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के.आर. नारायणन या दलित

Dr. Yogesh mishr
Published on: 13 Aug 1992 12:34 PM IST
दलित राष्ट्रपति होने का विवाद समाप्त हो गया। उस समय जब यह विवाद उठा था तो लगता था कि संविधान के साथ मजाक किया जा रहा है। इस गौरवशाली राष्ट्रीय पद पर किसी की नियुक्ति जाति के आधार पर हो ? परंतु उपराष्ट्रपति चुनाव में दलित राष्ट्रपति वाली शक्तियां प्रभावी हो गईं। इंका को उपराष्ट्रपति पद के लिए दलित वर्ग का प्रत्याशी तलाशना पड़ा। के.आर.नारायणन का उपराष्ट्रपति चुना जाना लगभग तय है। क्योंकि काका जोगिंदर के पर्चे पर कुछ फर्जी दस्तखतों का मामला प्रकाश में आ गया है। वैसे अगर इसे गलत भी मान लिया जाए तो भी के.आर.नारायणन की जीत निश्चित है क्योंकि वे सर्वदलीय प्रत्याशी हंै। उन्हें एक तरह से निर्विरोध जीता हुआ मान लिया जाना चाहिए। परंतु यह प्रश्न गंभीर हो उठता है कि नारायणन का चुनाव नारायणन के नाते हुआ है और या दलित होने के नाते। दूसरे शब्दों में दलित राष्ट्रपति बनाने वाली शक्तियों के दबाव का परिणाम तो नहीं है नारायणन का प्रत्याशी बनाया जाना। क्योंकि हमारे संविधान में सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में समता और न्याय के आदर्श रखे गए हैं। हमारे संविधान के पृष्ठ 24 एवं 25 में यह स्पष्टतया लिखा गया है कि संविधान में किसी भी वर्ग के विद्ध या पक्ष में धर्म, मूलवंश या जन्मस्थान के आधार पर विभेद नहीं किया जा सकता। इस आदर्श के अनुसरण में हमारे संविधान ने विधानमंल या सरकारी पदों के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व या धर्म के स्थान पर आरक्षण समाप्त कर दिया है।
यह उल्लिखित होने के बाद भी संविधान निर्माताओं ने आर्थिक व सामाजिक रूप से छिपे अनुभागों की प्रगति के लिए उपबंध किए। इन्हीं उपबधों का लाभ उठाने की फिराक में दलित राष्ट्रपति जैसा स्लोगन लाया गया। वैसे भी आर. वेंकटरामन के कार्यकाल में 106 दलित सांसदों से न मिलने की पूर्व राष्ट्रपति की अभिलाषा से दलितों को बहुत धक्का पहुंचा होगा और उसकी प्रतिक्रिया में दलित राष्ट्रपति का स्लोगन आना चाहिए था परंतु हुआ वैसा नहीं। हुआ यूूं कि मंल के पर्याय पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने यह शिगूफा छोडा। वैसे यह दुर्भाग्य का विषय है कि के.आर. नारायणन को दलित प्रतिनिधि के नाते उम्मीदवारी दी गई क्योंकि गंभीरता से देखा जाए तो नारायणन इस पद के दावेदार अपने अनुभव, शैक्षणिक और प्रशासनिक उपलब्धियों के कारण हो जाने जाते हैं। फिर उन्हें दलित कहकर उनके प्रत्याशी होने को वैध ठहराना कैसा है ?
संविधान के उद्देशिका के पृष्ठ 21 व 23 पर जिस दलित वर्ग का उल्लेख है। जिसकी दुहाई वी.पी. सिंह दे रहे हैं उसमें नारायणन आ भी नहीं सकते क्योंकि शैक्षणिक रूप से परिपक्व व सामाजिक रूप से ख्यात हैं। अगर इसी तरह के दलितों का चुनाव करने से दलित उद्धार का सपना पूरा करना है तो मंशा के बारे में खुलासा हो जाता हंै। वैसे भी मंडल कमीशन के अलावा (अनुसूचित जातियों व जनजातियों) की कोई परिभाषा नहीं है वरन राष्ट्रपति को यह शक्ति दी गई है कि वह प्रत्येक राज्य के राज्यपाल से परामर्श करके एक सूची बनाए। संविधान के अनुच्ेद 341 व 342 के आधार पर संसद इस सूची का पुनरीक्षण कर सकती है। अनुच्छेद 338 के अंतर्गत इसका भी प्रावधान है कि अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए एक आयोग होगा जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करेगा। यह संविधान के 65वें संशोधन अधिनियिम, 1990 द्वारा उपबंध किया गया है। इसके पूर्व एक विरोध अधिकारी नियुक्त किया जाता था।
अब अगर इन तीनों के¢ सामने के.आर. नारायणन के दलित होने का प्रस्ताव रखा जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि हमारे राजनीतिक दलों की दलित उद्धार की कितनी प्रतिबद्धताएं हैं ? क्या सोच रहा है हमारा राजनीतिज्ञ ? दलित वर्ग के उद्धार की अपनी कथित प्रतिबद्धताओं में वह बहुत आगे निकल जाना चाहता है। वह भूल ही जाता है कि दलित वर्ग भी राष्ट्र का नागरिक है। दलितों को समाज से इतर देखने की प्रवृत्ति बड़ी है। जैसे हमारे विज्ञापन एवं उपभोक्ता संस्कृति में स्त्री को भोग्या के अलावा कुछ और भी देखने से इंकार करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। वर्दीधारी पुलिस को शिष्ट न मानने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
मंडल आयोग पिछडों के साथ अन्याय का पर्याय है। क्योंकि इसमंे पिछडों के प्रतीक के रूप में शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान को लिया गया है। वी.पी. सिंह दलित उद्धार के नेता हैं। शरद, मुलायम व राम विलास को एक बार दलित वर्ग के प्रतिनिधि रहे हैं। यह स्वीकारा भी जा सकता है। क्योंकि उन्होंने समाज की कथित उपेक्षा शायद कभी झेली है। पर वीपी सिंह कब और कैसे दलित उद्धारक हैं। सामंती जीवन शैली, विटनकारी सोच, सवर्ग परिवेश में जीने के कारण उपेक्षा का एक क्षण भी नहीं आया होगा-उनके जीवन में।
हरिजन शब्द की स्थापना करने के साथ-साथ महात्मा गांधी ने दलित उद्धार के लिए तमाम प्रयास किए थे। आज वीपी समर्थक इसकी दुहाई दे सकते हैं। पर महात्मा गांधी की जीवन शैली में जो आदर्शों का यथार्थ था वह अन्यत्र दुष्कर है। फिर तुलना तर्कविहीन होगी। दलित शब्द का सामाजिक अर्थ दबा-कुचला होता है। हमारे राजनीतिज्ञ शब्दों को उसके सामाजिक संदर्भ में काट रहे हैं। यही कारण है कि संविधान में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातियों के विकास के लिए जो उपबंध किए गए हैं वो कुछ हाथों में सिमटकर रह गए हैं। जिसके हल के रूप में कभी स्वेल और कभी नारायणन को बलि का बकरा बनाया जाता है। इनसे भारतीय दलित का स्व कितना जुड़ा है यह परिवेश, परिधान और इनकी उपलब्धियों के आधार पर अंाका जा सकता है। इसी         अधःपतन मनोवृत्ति का कारण रहा है कि बाबा अंबेडकर जैसे कुशाग्र एवं राष्ट्र पेे्रमी व्यक्ति कुछ वर्ग एवं जाति विशेष की संपत्ति एवं पूर्वज बनते हुए सिमटते जा रहे हैं। उनकी उपलब्धियों को एक दायरे में बांध दिया जा रहा है। हमारे आसपास जाति की, दलित की, क्षेत्र की, संप्रदाय की, धर्म की बाढ़ लगाई जा रही है। जिससे हमारे अपरिपक्व लोकतंत्र का लाभ उठाया जा सके। उदाहरण के रूप में वीपी सिंह के मंडल का विरोध करने वालों में उड़ीसा के मुख्यमंत्री जे.बी.पटनायक प्रमुख थे और अभी गत सप्ताह उन्होंने पूरे उड़ीसा में आरक्षण के प्रतिशत में वृद्धि कर दी है। यही वह दोहरी मानसिकता है जो दलित राष्ट्रपति, स्वेल व के.आर.नारायणन का सवाल उठाती है। उन्हें हमसे अलग करती है। उनकी उपलब्धियों, उनके त्याग एवं अनुभव को दलित शब्द के आगे बौना किया जा रहा है। इससे सतर्क रहने की ही नहीं इस मनोवृत्ति का विरोध करने की जरूरत है।


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Dr. Yogesh mishr

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