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गीतकार की उपेक्षा

Dr. Yogesh mishr
Published on: 26 July 1992 12:23 PM IST
आजकल के गानों के गिरते स्तर और उसमें समाती अश्लीलता के प्रति समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग चिन्तित और परेशान है।  वह भविष्य के प्रति सशंकित है कि हम किस तरह के समाज निर्माण में जुटे हैं ? हमारे दायित्व हमारी व्यवसायिकता के कारण फीके क्यों पड़ते जा रहे हैं ? हमारा भौतिकवाद हमारे समाजवाद पर प्रभावी क्यों होता जा रहा है ? ऐसा नहीं है कि ये गाने लिखते समय किसी का ध्यान नही रखा जाता है। इन गानों के लिए भी एक वर्ग होता है। खास वर्ग होता है जो वयः सन्धि के दिनों में रंगीन  सपनों में खोया अपने आस-पास से पूरी तरह अनजान बना रहना चाहता है। अपने दायित्वों से कतराने के प्रयास में जुटा रहता है।
हमारी फिल्मों ने गीत और संगीत के मामले में जो उल्श्रृंखलता फैलायी है उससे गीत का गांभीर्य, सार्थकता और उसका शास्त्रीय स्वरूप न हुआ है। सुपर स्टार संस्कृति ने जैसे पैसे के मोहपाश में अपने दायित्व से हटकर कुछ भी गाने जैसे गाने देकर समाज को संगीत के प्रति प्रतिबन्धात्मक रुख अख्तियार करने के लिए बाध्य किया। उसक¢ चलते आजकल गानों में स्थायित्व नहीं है उनकी ‘एनटिक वैल्यू’ एकदम नहीं रह जाती है। वो जितनी तेजी से आते हैं, उभरते हैं समाप्त उससे दूनी गति से हो जाते हैं। ऐसा सब होने के लिए हमारी ‘इंस्टेंट संस्कृति’, मनोवृत्ति जिम्मेदार है जिसमें ‘इंस्टेंट फूड/इंस्टेंट रिजल्ट। आदि’ है। आजकल के गानों में न तो कोई आमंत्रण होता है, न ही निमंत्रण। इनमें कोई भाव प्रवणता नहीं होती है। भाव प्रवणता के अभाव में स्थायित्व का अभाव भी होता है। ऐसा नहीं कि फिल्मों में अच्छे गाने नहीं लिखे गये। परन्तु जो गाने आये वो भी व्यवसायिकता और ‘रोमांटिक विजन’ के कारण खो गये। उनमें ‘रोमांटिकता’ का अभाव दिखा।
वह वर्ग जो इन स्थितियों पर चिंतित है उसका फिल्मों के प्रति, गानों के प्रति कोई मोह नहीं होता वह न तो फिल्में देखता है और न ही गाने सुनता। बस उसका प्रभाव देखता है। प्रभाव पर बहस चलाता है। मनन और चिंतन करता है। यह ऐसी ही स्थिति है कि हमें कमल चाहिए। कमल हमें भाता है। परन्तु हम उसे लेने के लिए कीचड़ में नहीं उतरेंगे। ऐसा एक बहुत बड़ा वर्ग जो कमल का अभिलाषी है परिणामतः इस बहुत बड़े वर्ग की आवश्यकता को पूरा करने हेतु कुछ लोगों को सतत रूप से कीचड़ में बने रहना होगा। य ही ं वर्ग है जिसके लिए आजकल के गाने लिखे जा रहे हैं। मानव के लिए धनेष्णा और यशेष्णा दो चीजें या दोनों में से एक ही पूर्ति होना नितान्त आवश्यक है। इन्हीं की प्राप्ति के बाद ही किसी कार्य को जारी रखा जा सकता है। फिल्मों में श्रेष्ठ गाने लिखने वाले इन दोनों की प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं। अगर कुछ मिलता भी है तो गाने के प्रतिफल में इतना कम होता है कि उसे आधार मानकर उस कार्य को सतत रूप से जारी नहीं रखा जा सकता है।
इधर हमारे सामाजिक ढांचे में एक जबरदस्त बदलाव आया है। हमारे यहां यशेष्णा, धनेष्णा की मुखापेक्षी हो गयी है। आदर्श उपलब्धियों का मुंहताज हो गया है। हमारे यहां साहित्य में एक और परम्परा पड़ गयी है कि हम गीतकारों को खासकर फिल्मी गीतों को साहित्यिक मानने से इनकार कर देते हैं जिसका कारण साहित्यकारों का मूलतः भौतिकवादी, संस्कृति के प्रति विद्वेष ही है। इसके पीछे साहित्य को बचाने की कोशिश नहीं है। क्योंकि अगर साहित्य को बचाना होता तो हिन्दी साहित्य मंे प्रवेश कर रहे अश्लील शब्दों के प्रति भी आवाज उठायी जाती। हंस में ‘चिकोटीमारी’ जैसी कहानियां पढ़ती और तो और हंस तो प्रगतिशीलता के नाम पर अश्लीलता की दुहाई देने तक उतर आया लेकिन उसके विरुद्ध कुछ नहीं हुआ। कोई क्रिया प्रतिक्रिया नहीं हुई क्योंकि हंस के परिवेश में बम्बईया चकाचैंध नहीं थी और हमारे साहित्यकारों को चकाचैंध से ही विद्वेष है। इतना ही नहीं, गीतों के मामले में नीरज की उपलब्धियों को नकारा नहीं जा सकता। नीरज ने गीतों को प्रचुर समृ) किया है। उसे संवारा है, सजाया है। वह भले ही नीरज की व्यक्तिगत वेदना के कारण ही क्यों न हुआ हो। वैसे भी छायावाद कवियों की व्यक्तिगत भाव प्रवणता के कारण ही ‘सूक्ष्म का स्थूल के प्रति विद्रोह बन सका। हिन्दी साहित्य के इतिहास में नीरज का नामोेल्लेख तक नहीं मिलता है। महज इसलिए कि वो बम्बईया चकाचैंध में क्यों चले गये थे ? यही परेशानी है। यही शिकायत है। हिन्दी साहित्यकार को। ऐसा नहीं कि जो लोग चले गये उन्हें स्वीकार नहीं किया गया परन्तु हिन्दी साहित्य ने नहीं स्वीकारा यह सच है, इसके पीछे भिन्न-भिन्न और अपने-अपने तर्क हो सकते हैं। वैसे उर्दू साहित्य में ऐसे लोगों को सम्मान से स्वीकार किया गया है। यथा- कैफी आजमी, गुलजार, साहिर लुधियानवीव मजरूह सुलतानपुरी। इसका एक और कारण स्पष्ट होता है कि उर्दू साहित्य में आरंभ से शाकी, शराब क¢ उल्लेख ने उसमें रसिकता बरकरार रखा। जो कि हिंदी साहित्य में ऐसा कुछ नहीं था।
फिल्मों में साहित्य का पुट न आने देने के लिए यह प्रतिरोधी वर्ग पूरी तरह से जिम्मेदार हैं। जिससे हमारी फिल्में भटक गयीं। फिल्मों के ही आकर्षक और चकाचैंध के प्रभाव के कारण अब लेखकों का एक वर्ग ‘कवि गोष्टी’ के लिए भी तैयार हो रहा है। जैसे कवि गोष्टी, काव्य संध्या आदि एक पुरानी साहित्यिक परम्परा है। परन्तु इधर इस परम्परा ने अपना स्वरूप बदला है। इधर कवि गोष्ठी का नजरिया भौतिकवादी ज्यादा हो गया है। दूरदर्शनी संस्कृति ने इसे और बढ़ाया है। इसी नजरिये के कारण कवि गोष्टी में शरीक होने वाले साहित्यकारों को भी साहित्य से काटने का, दूर करने का प्रयास आरम्भ हो गया। वैसे यह भी है कि इन साहित्यकारों ने जिस ढंग का साहित्य, जिस ढंग की कविता काव्य श्रोताओं को दिया उसकी अपेक्षा उनका श्रोता नहीं करता था। क्योंकि काव्य गोष्टी में जाने वाले और सिनेमा में जाने वाले दर्शकों में अन्तर होता है। काव्य गोष्टी में श्रोता जाता है और सिनेमा में दर्शक। श्रोता मूलतः ‘सत्यम् विशम् व सुन्दरम्’ चाहता है जबकि दर्शक उच्च श्रृंखलता फैंटसी और अथार्थता। फिर क्यों श्रोता को दर्शक जैसा  दर्जा दिया जा रहा है? यह अपराध तो जाने-अनजाने कवि गोष्ठियों में हो ही जाता है। इतना ही नहीं, कवि गोष्टी में दिखायी पड़ने वाले कुछ निश्चित चेहरे, निश्चित गुट है ‘जैसे कुछ निर्देशकों को निर्माताओं के निश्चित गायक, नायक और संगीतकार होते हैं। कवि गोष्टी के कुछ चेहरों ने दूरदर्शनी संस्कृति में स्वयं खपाने की कोशिश में अपनी मौलिकता मार दी। अपना सामाजिक दायित्व भूल गये और श्रोता को दर्शन देने लगे। इस आधार पर अगर इन कवि गोष्ठियों वाले साहित्यकारों को साहित्य से असग किया जा रहा है तो निःसंदेह यह प्रयास स्तुत्य व सराहनीय है। हिन्दी फिल्मों के उन गीत कारों का जो स्वर, लय और साहित्य तथा संस्कृति की मर्यादा का पालन करते हुए चकाचैंध में भी अपने अस्तित्व व साहित्य के अस्तित्व की लाई ल रहे हैं। उनका स्वागत होना चाहिए। उन्हें दूर करना श्रेयस्कार नहीं है क्योंकि अगर आमंत्रण पर हर्ष व्यक्त करने के लिए आंधी में ‘तुम आ गये हो नूर आ गया है’ जैसा साहित्य जुमला लिखकर गुलजार उर्दू साहित्य में स्थान पा सकते हैं तो ऐसा लिखने वाला हिन्दी साहित्य मंे क्यों नहीं ?
इतना ही नहीं, समानान्तर सिनेमा में लिखे संवादों में भी कुछ में सशक्त साहित्यिक परम्पराआंे का निर्वाह किया गया है उनका भी स्वागत होना चाहिए यथा ‘तुम्हारे चेहरे को झुर्रियों में मेरे जिन्दगी का सारांश (सारांश) से’। यदि साहित्य में जिन्दगी को मृत्यु के खिलाफ एक संघर्ष स्वीकार कर लिया जाए तो इसके समानान्तर सारांश का चेहरे की झुर्रियों में जिन्दगी देखने का नजरिया भी कमजोर नहीं पता है। फिर अलगाव क्यों? फिर स्वीकृति क्यों नहीं ? जरूरत है साहित्य बचाने की जो संवेदना की मूल वाहिका है। वह कहीं भी हो। चकाचैंध से विरोध तो जरूरी है पर चकाचैंध में भी जो स्वनिर्मितता है, हो रही है उसे चकाचैंध के विरोध की परम्परा ने निर्वाह में गुम नहीं होने देता है।


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Dr. Yogesh mishr

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