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भारत गुलामी की ओर शैक्षणिक व सांस्कृतिक गुलामी
हमारे देश को स्वतंत्र हुए 45 वर्ष बीत गए। फिर भी हमारे सामने यह यक्ष प्रश्न गहराता जा रहा है- ‘भारत गुलामी की ओर’। इसी यक्ष प्रश्न के सम्मुख हम लोग खड़े हैं। हमारे पूर्व अध्येयताआंे ने गुलामी के आर्थिक पक्ष को व्याख्यायित व विश्लेषित किया है। हमारे लिए यह चिंता का विषय है कि हमारी आजादी, हमारी स्वतंत्रता मध्य रात्रि में हमें अंग्रेजों से मिली ? इसके पीछे अंग्रेजों की मानसिकता यह भी थी कि भारत में अपने लोगों को शासन चुपचाप सौंप दिया जाए। यहां स्वतंत्रता नहीं आई। यहां सुराज आया। सुराज भी उनके लिए जो अंग्रेजों के अंग्रेजियत शैली के आसपास जी रहे थे। भारत दुनिया का पहला ऐसा देश है जहां स्वतंत्रता के बाद शिक्षा नहीं बदली। भाषा नहीं बदली। कानून नहीं बदला। राज्य करने के तौर तरीके नहीं बदले। बदला तो बस ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ का प्रतिनिधि। जब हमने कुछ नहीं बदला तो ऐसी स्वतंत्रता का अभिप्राय ही क्या रह जाता है ? परिणाम हुआ कि गुलामी हमारे सामने समानांतर रूप से पलती रही। चलती रही। हम मानसिक रूप से इतने गुलाम निकले कि राष्ट्रगान स्वीकारने में भी हमारे पर जार्ज पंचम की प्रशस्ति का भूत काबिज रहा।
स्वतंत्रता के बाद जिस तरह मैकाले की शिक्षा पद्धति को स्वीकार किया गया। वह हमारे राजनीतिक पुरोधाओं के समाज बोधी दायित्व को दर्शाने के लिए पर्याप्त है। भारत में शिक्षा के स्तर पर कोई व्यापक फ¢रबदल नहंी हुआ है और जो कुछ हुआ दिख रहा है वह शिक्षा के खाते में आए धन को व्यय करने की कागजी औपचारिकता निभाने का है। हमने मैकाले की जिस शिक्षा व्यवस्था को स्वीकार किया वह भारत में क्लर्क बनाने के लिए, ब्रिटेन का शासन चलाने के लिए बनाई गई थी। इस व्यवस्था से ‘शासन सटक’ पैदा किया जा रहा था। शिक्षा सीधे तौर पर समाज से जुड़ी होनी चाहिए। परंतु हमारी शिक्षा में समाज के आवश्यक और वैकल्पिक प्रश्नांे के लिए कोई पाठ्यक्रम नहीं है। ऐसे पाठ्यक्रम नहीं हैं जो समाज के हितों के पोषक हों। यहां शिक्षा रंगीन सपने बेचती है। कल्पनाएं बेचती है। यहां पाठ्यक्रम में ‘सोती सुंदरी’ है। उसके सोने के बाल हंैं। एक राजकुमार है जो सोती सुंदरी को छूता है। पढ़ा जाता है। एक ओर ‘ज’ से जहाज है। तो दूसरी ओर ज से जमाखोर। विसंगति यह है कि जमाखोर की जरूरत वाले विद्यार्थी को जहाज और जहाज की जरूरत वाले विद्यार्थी को जमाखोर पाया जा रहा है। हम अभी भी ब्रिटेन और मैकाले की शिक्षा दे रहे हैं। जो आज हमारे लिए अपर्याप्त है। अधूरी है। यह मात्र रोजी-रोटी की शिक्षा देती है। अंर्तदृष्टि नहीं देती। रोजी-रोटी के लिए मिलने वाली शिक्षा प्रतिस्पर्धात्मक होती है। प्रतिस्पर्धात्मक शिक्षा में स्वार्थ व ईष्या का समावेश हो जाने पर आत्मघाती हो जाती है। घातक हो जाती है। प्रतिस्पर्धा में प्राप्ति निहित होती है। आज यह पाना येन-क¢न-प्रकारेण हो गया है। इसके लिए आदमी-आदमी, प्रतियोगी-प्रतियोगी को छलना पड़ता है। संघर्ष करना पड़ता है। जिससे मैत्री भाव समाप्त हो जाता है। आपसी आंनद मरता है।
हमारी शिक्षा में सीखना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है परीक्षा में उत्तीर्ण होना। एक-दो साल के पढ़े को, सीखे को तीन घंटे में लिखना होता है। तीन घंटे के लिखे को परीक्षक पांच मिनट में जांच देते हैं। जांचते समय भी कई और प्रभाव यानि परीक्षक का मूड, परीक्षक का बौद्धिक वर्गवाद भी काम करता है। यदि परीक्षक की उस विषय पर पुस्तक है तो ात्र ने उसे पा है। उसके बारे में लिखा है या नहीं, यह भी जांचने के दौरान काम करता है। हमारी शिक्षा भविष्य की वेदी पर कभी वर्तमान की बलि चाती है तो कभी वर्तमान की बेदी पर भविष्य की बलि। हमारी शिक्षा में खोया-पाया का सिद्धांत आवश्यक है। खोया-पाया का यह भाव श्रेणी में उत्तीर्ण होने के क्रम की बीमारी पैदा करता है। विद्यार्थियों में श्रेष्ठता और निकृष्टता का भाव भरता है। कितना हास्यास्पद है कि छात्र के वर्ष भर का किया-धिया निर्णायक नहंी होता है। निर्णायक सिर्फ तीन घंटे होते हैं। नतीजतन, छात्र भी धीरे-धीरे मेहनत से कटने लगता है। वह तलाशने लगता है- पांच सवाल। वह अपनी ऊर्जा का प्रयोग अध्यापक के इर्द-गिर्द रहने में लगाता है। अध्यापक भी इसका लाभ उठाते हैं। पांच प्रश्नों के ‘अमोघ अस्त्र’ को परीक्षा तक संभाले रहते हैं। कुछ अध्यापक तो संभाले रहने के अपने हुनर का अतिरिक्त लाभ भी चाहते हैं। उन्हें मिलता भी है। शिक्षक अपना मूल धर्म भूल गया है। वह वर्तमान से कटा है। जबकि परिस्थितियां लगातार बदल रही हैं। ज्ञान राशि नित्य बढ़ रही है। ज्ञान का विस्फोट निरंतर जारी है। हम अपनी शिक्षा में इतिहास के संबंध में भी कोई मौलिक दृष्टिकोण नहीं बना पाए है। यही वजह है कि चंगेज खां, नादिरशाह, हिटलर और तैमूर लंग को इतिहास मान बैठे हैं। जबकि ये दुख-स्वप्न है। इन्हें इतिहास मानने की गलती का खामियाजा है कि तमाम लोग छोटे-छोटे इलाकों में इनके पथ का अनुगमन करते दिखते हैं।
इतिहास उन्हीं से भरा होना चाहिए जो हमारे प्रेरणा पुंज हैं। क्योंकि प्रेरणा पुंजों से न क¢वल हमे संबल मिलता है। बल्कि जीवन और समाज के लिए राह भी दिखती है। हमारे देश का राजनीतिज्ञ भी नहीं चाहता कि शिक्षा एक सरीखी हो। एक सरीखी शिक्षा में एक तरह के मस्तिष्क पैदा होंगे। एक तरह के मस्तिष्क बने तो राजनीतिज्ञ के विटन का कुचक्र किस तरह चल पाएगा। कैसे बांटों और राज्य करो फले-फूलेगा।
जिस शिक्षा का क¢वल डिग्री से संबंध हो। वह भी ऐसा संबंध कि स्नातक डिग्री लेने के बाद परास्नातक में प्रवेश के लिए परीक्षा देनी पड़े। यानि हर बड़ी कक्षा में प्रवेश के लिए पुरानी कक्षा के अंकों का कोई मतलब नहीं। दफ्तरी बनने के लिए आपको प्रतियोगिता देनी होगी। यह डिग्रियंा हमें अकर्मण्य बनाती है। बीए पास कर लेने के बाद ग्वाले का लड़का दूध दुहने में शर्म महसूस करता है। ब्राम्हण के बेटे को संस्कृत पढ़ने में हया नजर आती है। कृषि स्नातक चाहता है कि फाइलों में गेंहूं उगे और उसको दस्तखत से काट लिया जाए। कान्वेंट शिक्षा का भूत तो हम लोगों पर इस कदर सवार है कि पत्नियों का भी साक्षात्कार करवा बैठते हैं। प्रवेश के लिए डोनेशन देते हैं। डोनेशन से प्रवेश पाने वाला छात्र क्या पढ़ेगा। दूसरे बच्चों की निगाह में उसकी क्या छवि होगी। हमने स्कूलों मंे प्रवेश को स्टेटस मान लिया है। कान्वेंट की तालीम में मां-ममी और पिताजी -डैड हो जाते हैं। फिर बुढ़ापे में लोगों को बच्चों से श्रवण कुमार सरीखी आशाएं क्यों होती हैं ? इन इंगिलश स्कूलों में संस्कार न भारतीय होते है न बनते हैं। इनमें अधकचरा पन रहता है। अंग्रेजी को भाषा के स्तर पर लेना गलत नहीं है। पर हम इसे संस्कार के स्तर पर लेने लगते हैं। हमारे यहां जितने भी लोगों ने किसी भी क्षेत्र में मौलिक कार्य किया। उनमें 90 फीसदी लोग टाट-पट्टी के स्कूलों के रहे हैं। हम बच्चों को मौलिकता के लिए न तो जन्म रहे हैं और न ही पढ़ा रहे हैं। हमारी शिक्षा छात्रों में आत्म सम्मान नहीं भर रही है। अभिभावक भी नहीं चाहते हैं कि बच्चों में आत्मसम्मान हो। प्रेमचंद्र ने ‘नमक का दरोगा’ कहानी लिखी थी। जिसमें नमक का दरोगा रिश्वत नहीं स्वीकारता। तमाम परेशानियां झेलता है। पंरतु आज हमारे अभिभावक बच्चों की ‘सरकारी नौकरी’ ‘अंडर द टेबल मनी’ जैसे संस्कारों में पालते हैं।
आज दादी मां कहानियां सुनाकर बच्चों मंे आदर्श चरित्र नहीं जन पातीं। जबकि यहां अभिमन्यु ने गर्भ में चक्रव्यूह तोड़ना सीखा था। हम बच्चों में कोई नैतिकता नहंी जन पा रहे हैं। हमें आत्म सम्मान व नैतिकता जनना चाहिए। हमने जो संस्कार जने हैं। उसमें महाराणा प्रताप के घास की रोटियां खाने पर सवाल है ? आखिर ऐसी मानसिकता, ऐसी पीढ़ी हम क्यों पाल रहे हैं। हम भी कुछ हैं, यह ध्यान रहे जैसी सूक्ति हमारी ही है। हमारे लिए, हमारे बच्चों के लिए नौकरी चाहिए। शिक्षा की विद्रूपता यह है कि बच्चे को अभिरुचि के मुताबिक न तालीम मिलती है न ही रोजगार। हमारी वर्तमान शिक्षा पलायन के जन्मदात्री है। यह पलायन गांवों से नगर की ओर। नगर से महानगर की ओर। महानगर से विदेशों की ओर है। हिंदुस्तान से कितने प्रथम कोटि के लोग भाग गए हैं। इसका हमें पता नहीं है। प्रथम कोटि के विचारक यदि दो-चार भाग जाएं तो सब कुछ गड़बड़ हो जाता है। आइंसटीन को जर्मनी से भगा देने का परिणायम यह हुआ कि जो एटमबम जर्मनी में बन सकता था। वह अमरीका में बना। शिक्षा व्यवस्था की स्थिति तो यह हो उठी है कि हमने भोर का पहाड़ा पढ़ाने का दायित्व उन्हें दे रखा है। जिन्होंने उगता हुआ सूरज नहीं देखा है और संस्कृति के विस्तार पर बेड टी की आशा में पड़े हैं। हमारे पास एक संपन्न संस्कृति धरोहर भी है। जिसमें नारियों को सम्मान देते हुए कहा कहा गया है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यंतें रमंते तत्र देवता जबकि हजारों वर्ष पूर्व ही चीन में यह माना जाता था कि स्त्रियों के भीतर कोई आत्मा नहीं होती है। इतना ही नहीं, स्त्रियों की गिनती जड़ पदार्थ के साथ की जाती थी। पश्चिम में भी स्त्रियों को संपदा मानने की पंरपरा जीवित है।
इसके बाद भी हमारे यहां स्त्रियां पश्चिम के तर्ज पर नारी मुक्ति आंदोलन चलाने में जुटी हैं। यह तो संभव है कि स्त्रियों को संपदा समझने की मानसिकता से मुक्ति दिलवाने का प्रयास हो परंतु क्या यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता से भी मुक्ति चाहिए। पश्चिम ने स्त्री को पुरुष जैसी दीक्षा और शिक्षा के भाव से नारी से उसका महत्व छीना। हमारी संस्कृति नारी को सृजनकर्ता स्वीकारती है। यही सृजन, निर्माण उसे पूज्यनीय बनाता है। परंतु पश्चिम में नारी समानता जैसी बातें चलाकर नारी का स्त्रैण नष्ट करने का एक षडयंत्र चलाया जा रहा है। नारियंा पुरुषों के नकल में निर्मित की जा रही हैं। पश्चिम नहीं मानता कि स्त्री और पुरुष के चित्त में बुनियादी भेद और भिन्नता है।
हमारे पूर्वज नासमझ नहीं थे। पुरुषों के लिए उन्हांेने व्यायाम खोजा तो स्त्रियों के लिए नृत्य। कारण नृत्य में लययुक्तता है। जो स्त्रियों के हार्मोन्स को, उसके शरीर के रासायनिक तत्वों को एक विशेष तरह की गतिमयता और संगति से भरते हैं। जबकि व्यायाम मनुष्य में तीव्रता भरता है। यह विरोध ही आकर्षण का कारण रहा है।
समानता से पश्चिम में परिवार टूटे। भारत भी इस मानसिक गुलामी को स्वीकार कर रहा है। यहां भी परिवार टूटने गला है। न्यूक्लियर फैमिली की संकल्पना प्रसार पा रही है। एक दशक पहले हमारे यहां घर थे। अब मकान हैं। घर और मकान का फर्क हमारा सांस्कृतिक क्षरण है। आज स्त्रियों में पुरुषों जैसे कपड़े पहनने की होड़ है। यह पश्चिम की नकल है। हमने कभी नहीं सोचा कि जीवन की छोटी बात सारे जीवन को प्रभावित करती है। पश्चिम में चुस्त कपड़े पहने जाते हैं। चुस्त कपड़े आदमी को लड़ने के लिए तत्पर बनाते हैं। हमारे यहां, हमारी संस्कृति में ढीले परिधान की व्यवस्था है। ढीले कपड़ेे आदमी को शांत करते हंै। मौन करते हैं। यही कारण है कि आज तक साधुआंे की किसी भी परंपरा ने चुस्त कपड़े नहंी पहने। सैनिक और नौकरों को चुस्त कपड़े पहनाए जाते हैं।
हमारी संस्कृति ने स्त्री, पुषों के परिधान में विभिन्नता बनाई थी। स्त्रियों के कपड़े पुरुष जैसे नहंी होने चाहिए। लेकिन हमारी औपनिवेशक मानसिकता ने इसे स्टेटस सिंबल स्वीकार कर लिया है। भारत में स्त्रियों का पुरुषों के वस्त्रों के पहनावे की ओर झुकाव बढ़ रहा है। इससे हमारी नारी, नारी का स्त्रैण, समाप्त हो रहा है। स्त्रैण मरेगा तो परिवार टूटेंगे। घर की जगह मकान बनेंगे। हमारी संवेदना मरेगी। संवेदना मानवता की जड़-मूल है। फिर मानवता को कितना गंभीर खतरा झेलना पड़ेगा। इससे बचने की जरूरत है।
भारत की स्थिति ऐसी है जैसे एक ज्योतिषी आकाश की तरफ आंखे उठाकर तारों का अध्ययन कर रहा था और रास्ते पर भी चल रहा था। उसे पता नहंी वह रास्ता कब भटक गया। भारत के लोगों की आंखें पश्चिमी देशों पर लगी हैं। रास्ता उसे भारत में भारतीय संस्कृति में तय करना है तो उसे भटकने से कौन रोक पाएगा। हमारी समस्याएं पृथ्वी पर हैं और आंखे सदा से आकाश पर लगी रहती हैं। हम पाश्चात्य देशों के चकाचैंध का अध्ययन कर रहे हैं पर रास्ते सारे भटकते जा रहे हैं। इस भटकाव से वापसी दुह होती जा रही है। हमने बच्चों को बोतल पकाया। बच्चे मां से दूर होने लगे। बोतल संस्कृति बढ़ने लगी। बच्चों पर बीमारियों का प्रकोप बढ़ा और अब हम मां के दूध को तमाम विशेषणों से वैज्ञानिक उपलब्धियों से महिमा मंडित करने में फिर जुटे हैं। आर्थिक व्यय कर रहे हैं। यह किसी देश के लिए कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसे अपनी संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए अपने ही देश मंे विज्ञापन करना पड़े।
हमारे जीने में हमारे विचार में एक बुनियादी द्वैत पैदा हो गया है। एक विरोध में जी रहे हैं हम। हमारा विचार एक तरफ चलता जीवन दूसरी तरफ। इसलिए कभी विचार विकसित हो जाता है और जीवन अविकसित। कभी जीवन विकसित हो जाता है विचार अविकसित। यह असंतुलन बना रहता है। यह असंतुलन कांफ्लिक्ट बनाए रखता है हममे। इसे दूर करना होगा। जैसे स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों की ओर लौटो नारा दिया था। उसी तरह हमें स्वीकारना होगा-संस्कृति की ओर लौटो। यही विकल्प शेष है। नहीं तो हमारा भटकाव, हमारा कथित विदेशीपन हमें हमारी जमीन से उखा फेंक¢गा।
हम सभी लोगों को अपने-अपने स्तर पर इस विदेशी प्रभाव, ओपनिवेशिक मस्तिष्क और इस गुलामी की समानांतर शैली को तोड़ना होगा। इसके लिए संकल्प लेना होगा। इस दिशा में भारत विकास परिषद के प्रयास और आगे बढ़े। लक्ष्य पाए तथा भारतीय संस्कृति की पुनस्र्थापना करने में मील के पत्थर साबित हांे। इसी संपन्न संभावना के साथ।
स्वतंत्रता के बाद जिस तरह मैकाले की शिक्षा पद्धति को स्वीकार किया गया। वह हमारे राजनीतिक पुरोधाओं के समाज बोधी दायित्व को दर्शाने के लिए पर्याप्त है। भारत में शिक्षा के स्तर पर कोई व्यापक फ¢रबदल नहंी हुआ है और जो कुछ हुआ दिख रहा है वह शिक्षा के खाते में आए धन को व्यय करने की कागजी औपचारिकता निभाने का है। हमने मैकाले की जिस शिक्षा व्यवस्था को स्वीकार किया वह भारत में क्लर्क बनाने के लिए, ब्रिटेन का शासन चलाने के लिए बनाई गई थी। इस व्यवस्था से ‘शासन सटक’ पैदा किया जा रहा था। शिक्षा सीधे तौर पर समाज से जुड़ी होनी चाहिए। परंतु हमारी शिक्षा में समाज के आवश्यक और वैकल्पिक प्रश्नांे के लिए कोई पाठ्यक्रम नहीं है। ऐसे पाठ्यक्रम नहीं हैं जो समाज के हितों के पोषक हों। यहां शिक्षा रंगीन सपने बेचती है। कल्पनाएं बेचती है। यहां पाठ्यक्रम में ‘सोती सुंदरी’ है। उसके सोने के बाल हंैं। एक राजकुमार है जो सोती सुंदरी को छूता है। पढ़ा जाता है। एक ओर ‘ज’ से जहाज है। तो दूसरी ओर ज से जमाखोर। विसंगति यह है कि जमाखोर की जरूरत वाले विद्यार्थी को जहाज और जहाज की जरूरत वाले विद्यार्थी को जमाखोर पाया जा रहा है। हम अभी भी ब्रिटेन और मैकाले की शिक्षा दे रहे हैं। जो आज हमारे लिए अपर्याप्त है। अधूरी है। यह मात्र रोजी-रोटी की शिक्षा देती है। अंर्तदृष्टि नहीं देती। रोजी-रोटी के लिए मिलने वाली शिक्षा प्रतिस्पर्धात्मक होती है। प्रतिस्पर्धात्मक शिक्षा में स्वार्थ व ईष्या का समावेश हो जाने पर आत्मघाती हो जाती है। घातक हो जाती है। प्रतिस्पर्धा में प्राप्ति निहित होती है। आज यह पाना येन-क¢न-प्रकारेण हो गया है। इसके लिए आदमी-आदमी, प्रतियोगी-प्रतियोगी को छलना पड़ता है। संघर्ष करना पड़ता है। जिससे मैत्री भाव समाप्त हो जाता है। आपसी आंनद मरता है।
हमारी शिक्षा में सीखना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है परीक्षा में उत्तीर्ण होना। एक-दो साल के पढ़े को, सीखे को तीन घंटे में लिखना होता है। तीन घंटे के लिखे को परीक्षक पांच मिनट में जांच देते हैं। जांचते समय भी कई और प्रभाव यानि परीक्षक का मूड, परीक्षक का बौद्धिक वर्गवाद भी काम करता है। यदि परीक्षक की उस विषय पर पुस्तक है तो ात्र ने उसे पा है। उसके बारे में लिखा है या नहीं, यह भी जांचने के दौरान काम करता है। हमारी शिक्षा भविष्य की वेदी पर कभी वर्तमान की बलि चाती है तो कभी वर्तमान की बेदी पर भविष्य की बलि। हमारी शिक्षा में खोया-पाया का सिद्धांत आवश्यक है। खोया-पाया का यह भाव श्रेणी में उत्तीर्ण होने के क्रम की बीमारी पैदा करता है। विद्यार्थियों में श्रेष्ठता और निकृष्टता का भाव भरता है। कितना हास्यास्पद है कि छात्र के वर्ष भर का किया-धिया निर्णायक नहंी होता है। निर्णायक सिर्फ तीन घंटे होते हैं। नतीजतन, छात्र भी धीरे-धीरे मेहनत से कटने लगता है। वह तलाशने लगता है- पांच सवाल। वह अपनी ऊर्जा का प्रयोग अध्यापक के इर्द-गिर्द रहने में लगाता है। अध्यापक भी इसका लाभ उठाते हैं। पांच प्रश्नों के ‘अमोघ अस्त्र’ को परीक्षा तक संभाले रहते हैं। कुछ अध्यापक तो संभाले रहने के अपने हुनर का अतिरिक्त लाभ भी चाहते हैं। उन्हें मिलता भी है। शिक्षक अपना मूल धर्म भूल गया है। वह वर्तमान से कटा है। जबकि परिस्थितियां लगातार बदल रही हैं। ज्ञान राशि नित्य बढ़ रही है। ज्ञान का विस्फोट निरंतर जारी है। हम अपनी शिक्षा में इतिहास के संबंध में भी कोई मौलिक दृष्टिकोण नहीं बना पाए है। यही वजह है कि चंगेज खां, नादिरशाह, हिटलर और तैमूर लंग को इतिहास मान बैठे हैं। जबकि ये दुख-स्वप्न है। इन्हें इतिहास मानने की गलती का खामियाजा है कि तमाम लोग छोटे-छोटे इलाकों में इनके पथ का अनुगमन करते दिखते हैं।
इतिहास उन्हीं से भरा होना चाहिए जो हमारे प्रेरणा पुंज हैं। क्योंकि प्रेरणा पुंजों से न क¢वल हमे संबल मिलता है। बल्कि जीवन और समाज के लिए राह भी दिखती है। हमारे देश का राजनीतिज्ञ भी नहीं चाहता कि शिक्षा एक सरीखी हो। एक सरीखी शिक्षा में एक तरह के मस्तिष्क पैदा होंगे। एक तरह के मस्तिष्क बने तो राजनीतिज्ञ के विटन का कुचक्र किस तरह चल पाएगा। कैसे बांटों और राज्य करो फले-फूलेगा।
जिस शिक्षा का क¢वल डिग्री से संबंध हो। वह भी ऐसा संबंध कि स्नातक डिग्री लेने के बाद परास्नातक में प्रवेश के लिए परीक्षा देनी पड़े। यानि हर बड़ी कक्षा में प्रवेश के लिए पुरानी कक्षा के अंकों का कोई मतलब नहीं। दफ्तरी बनने के लिए आपको प्रतियोगिता देनी होगी। यह डिग्रियंा हमें अकर्मण्य बनाती है। बीए पास कर लेने के बाद ग्वाले का लड़का दूध दुहने में शर्म महसूस करता है। ब्राम्हण के बेटे को संस्कृत पढ़ने में हया नजर आती है। कृषि स्नातक चाहता है कि फाइलों में गेंहूं उगे और उसको दस्तखत से काट लिया जाए। कान्वेंट शिक्षा का भूत तो हम लोगों पर इस कदर सवार है कि पत्नियों का भी साक्षात्कार करवा बैठते हैं। प्रवेश के लिए डोनेशन देते हैं। डोनेशन से प्रवेश पाने वाला छात्र क्या पढ़ेगा। दूसरे बच्चों की निगाह में उसकी क्या छवि होगी। हमने स्कूलों मंे प्रवेश को स्टेटस मान लिया है। कान्वेंट की तालीम में मां-ममी और पिताजी -डैड हो जाते हैं। फिर बुढ़ापे में लोगों को बच्चों से श्रवण कुमार सरीखी आशाएं क्यों होती हैं ? इन इंगिलश स्कूलों में संस्कार न भारतीय होते है न बनते हैं। इनमें अधकचरा पन रहता है। अंग्रेजी को भाषा के स्तर पर लेना गलत नहीं है। पर हम इसे संस्कार के स्तर पर लेने लगते हैं। हमारे यहां जितने भी लोगों ने किसी भी क्षेत्र में मौलिक कार्य किया। उनमें 90 फीसदी लोग टाट-पट्टी के स्कूलों के रहे हैं। हम बच्चों को मौलिकता के लिए न तो जन्म रहे हैं और न ही पढ़ा रहे हैं। हमारी शिक्षा छात्रों में आत्म सम्मान नहीं भर रही है। अभिभावक भी नहीं चाहते हैं कि बच्चों में आत्मसम्मान हो। प्रेमचंद्र ने ‘नमक का दरोगा’ कहानी लिखी थी। जिसमें नमक का दरोगा रिश्वत नहीं स्वीकारता। तमाम परेशानियां झेलता है। पंरतु आज हमारे अभिभावक बच्चों की ‘सरकारी नौकरी’ ‘अंडर द टेबल मनी’ जैसे संस्कारों में पालते हैं।
आज दादी मां कहानियां सुनाकर बच्चों मंे आदर्श चरित्र नहीं जन पातीं। जबकि यहां अभिमन्यु ने गर्भ में चक्रव्यूह तोड़ना सीखा था। हम बच्चों में कोई नैतिकता नहंी जन पा रहे हैं। हमें आत्म सम्मान व नैतिकता जनना चाहिए। हमने जो संस्कार जने हैं। उसमें महाराणा प्रताप के घास की रोटियां खाने पर सवाल है ? आखिर ऐसी मानसिकता, ऐसी पीढ़ी हम क्यों पाल रहे हैं। हम भी कुछ हैं, यह ध्यान रहे जैसी सूक्ति हमारी ही है। हमारे लिए, हमारे बच्चों के लिए नौकरी चाहिए। शिक्षा की विद्रूपता यह है कि बच्चे को अभिरुचि के मुताबिक न तालीम मिलती है न ही रोजगार। हमारी वर्तमान शिक्षा पलायन के जन्मदात्री है। यह पलायन गांवों से नगर की ओर। नगर से महानगर की ओर। महानगर से विदेशों की ओर है। हिंदुस्तान से कितने प्रथम कोटि के लोग भाग गए हैं। इसका हमें पता नहीं है। प्रथम कोटि के विचारक यदि दो-चार भाग जाएं तो सब कुछ गड़बड़ हो जाता है। आइंसटीन को जर्मनी से भगा देने का परिणायम यह हुआ कि जो एटमबम जर्मनी में बन सकता था। वह अमरीका में बना। शिक्षा व्यवस्था की स्थिति तो यह हो उठी है कि हमने भोर का पहाड़ा पढ़ाने का दायित्व उन्हें दे रखा है। जिन्होंने उगता हुआ सूरज नहीं देखा है और संस्कृति के विस्तार पर बेड टी की आशा में पड़े हैं। हमारे पास एक संपन्न संस्कृति धरोहर भी है। जिसमें नारियों को सम्मान देते हुए कहा कहा गया है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यंतें रमंते तत्र देवता जबकि हजारों वर्ष पूर्व ही चीन में यह माना जाता था कि स्त्रियों के भीतर कोई आत्मा नहीं होती है। इतना ही नहीं, स्त्रियों की गिनती जड़ पदार्थ के साथ की जाती थी। पश्चिम में भी स्त्रियों को संपदा मानने की पंरपरा जीवित है।
इसके बाद भी हमारे यहां स्त्रियां पश्चिम के तर्ज पर नारी मुक्ति आंदोलन चलाने में जुटी हैं। यह तो संभव है कि स्त्रियों को संपदा समझने की मानसिकता से मुक्ति दिलवाने का प्रयास हो परंतु क्या यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता से भी मुक्ति चाहिए। पश्चिम ने स्त्री को पुरुष जैसी दीक्षा और शिक्षा के भाव से नारी से उसका महत्व छीना। हमारी संस्कृति नारी को सृजनकर्ता स्वीकारती है। यही सृजन, निर्माण उसे पूज्यनीय बनाता है। परंतु पश्चिम में नारी समानता जैसी बातें चलाकर नारी का स्त्रैण नष्ट करने का एक षडयंत्र चलाया जा रहा है। नारियंा पुरुषों के नकल में निर्मित की जा रही हैं। पश्चिम नहीं मानता कि स्त्री और पुरुष के चित्त में बुनियादी भेद और भिन्नता है।
हमारे पूर्वज नासमझ नहीं थे। पुरुषों के लिए उन्हांेने व्यायाम खोजा तो स्त्रियों के लिए नृत्य। कारण नृत्य में लययुक्तता है। जो स्त्रियों के हार्मोन्स को, उसके शरीर के रासायनिक तत्वों को एक विशेष तरह की गतिमयता और संगति से भरते हैं। जबकि व्यायाम मनुष्य में तीव्रता भरता है। यह विरोध ही आकर्षण का कारण रहा है।
समानता से पश्चिम में परिवार टूटे। भारत भी इस मानसिक गुलामी को स्वीकार कर रहा है। यहां भी परिवार टूटने गला है। न्यूक्लियर फैमिली की संकल्पना प्रसार पा रही है। एक दशक पहले हमारे यहां घर थे। अब मकान हैं। घर और मकान का फर्क हमारा सांस्कृतिक क्षरण है। आज स्त्रियों में पुरुषों जैसे कपड़े पहनने की होड़ है। यह पश्चिम की नकल है। हमने कभी नहीं सोचा कि जीवन की छोटी बात सारे जीवन को प्रभावित करती है। पश्चिम में चुस्त कपड़े पहने जाते हैं। चुस्त कपड़े आदमी को लड़ने के लिए तत्पर बनाते हैं। हमारे यहां, हमारी संस्कृति में ढीले परिधान की व्यवस्था है। ढीले कपड़ेे आदमी को शांत करते हंै। मौन करते हैं। यही कारण है कि आज तक साधुआंे की किसी भी परंपरा ने चुस्त कपड़े नहंी पहने। सैनिक और नौकरों को चुस्त कपड़े पहनाए जाते हैं।
हमारी संस्कृति ने स्त्री, पुषों के परिधान में विभिन्नता बनाई थी। स्त्रियों के कपड़े पुरुष जैसे नहंी होने चाहिए। लेकिन हमारी औपनिवेशक मानसिकता ने इसे स्टेटस सिंबल स्वीकार कर लिया है। भारत में स्त्रियों का पुरुषों के वस्त्रों के पहनावे की ओर झुकाव बढ़ रहा है। इससे हमारी नारी, नारी का स्त्रैण, समाप्त हो रहा है। स्त्रैण मरेगा तो परिवार टूटेंगे। घर की जगह मकान बनेंगे। हमारी संवेदना मरेगी। संवेदना मानवता की जड़-मूल है। फिर मानवता को कितना गंभीर खतरा झेलना पड़ेगा। इससे बचने की जरूरत है।
भारत की स्थिति ऐसी है जैसे एक ज्योतिषी आकाश की तरफ आंखे उठाकर तारों का अध्ययन कर रहा था और रास्ते पर भी चल रहा था। उसे पता नहंी वह रास्ता कब भटक गया। भारत के लोगों की आंखें पश्चिमी देशों पर लगी हैं। रास्ता उसे भारत में भारतीय संस्कृति में तय करना है तो उसे भटकने से कौन रोक पाएगा। हमारी समस्याएं पृथ्वी पर हैं और आंखे सदा से आकाश पर लगी रहती हैं। हम पाश्चात्य देशों के चकाचैंध का अध्ययन कर रहे हैं पर रास्ते सारे भटकते जा रहे हैं। इस भटकाव से वापसी दुह होती जा रही है। हमने बच्चों को बोतल पकाया। बच्चे मां से दूर होने लगे। बोतल संस्कृति बढ़ने लगी। बच्चों पर बीमारियों का प्रकोप बढ़ा और अब हम मां के दूध को तमाम विशेषणों से वैज्ञानिक उपलब्धियों से महिमा मंडित करने में फिर जुटे हैं। आर्थिक व्यय कर रहे हैं। यह किसी देश के लिए कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसे अपनी संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए अपने ही देश मंे विज्ञापन करना पड़े।
हमारे जीने में हमारे विचार में एक बुनियादी द्वैत पैदा हो गया है। एक विरोध में जी रहे हैं हम। हमारा विचार एक तरफ चलता जीवन दूसरी तरफ। इसलिए कभी विचार विकसित हो जाता है और जीवन अविकसित। कभी जीवन विकसित हो जाता है विचार अविकसित। यह असंतुलन बना रहता है। यह असंतुलन कांफ्लिक्ट बनाए रखता है हममे। इसे दूर करना होगा। जैसे स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों की ओर लौटो नारा दिया था। उसी तरह हमें स्वीकारना होगा-संस्कृति की ओर लौटो। यही विकल्प शेष है। नहीं तो हमारा भटकाव, हमारा कथित विदेशीपन हमें हमारी जमीन से उखा फेंक¢गा।
हम सभी लोगों को अपने-अपने स्तर पर इस विदेशी प्रभाव, ओपनिवेशिक मस्तिष्क और इस गुलामी की समानांतर शैली को तोड़ना होगा। इसके लिए संकल्प लेना होगा। इस दिशा में भारत विकास परिषद के प्रयास और आगे बढ़े। लक्ष्य पाए तथा भारतीय संस्कृति की पुनस्र्थापना करने में मील के पत्थर साबित हांे। इसी संपन्न संभावना के साथ।
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