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शिक्षा प्रणाली की विसंगतियां और निवारण का असफल प्रयास!

Dr. Yogesh mishr
Published on: 3 July 1992 12:21 PM IST
हमारे औपनिवेशिक मस्तिष्क के दृष्टांत के रूप में लार्ड मैकाले की शिक्षा प)ति आज भी हमारे सामाजिक, आर्थिक संरचना हेतु सतत रूप से विघटनकारी स्थितियां उत्पन्न करती जा रही हैं और हम निष्चेष्ट पड़े इससे उत्पन्न सामाजिक, आर्थिक एवं संस्कृृतिगत विशेषताओं/विषमताओं को विधि की विडम्बना या प्रकृति का उपहार मानकर स्वीकार किये बैठे हैं। हमारे राष्ट्र निर्माताओं को शायद यह बात समझ में नहीं आयी। अंग्रेजी शिक्षा से फले-फूले और गुलाम मानसिकता से ग्रस्त हमारे नीति निर्धारक सत्ता हस्तान्तरण के पक्ष में तो थे पर सत्ता की प्रकृति के परिवर्तन के पक्ष में नहीं। फलतः देश की अधिकांश जनसंख्या स्वतंत्रता के बाद भी गुलाम बनी रही। यों तो भारत सरकार ने शिक्षा की चुनौती सम्बन्धी नीति परिप्रेक्ष्य में यह स्वीकार किया है कि सबसे पहला और सबसे अधिक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि संगठन, साधन और नीति सम्बन्धी रूपरेखा कैसी भी क्यों न हो, शिक्षा में सफल और असफल होने का अंतिम निर्णायक तत्व होता है। समाज की उसके प्रति कटिब)ता और इसके क्रियान्वयन की प्रक्रिया में भाग लेने वालों का लक्ष्य केन्द्रित होना और उसकी पूर्ण निष्ठा का होना एवं आज के हालात में शिक्षा की मुख्य भूमिका यह है  मज ड गतिहीन समाज में विकास और परिवर्तन लाने की दृष्टि से उसे जीवंत बनाए।
इस स्वीकारोक्ति के उपरान्त भी डाॅ. गांगुली के प्रबन्ध आधुनिकता व विकास में लिखी बातें काफी सच ठहरती हैं। दक्षिण एशियाई देशों में भारत और पाकिस्तान ही दो ऐसे देश रहे हैं, जो एक सार्थक शिक्षा नीति के निर्धारण में पूर्णतया असफल रहे हैं।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य-ऐसा नहीं कि हमारी शिक्षा नीति प्रणाली विवाद की प्रक्रिया में नहीं रही और आयोग की परम्परा का निर्वाह इसके साथ नहीं हुआ। वस्तुतः 1857 में विद्रोह के उपरांत भारत का शासन साम्राज्ञी के द्वारा संचालित होने लगा और अंग्रेजों ने स्वयं को स्थापित करने की प्रक्रिया में सर्वाधिक उचित यही समझा कि विद्यमान शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन किया जाय। अतः 1889 में डब्लू.डब्लू. हंटर की अध्यक्षता में लार्ड रिपन के शासनकाल में एक शिक्षा आयोग गठित किया गया, जिसका कार्यालय लाहौर में था। इस शिक्षा आयोग ने देश की शिक्षा प)ति का खूब अध्ययन किया और शिक्षाविदों को सुझाव हेतु आमंत्रित किया। आमंत्रितों में भारतेन्द्र हरिश्चन्द्र, सर सैय्यद अहमद खां व राजा शिव प्रसाद प्रमुख थे। इन्हीं भारतीयों ने अंग्रेजों के साथ मिलकर विद्यमान शिक्षा प)ति को परिवर्तित कर अंग्रेजों के अनुकूल बनाने में सहायता दी। अंततः 1935 में लार्ड मैकाले ने वर्तमान शिक्षा प)ति को लागू किया। लार्ड मैकाले ने वर्तमान शिक्षा प)ति को तय करते समय अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था  मज ड प)ति का उद्देश्य मात्र बाबू (क्लर्क) पैदा करना है। मैकाले की सोच यह भी थी कि शिक्षित लोग थोपी गयी व्यवस्था ज्यादा दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर सकते। अतः सत्ता का सुख भोगने के लिए लोगों को निकम्मा, जाहिल बनाने हेतु एक नई शिक्षा प्रणाली, जो अपने अनुकूल है, को निर्मित करना है। यही तक नहीं मैकाले ने अपने विवरण पत्र में लिखा था, ‘हमें भारत में एक ऐसा वर्ग बनाना है, जो रक्त एवं वर्ग में भारतीय किन्तु रूचियों, विचारों, नैतिक, आदर्शों व बु)ि में अंग्रेज हो।’
इसके उपरान्त भी हमारे शिक्षाविदों ने 1947 में अंग्रेजी मिलने के उपरान्त 1968 तक उसी शिक्षा प)ति को स्वीकृति प्रदान किये रहे। स्वतंत्र भारत में सर्वप्रथम 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्धारण हेतु डाॅ0 डीसी कोठारी की अध्यक्षता में एक शिक्षा आयोग का गठन किया गया। इसने जिन नीतियों पर जोर दिया वे थीं-
14 वर्ष तक मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा।
शिक्षकों के पारिश्रमिक एवं स्तर मंे सुधार।
त्रिभाषा एवं क्षेत्रीय भाषा का विकास।
शिक्षा का कृषि एवं उद्योगांे हेतु विकास।
राष्ट्रीय आय का छह  प्रतिशत शिक्षा पर व्यय हो।
सस्ती पुस्तक के गुण व उत्पादन में सुधार।
विज्ञान व शोध की शिक्षा स्तर बराबर हो।
इसी समय सेन्ट्रल एडवाइजरी बोर्ड आॅफ एजूकेशन ने एक प्रस्ताव पास किया और 10$2$3 का नया पैटर्न संपूर्ण भारत में पांचवीं योजना काल में लागू किया।
1975 में कुलपतियों की संगोष्ठी में यह निर्णय लिया गया कि 10$2 पूर्व विश्वविद्यालय कोर्स होगा व पहली बार त्रिवर्षीय डिग्री कोर्स 1979-80 के शैक्षणिक सत्र से लागू किया जाएगा।
1972 में श्रीमन् नारायण जी के प्रयास से सेवाग्राम में भारत के पूर्व शिक्षा मंत्री नई तालीम के नेताओं एवं भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा के विचारकों की एक बैठक हुई और पहली बार भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के लिए सेवाग्राम राष्ट्रीय शिक्षा का सम्यक् व आधारभूत मंतव्य तैयार हुआ।
1972 में ही महर्षि विनोबा भावे ने वर्तमान शिक्षा प)ति को खराब से खराब और बुरी से बुरी शिक्षा प्रणाली बताया और इन्होंने कहा कि इसके बाद भी हम लोग इसे छोड़ने को तैयार नहीं हैं। यहीं तक नहीं 20 अक्टूबर, 1931 को गोलमेज सम्मेलन में गांधी जी ने शिक्षा का जिक्र करते हुए अपने भाषण में कहा कि आज हिंदुस्तान अब से 50 या 100 साल की तुलना में कहीं ज्यादा निरक्षर है।
इनके साथ-साथ हमारी शिक्षा प्रणाली में पाठ्यक्रम शिक्षक, माध्यम, अभिभावक सम्बन्धी जो भी विषमताएं हैं, वह भी दृष्टव्य हैं।
पाठ्यक्रम विसंगतियां- किसी भी देश का विकास अनिवार्यतः शिक्षा प्रणाली से जुड़ा रहता है। एक लंबे समय की गुलामी से छूटे देश हेतु यह और भी अनिवार्य हो जाता है। लेकिन हम आज भी लक्ष्य से काफी दूर हैं। हमने कागजी घोड़े दौड़ाए। शिक्षा को प्राथमिकता दी परंतु परिवर्तन के नाम पर यही हो सका कि हम दोहरी शिक्षा नीति के पोषक बने रहे। इसमें सर्वाधिक सौतेला व्यवहार हमने प्राथमिक शिक्षा के नाम पर किया और गरीब छात्रों को पुस्तक में एक ऐसी अपरिचित दुनिया दे डाली, जिसमें ‘म’ का मतलब ‘मां’ नहीं मकान होता है। ‘ज’ का मतलब जमाखोर नहीं ‘जहाज’ होता है। ‘फ’ का मतलब फसल नहीं वरन ‘फर्नीचर’ होता है। आगे के पाठ्यक्रम भी दिमाग को जड़ करने वाले होते हैं। सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूकता पैदा करने वाले नहीं। फिर इस शिक्षा व्यवस्था में आत्म निर्भरता की बात कैसे सोच सकते हैं।
पाठ्यक्रम की विभिन्नता न मात्र विभिन्न राज्यों में वरन् एक ही स्थान के कई विभिन्न स्कूलों में भी एक ही कक्षा के कई अलग-अलग पाठ्यक्रम होते हैं, जो पुस्तक व्यवसायियों के आग्रह पर सरलतापूर्वक बदल दिए जाते हैं।
पूरे राष्ट्र में समान शिक्षा नहीं लागू हैं, न ही पाठ्यक्रम के निर्धारण में आधरभूत एकरूपता। ये सि)ांत साफ-साफ यह सोचकर नहीं बने हैं कि नए समाज, नई संस्कृति, नई कार्य व्यवस्था एवं इन सबके भीतर भारतीय जनता के लिए नए भविष्य के निर्माण की प्रक्रिया में हमारे छात्रों की भूमिका क्या होगी? हमारे शिक्षाविद् सफेद हाथी हैं। सुंदर, सुंदर नाम, सुंदर, सुंदर डिग्रियां जो भारतीय विकास में पूर्णतया अदक्ष हैं। तभी तो इनके द्वारा चलायी जाने वाली स्कूली पुस्तकों में हम पाते हैं कि कहीं भी श्रम का महत्व मनुष्य की महत्ता सहिष्णुता की भावना आदि तथ्यों पर प्रकाश नहीं डाला जाता। साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद आदि संकुचित मनोवैज्ञानिकों का कहीं भी पर्दाफाश नहीं किया जाता। हो सकता है कि दो-चार वाक्य कहीं मिल जाएं। परंतु उनका कोई अपना अस्तित्व इतने विशाल, विस्तृत पाठ्यक्रम में नहीं होता। इसके स्थान पर इन पाठ्यक्रमों में हम पाते हैं कि किस प्रकार परी ने कुर्सी छू दी और वह बड़ी सी गाड़ी हो गयी ए मज ड  तरह एक बड़ा आदमी पैसे वाला हो गया। या फिर छात्र को किन्नर नरेश की कल्पनाों में सुला दिया जाता है। अतः प्रारंभ से ही बालक के मन में अमीर-गरीब व ऊंच-नींच की भावना एवं सामंती पूंजीवाद, मूल्यों को बैठाया जाता है। व्यक्ति के स्थान पर धन की महत्ता स्थापित की जाती है। छात्रों के मस्तिष्क में एक पूर्ण निर्धारित सत्य को ठूंसा जाता है। चेतना का मशीनी जड़ एवं प्राकृति दृष्टिकोण व्यक्ति को महज रिसीवर के रूप में स्वीकारता है। यह छात्र के चिंतन ए मज डयाकलापों को नियंत्रित करने का पूरा प्रयास करता है। व्यक्ति को व्यवस्थागत मूल्यों में ढालने का प्रयास करता है एवं छात्र की संरचनात्मक क्षमता को कुंठित कर देता है। आज का छात्र देखता है कि शिक्षा के सामंती प)ति के कारण वह बदलते हुए समाज में स्वयं को खड़ा नहीं कर पाता। फलतः न केवल आर्थिक वरन् सांस्कृतिक स्तर पर भी वह दिशाहारा हो जाता है। पारिवारिक एवं सामाजिक दबावों के कारण उसे शिक्षालय में जाना पड़ता है। पर अपनी बेंच पर बैठकर वह अपने क्लास शिक्षक का सिर्फ मुंह देखता है। उसके सामने होता है श्यामपट और उतना ही अंधकारपूर्ण भविष्य, जिस पर कुछ सफेद लकीरें खींचती एवं मिटती हैं।
उच्च शिक्षा की विसंगतियां-उच्च शिक्षा में मोटे तौर पर तीन क्षेत्रों को लिया जा सकता है-
1-चिकित्सा
2-अभियांत्रिकी
3-गैर विज्ञान
चिकित्सा के क्षेत्र में हम विशेषतः एलोपैथी को ही तरजीह देते रहे हैं। जनता शासनकाल में आयुर्वेद एवं होम्योपैथी पर आधारित डिग्रियों को एलोपैथी के बराबर मान्यता दी गयी। आज देश में कुल 110 मेडिकल कालेज, इतने ही होम्योपैथिक कालेज, 90 आयुर्वेदिक एवं 15 यूनानी कालेज चिकित्सा के क्षेत्र में योगदान दे रहे हैं। मेडिकल कालेज में सामान्यतः प्रवेश हेतु एक लिखित परीक्षा ली जाती हैं लेकिन कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों में प्रवेश को धन देकर क्रय किया जाता है। हमारे पास जहां विश्व स्तर की तकनीकी शिक्षा प्रदान करने वाले पांच आईआईटी हैं। वहीं 200 इंजीनियरिंग कालेज एवं 515 पाॅलीटेक्निक हैं। 140 विश्वविद्यालय एवं 5246 महाविद्यालय उच्च शिक्षा देने का कार्य कर रहे हैं।
परंतु आज भी हमारे देश में एक प्रतिशत से भी कम लोग स्नातक स्तर की शिक्षा प्राप्त हैं। 1871-82 में भारतीय शिक्षा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली बदली जाय। यहीं तक नहीं, भारतीय विश्वविद्यालय आयोग और 1919 में कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग और 1950 में राधाकृष्णनन आयोग ने भी परीक्षा प्रणाली में कमियां गिनाई थीं। लेकिन इतने लंबे समय से न तो परीक्षाओं में फैले दोषों को दूर किया गया और न ही इस प्रणाली को देशी विकल्प ही सुझाए गए। हमारी उच्च शिक्षा का एक और दोष है। कक्षा कार्य का आधारित न होना। इतने के बाद भी भारत सरकार का वर्तमान शिक्षा की चुनौती नामक परिपत्र में भारत सरकार ने उच्च शिक्षा की विसंगतियों पर अपना मौन साध लिया है। हां, इसके पृष्ठ-53 पर मात्र इतना ही कहा गया कि हमारे तकनीकी विशिष्टता के प्रतीक आईआईटी अंतराष्ट्रीय स्तर के मेधावी युवा प्रशिक्षित करते हैं और प्रतिभा पलायन को बढ़ावा देते हैं। प्रश्न यह उठता है कि इन सभी विश्वविद्यालयों के बाद भी  मज ड  शिक्षा के स्वास्थ्य को खराब होने से रोक नहीं पाए। जहां तक डिग्री और नौकरी के सम्बन्ध को जोड़ने की बात है। खाली हाथों को काम चाहिए। भले ही हाथों में डिग्री हो या न हो। दूसरे रोजगारोन्मुख संस्थाएं खोलने की सीमाएं हैं। आखिर सभी महाविद्यालय को आईआईटी एवं कढ़ाई-बुनाई केन्द्रों में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। यह बात भी देखने की है कि हमारे रोजगारोन्मुख संस्थाओं से प्रशिक्षित लोगों में से कितने ऐसे हैं, जो रोजगार के अवसर तलाशने के बजाय स्वयं ही छोटा-मोटा उद्योग डाल लेते हैं। ऐसी स्थिति में डिग्रीधारी होने से क्या फर्क पड़ेगा?
अतः हमें सर्वप्रथम उच्च शिक्षा में आई विसंगतियांे को कम करना होगा और ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों को राष्ट्र
निर्माण में खपा सकें।
शिक्षा माध्यम की विसंगतियां-विदेशी भाषा का शिक्षा का माध्यम होना व समाज कें विभिन्न स्तरीय शिक्षा व्यवस्था का साथ-साथ चलना भी सामाजिक वर्गीकरण को बढ़ावा दे रहा है। भारतीय भाषाओं का विकास न करने और उन्हें कमजोर कहकर अंग्रेजी को शिक्षा का विशेष रूप से उच्च शिक्षा का माध्यम बनाना उसी विशिष्ट वर्गीय प्रवृत्ति को आगे बढ़ाना है, जिसके अंतर्गत संस्कृति हमारी शिक्षा का कुछ समय तक माध्यम बनी रही। कान्वेंट स्कूल की परपम्परा भी सांस्कृतिक अलगाव को बढ़ाती जा रही है। अपने देश में शिक्षा के मौजूदा ढांचा ने सबसे बड़ा नुकसान यही किया है कि परम्परा एवं आधुनिकीकरण के बीच में एक चैड़ी दरार पैदा कर दी है। एक ओर यह हिंदू मुसलमानांे को अलग करती है। दूसरी ओर अमीर-गरीब एवं शहर-देहात को भौगोलिक क्षेत्रों के मध्य भी अलगाव पैदा करती है एवं आधुनिकता के मिथक से ग्रस्त है। न मात्र विदेशी वरन् कई भारतीय शिक्षाविदों ने परम्परा को भारत के विकास में बाधक माना है व आधुनिकता का अर्थ सीधे-सीधे पश्चिमीकरण से लगाया है। जबकि परम्परा स्वयं में विकास में बाधक नहीं होती। वह तो विकास में तभी बाधक होती है जब उसका संस्थायीकरण कर दिया जाता है तो क्या अभी भी हमंे यह मानते रहना चाहिए कि संस्था की परम्परा स्वयं में विकास में बाधक है। आधुनिकता पुराने सभी मूल्यों का विनाश नहीं करती। आधुनिकता जब परम्परा से संबंध तोड़ देती है तो वह अराजक बन जाती है। जहां कोई भी महत्वपूर्ण आचरण संभव नहीं है। परम्परा एवं आधुनिकता में संघर्ष भी वर्तमान शिक्षा प)ति की उपलब्धि है। डाॅ. गांगुली ने अपने प्रबंध परम्परा आधुनिकता व विकास में लिखा है कि एक आधुनिक व्यक्ति परम्पराविहीन व्यक्ति नहीं हो सकता। बल्कि श्रेष्ठ परम्पराओं वाला व्यक्ति होता है।
इस तरह वर्तमान शिक्षा व्यवस्था, दिशा हीनता, दिशाहारा व बेरोजगार ही नहीं बनाती वरन हमें गलत धारणाएं पैदा कर हमें दिग्भ्रमित करने का प्रयास भी करती है। यथा परम्पराएं विकास में बाधक हैं।
आजादी के 38 वर्षों बाद आज तक यह नहीं तय हो पाया कि शिक्षा का माध्यम क्या हो? कुछ लोगों का मानना है कि इसके लिए अंग्रेजी एक आदर्श भाषा है जबकि कुछ अन्य लोग हिंदी को अपनाना चाहते हैं। अब तो यह भी आशंका उभरने लगी है कि यदि कहीं क्षेत्रीय भाषाएं माध्यम बना दी गईं तो एक प्रांत के छात्र का दूसरे प्रांत में क्या होगा?
अभिभावक विसंगतियां- आज का अभिभावक गिरती शिक्षा दशा हेतु शिक्षक को दोष देता है और परीक्षा करीब आने पर शिक्षक के पास दौड़ता है। अक्सर अभिभावक शिक्षकों से कहते हैं कि लड़के को किसी भी तरह पास करवा दो। अभिभावक वर्ष भर यह चिंता नहीं करता कि उसका लड़का विद्यालय में कैसी और क्या शिक्षा प्राप्त कर रहा है? अंत में वह नकल करवाने, परीक्षाकाल में विद्यालय की चहारदीवारी के करीब मंडराता ही नहीं, कापियों तक का पीछा करता है और वही अभिभावक वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अमूल-चूल परिवर्तन की बात करते हुए ही वर्तमान प)ति को अयोग्य ठहराता है।
शिक्षक, आजादी के आते ही कालेज में पढ़ना और डिग्री हासिल करना इतनी जबर्दस्त सामाजिक आवश्यकता सी हो गयी कि देश का कस्बा-कस्बा अपने यहां कालेज खोलने हेतु सरकार पर दबाव डालने लगा। फलतः जो भर्तियां हुईं, उनमें निहायत कच्चे माल से लेकर निहायत पके और सड़े-गले माल तक का क्या कुछ नहीं ठूंसा गया। पांच हजार कालेजों में जो तीन लाख प्राध्यापक उत्तम वेतन क्रम में नियुक्त हुए, उनमें से डेढ़, दो लाख ऐसे थे जो अपने परिवार के इतिहास में सबसे पहले पढ़े-लिखे थे। साथ  मज ढ़ा भी ऐसे जगह के कालेजों में रहे थे, जहां एक अखबार भी नहीं पहुंचता था। फिर वहां पुस्तकालय, प्रयोगशाला ए मज डद्यार्थी कैसे रहे होंगे? फिर भी विश्वविद्यालय उनकी परीक्षाएं लेते रहे और उन्हें डिग्रियां बांटते रहे। पिछले 49 वर्ष में पैदा हुई हमारी यही शिक्षित पीढ़ी अब हमें युवा स्वभाव व कालेज शिक्षा नीति पर फिर से विचारने पर मजबूर कर रही है। अध्यापक का वेतन आठ गुना बढ़ा है। परंतु सम्मान सोलह गुना घटा है।
साथ ही यह भी मानकर चलना होगा कि कालेज अथवा विश्वविद्यालय का शिक्षक भी हमारी व्यवस्था का अंग है। और उसे भी उन्हीं चीजों की आवश्यकता पड़ती है जो किसी इंजीनियर/डाक्टर/प्रबन्धक या किसी भी प्रशासनिक अधिकारी को पड़ सकती है। वह भूखा रहेगा तो बु)ि की बीमारियां फैलाएगा और शिक्षा की समस्या को लेकर भविष्य में भी वे ही रोग पैदा होंगे, जिन्हें आज दूर करने की कोशिश की जा रही है। सुविधा की इस फैलती संस्कृति में जहां सुविधा भोगी ही विजय एवं बड़प्पन का सेहरा भी ले जाता है। आइये, जरा रूककर एक पल सोंचे कि एक शिक्षक की स्थिति क्या है? अधिकतर के लिए रहने को मकान नहीं। बीमार पड़ने पर सरकार की ओर से कोई दवा का प्रबंध नहीं। सवारी और टेलीफोन की सुविधा उसका आखिरी सपना है। फिर वह ट्यूशन करता है तो लोग उंगली उठाते हैं। पुस्तकें एवं पत्र पत्रिकाएं क्रय करने का तो उसे कोई भत्ता ही नहीं मिलता। शिक्षा नीति के मसौदे में इस पर भी विचार होना चाहिए क्योंकि जैसा संगठन का संचालन होगा वैसा ही परिणाम आयेंगे।
परीक्षा प्रणाली डाॅ. राधाकृष्णन ने एक बार कहा था कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में सुधार हेतु यदि एक लाइन में संस्तुति करनी है तो वह है शिक्षा प्रणाली पूर्णरूपेण बदली जाय। हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि हमारी आज तक शिक्षा व्यवस्था मात्र दो आयामों प्रवेश एवं परीक्षा में समिष्ट कर रह गयी है। अध्ययन एवं अध्यापन व व्यक्तित्व के विकास का आयाम धूमिल हो गया है। अध्ययन, अध्यापन व मूल्यांकन शिक्षा जगत की समन्वित प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया समाप्त हो गयी है। इस कारण छात्रों का सही मूल्यांकन नहीं हो पाता एवं ऐन-केन-प्रकारेण परीक्षा उत्तीर्ण करना ही एक मात्र लक्ष्य रह गया है। ऐसी स्थिति में यदि शिक्षा को सही रूप प्रदान करना है तो अध्ययन, अध्यापन एवं मूल्यांकन की प्रक्रिया को लागू करना होगा और यह तभी हो पाएगा जबकि वर्ष में एक बार होने वाली परीक्षा प्रणाली समाप्त की जाय।
परीक्षा प्रणाली मंे परिवर्तन के दो तरीके हैं-
1-अल्पकालिक
2-दीर्घकालिक
अल्पकालिक सुझाव परीक्षा प)ति की त्रुटियां दूर कर परीक्षा समय से कराने, परिणाम समय से निकालने एवं परीक्षा में अनुचित साधनों का प्रयोग रोकने का है। दीर्घकालिक सुझाव वर्ष भर की पढ़ाई का सारांश तीन घंटे की लिखित परीक्षा से जानने की बजाय छात्रों की स्वतंत्र विचार शक्ति, ग्राह्य शक्ति तथा उसके वैश्लेषणिक प्रतिभा के मूल्यांकन की प)ति विकसित करने का है।
परीक्षा में स्मरण शक्ति की परीक्षा होती है। छात्र कितना याद करता है। कितना लिख सकता है। वास्तव में छात्र ने कितना ज्ञान अर्जित किया। कितना ग्रहण किया है एवं इसका क्या उपयोग होना चाहिए। इसकी परीक्षा होनी चाहिए।
हमारी शिक्षा व्यवस्था की एक और विसंगति है। व्यवहार से कटा होना। वहां ज्ञान एवं सि)ांत दोनों को एक समझ लिया जाता है। जबकि ज्ञान, सि)ांत एवं व्यवहार दोनों से मिलकर बना है।
ज्ञान व्यवहार में द्वैत बनाए रखने के कारण हमारे जीवन में एक गहरा दोहरापन आ गया है। परिणामतः आज व्यक्ति जो कुछ लिखता है। व्यवहार में उसका उल्टा आचरण करता है। एक तरफ तो हमें गांधी, नेहरू के आदर्शों का पाठ पढ़ाया जाता है। दूसरी तरफ जब हम उन आदर्शों को व्यवहार में उतारने की कोशिश की जाती है तो हमें पागल करार दिया जाता है। फलतः आलोचनात्मक चेतना का विकास नहीं हो पाया है। सि)ांत एवं व्यवहार में यह दूरी उन लोगों के हितों का पोषण करती है, जो व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं और वास्तविकता को छिपाने का हर संभव प्रयास करते हैं। इस अर्थ में हमारी शिक्षा व्यवस्था प्रतिक्रियावादी एवं यथास्थिति वादी है।
दरअसल, जिस समाज में आदमी भयंकर आर्थिक परेशानियों के मध्य जी रहा है, उसमें शिक्षा का कोई मतलब इसी संदर्भ में हो सकता है  मज ड शोषित जनता के जीवन को खड़ा करने यानी आत्म निर्भर बनाने के लिए कितनी सहायक है।
आर्थिक दृष्टि से समाज कई टुकड़ों में बंटा हुआ है और उसी असमानता को इस शिक्षण प)ति में हमने स्वीकार कर लिया है। हम चाहते हैं कि ऐसा समाज जिसमें असमानता न रहे और न चला रहे हैं। वह शिक्षा प)ति दो तरह के स्कूलों में जिंदा है। एक ओर है नगर पालिका एवं नगर महापालिका के विद्यालय और दूसरी ओर कान्वेंट किंडर गार्डेन एवं पब्लिक स्कूल। इस तरह में हम समाज में दो तरह के नागरिक पैदा करते हैं। एक वे हैं जो जीवन एवं उसकी सुख सुविधाओं के दौड़ में दौड़ सकें। इतनी भी ताकत नहीं रखते। दूसरी ओर वे हैं जो देश के सामान्य नागरिकों दिक्कतों, अभावों से दूर सारी सुविधाओं के वातावरण में पलकर बड़े हुए हैं और ऊंची कीमत देकर क्रय की गयी शिक्षा के कारण जीवन की दौड़ में दूसरे से कहीं आगे निकलकर उन कुर्सियों के हकदार बन जाते हैं जो देश में नीतियों का निर्धारण करती हैं। इसलिए देश की आवश्यकता रोटी की होती है तो कारखाना, रंगीन टीवी का लगाया जाता है।
यहीं तक नहीं यह शिक्षा व्यवस्था अपने विद्यार्थियों को आत्मनिर्भरता का गुण अलग से भी नहीं सिखाती। विद्यार्थी जब तक पढ़ता है। जीवन समस्याओं के प्रति गैर जिम्मेदारपूर्ण होता है। उसकी पढ़ाई का खर्च अभिभावक होता है। बाकी जरूरतें समाज पूरी करवा देता है। अच्छे नोट्स अध्यापक लिखवा देता है। इस देश के लाखो-लाख जीवन के बेहतरीन वर्ष इसी तरह समाप्त हो जाते हैं  मज ड राष्ट्रीय उत्पाद में एक पैसा भी योग नहीं देते। राष्ट्रीय उत्पाद का मात्र भोग करते हैं। फिर आत्म निर्भर व स्वावलम्बी कैसे हो सकते हैं?
शिक्षा का स्तर कैसा है और वह हममें कैसी मानसिकता पैदा करती है। यह इसी से पता चलता है कि किसान का बेटा हाईस्कूल में पहंुचा नहीं कि उसे हल चलाने में शर्म आने लगती है। ग्वाले का लड़का दसवीं पास कर गया तो दूध दुहने में अपनी हेंठी समझने लगता है। पढ़ाई पूरी नहीं की कि गांव के लड़के को गांव का जीवन बेकार लगने लगता है। इंजीनियर, डाक्टर बनने के बाद तो छात्र को अपने देश में अपनी प्रतिभा को विकास का समुचित अवसर नहीं दिखता। वह विदेश की ओर टकटकी लगाए रहता है। प्रतिभा पलायन की द्रुतगति अभी भी जारी है। कई-कई विश्वविद्यालय तो लगता है कि विदेश पूंजीवादी साम्राज्यवादी देशों के लिए डाॅक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, तकनीशियन तैयार करने की फैक्ट्रियां साबित हो रही हैं और हम जाते हुए इंजीनियर, प्रोफेसर, तकनीशियन को छोड़कर गर्व महसूस करते हैं। ऐसा गर्व महसूस करने की फासिस्ट किस्म की साजिश की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की सफलता है और इस सफलता हेतु हमारे शिक्षक, ईंधन साबित हो रहे हैं। परिस्थिति यह है कि जितना ज्यादा पढ़ो, अपने समाज के लिए उतना ही अनुपयोगी बनो। इसलिए कृषि में स्नातक हुआ व्यक्ति यह नहीं चाहता कि उसे एक बड़ा फार्म मिल जाए और वह वहां वैज्ञानिक खेती कर सके बल्कि ऐसा चाहता है कि ऐसा दफ्तर जहां फाइलों में गेहूं पैदा हो और उसके दस्तख्त से काट लिया जाय। इंजीनियरिंग का विद्यार्थी खुद मान लेता है कि विदेशी लेखकों की पुस्तकों मे देशी से ज्यादा ज्ञान है। अपनी स्वतंत्र बु)ि से ज्यादा अच्छी है दूसरो की बु)ि रट लेना। अपनी भाषा से ज्यादा अच्छी है अंग्रेजी भाषा। अपने देश से ज्यादा गुणी है विदेशी ज्ञान। परंतु विदेशी ज्ञान स्वदेश के लिए प्रासंगिक कितना है यह वह नहीं सोच पाता। क्योंकि वह माने बैठा है कि स्वतंत्र बुद्धि से ज्यादा सटीक है दूसरों की बुद्धि।
ऐसा दिमाग बनाएगी शिक्षा प्रणाली तो कहां से हर नागरिक की सर्वोत्तम प्रतिभा के विकास का लाभ समाज को मिल पाएगा। इन विसंगतियों का मतलब यह नहीं कि हमने शिक्षा नीति में परिवर्तन का वाक्युद्ध नहीं चलाया का विषय रही है। ये प्रयोग जहां एक ओर शिक्षाशास्त्रियों ने किये नहीं अर्धशिक्षित राजनीतिज्ञों और मंत्रियों ने भी शिक्षा के क्षेत्र में मनचाहे प्रयोग किये हैं। आजादी के तत्काल बाद महात्मा गांधी के बुनियादी तालीम का बड़ा हल्ला मचा था। संत बिनोवाभावे व डाॅ. जाकिर हुसैन बुनियादी तालीम के राष्ट्रपति बने। तो उन्होंने यह स्वीकार किया कि बुनियादी तालीम एक अव्यवहारिक शिक्षा प्रणाली है। इतनी विसंगतियों के उपरांत भी जब कभी भी शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन की बात चलायी जाती है तो छात्रों में आलोचनात्मक चेतना का विकास कर सके तो शोषक प्रतिक्रियावादी तत्व तुरंत विरोध कर बैठते हैं। मूल्यों का यह संस्थायीकरण अनिवार्यतः शारीरिक प्रदूषण, सामाजिक धु्रवीकरण व मनोवैज्ञानिक नपुंसकता को जन्म देता है। समाज का शोषक वर्ग की आज भी नहीं चाहता कि साधारण जनता पढ़ लिख सके। होशियार बने। ताकि खेतों में कार्य करने के बाद वह अपनी मेहनत का हिसाब जोड़ सके। हस्ताक्षर करने से पहले वह कागजांे को पढ़ सके। बंधुआ जिंदगी से मुक्ति का उपाय निकाल सके और कूपमंडुकता से निकल सके। निरक्षर लोग आत्मनिर्भर होते हैं। तभी तो इन्हें जोतदार, थानेदार, ठेकेदार एवं साहूकार सभी तंग करते हैं। शिक्षा मनुष्यों को नई जिंदगी से साक्षात्कार करवा सकती है। अपनी परिस्थितियों को बेहतर ढंग से समझने और अपनी नियति को बदलने का अवसर देती है। यह अंधविश्वासों और सामाजिक अत्याचारों से लड़ने की प्रेरणा भी देती हैं
नई शिक्षा नीति शिक्षा की विसंगतियों एवं शिक्षा की व्यापक अनिवार्यता को देखकर भारत के प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने कमर कसी थी और नई शिक्षा नीति पर बल दिया था, जिससे देश को इक्कसवीं शताब्दी में ले जाने पर जोर दिया गया। 20 अगस्त को शिक्षा की चुनौती नीति परिप्रेक्ष्य शीर्षक पर जो दस्तावेज जारी किया है, उसमें चार भाग हैं। 1-शिक्षा समाज एवं विकास का अध्ययन 2-शैक्षणिक विकास की समीक्षा 3- वर्तमान प्रणाली की समालोचनात्मक व्यवस्था 4-शिक्षा को नया रूप देने का संभावित दृष्टिकोण।
नई शिक्षा नीति के मूलमंत्र अग्रांकित हैं-
1-प्रारम्भिक शिक्षा का सविनमीकरण।
2-अनौपचारिक शिक्षा।
3-प्रौढ़ शिक्षा।
4-खुला विद्यालय।
5-आदर्श विद्यालय।
6-व्यावसायिक शिक्षा।
नई शिक्षा नीति तैयार करने में शिक्षा मंत्रालय के अतिरिक्त एनसीईआरटी राष्ट्रीय संस्थान एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का सहयोग लिया गया।
आठ अप्रैल, 1985 को जब केन्द्रीय शिक्षा मंत्री केसी पंत ने संसद में नई शिक्षा नीति विषयक घोषणा की, जिसमें आधुनिकीकरण, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रचार-प्रसार, राष्ट्रीय एकता को मजबूतब बनाने, राष्ट्र की सांस्कृति विरासत को संभालने और राष्ट्रीय इतिहास को जन-जन तक पहुंचाने। वैज्ञानिक संधि कायम करने का उल्लेख है। इसका मानना है  मज ड वैज्ञानिक सोच के कारण शिक्षा से जुड़े कई रोग स्वतः ही समाप्त हो जाएंगे। शिक्षा नीति में और जो मुख्य बातें कहीं गई हैं उसमें नौकरियों के साथ डिग्री का संबंध समाप्त करने, शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन करने, देश की प्रतिभा को आगे बढ़ाने और व्यावसायिक शिक्षा को कार्यामुखी बनाए जाने पर बल दिया गया। डिग्रियों को समाप्त करने संबंधी बयान पर देश में व्यापक चर्चा है लेकिन जब तक कोई दूसरी तरह की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक डिग्रियांे को समाप्त करना एक दूसरे तरह की अराजकता को निमंत्रण देना एवं भ्रष्टाचार हेतु आसान रास्ता बनाना होगा।
सरकार के इरादे कितने पाक हैं। यह तो नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन पर ही पता चल गया। बहरहाल, 1935 की मैकाले नीति पर पहली बार सरकारी स्तर पर प्रश्न चिन्ह लगा है और उसके अमूल परिवर्तन की बात हुई।
अध्यापक की छवि हमारी चेतना में सदियों से समर्पित अध्यापक की रही है। लोकतंत्र एवं समाजवाद के साथ ही पैदा हुए ट्रेड यूनियनांे संस्कारों ने कार्य के प्रति समर्पण की उस परम्परा को तोड़ा न होता तो हमारी शिक्षा आज इतनी चुनौतियों का लक्ष्य नहीं होती। शिक्षा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन संबंधी दिये गये प्रधानमंत्री के वचन से इस मुद्दे के साथ ही निजी प्रबंध समितियों की ठेकेदारी को कम करने का प्रावधान भी होना चाहिए।
आज  मज ड़ की जगह डाली व पत्तियों को सींचने की बात सोचते हैं। जब तक देश में ब्यूरोक्रेसी का सत्ता पर कब्जा रहेगा। शिक्षा प)ति में परिवर्तन की बात करना ही बेमानी होगा। क्योंकि अधिकारी/नेता वर्ग कतई नहीं चाहता कि उनके बच्चे टूटे-फूटे घरों में जमीन में बैठकर सामान्य बच्चों के बीच में शिक्षा लें। जब तक यह मानसिकता कायम रहेगी, तब तक शिक्षा व्यवस्था पर कुछ भी कहना निरीह बकवास है। आज हमें शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन करते हुए उसे संरचनात्मक स्वरूप देना चाहिए।
मेरी समझ में भारत में प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा पांच वर्षों के तीन चरणों में मिलनी चाहिए। जिसमें पहले चरण में 5-10 वर्ष के मध्य सबको सिर्फ साक्षर किया जाएगा। उनका मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया जाएगा।
दूसरे चरण में मनोवैज्ञानिक अध्ययन के उपरांत व्यक्ति को शिक्षित कम एवं प्रशिक्षित पूर्ण रूप से करना चाहिए। तीसरे चरण में सिर्फ उन लोगों को प्रवेश मिलना चाहिए जो अध्येता हों और उन्हें सरकारी संरक्षण में अध्ययन व अध्यापन हेतु तैयार करना चाहिए। ताकि शिक्षा हमारे समाज, संस्कृति, परिवेश के लिए कुछ जुटा सके न कि डिग्रियां बटोरें। छात्रों की भीड़ खड़ी कर सके।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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