक आन्दोलन में संलग्न लोगांे के लिए बंधुआ मजदूर उन्मूलन एक सामाजिक सेवा का विषय है। सामाजिक सेवा के लिए स्वयं सेवी संगठनों को आगे आना चाहिए लेकिन श्रमिक आन्दोलन को प्रणेताओं को संगठित श्रम आन्दोलन ही चलाने चाहिए ? जब तक श्रम आन्दोलन इनके साथ नहीं जुड़ेगा, श्रम का इस तरह वर्गीकरण होता रहेगा तब तक इनका उद्धार सम्भव नहीं है। इनके लिये रविन्द्र नाथ टैगोर की ‘की और कोमल’ कविता का अनुसरण करना होगा जिसमें उल्लिखित है कि -
‘इन मूढ़ म्लान और मूक-मुखी लोगों को,
हमें सिखाती है स्वाभिमान की भाषा,
इनके निस्तब्ध शुष्क टूटे अन्तर में,
संचालित करनी है नूतन आशा।’
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