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तलघर संस्कृति
भाववाद से संपन्न भारतीय सांस्कृतिक परंपरा धीरे-धीरे इतिहास का सबब बनती जा रही है। भौतिकवादी संस्कृति ने आक्टोपस रूपी अपने अंग फैलाकर जिस जमात को अपनी ओर आकर्षित किया है वह देश का भविष्य है। युवा है। उसमें अनंत संभावनाएं और अनंत ऊर्जा है। इसी युवा के बूते पर भारत न क¢वल विश्व गुरू बनने की दौड़ में सबसे आगे है बल्कि आर्थिक साम्राज्य की स्थापना के नजरिए से भी उसने अमेरिका और समूचे यूरोप के युवाओं को काफी पीछे छोड़ दिया है। दुनिया की शायद ही कोई ऐसी दस बड़ी उपलब्धियां हों जिसमें शरीक होने वाले पर से दस लोगों में किसी न किसी भारतीय का नाम न हो। लेकिन पश्चिम को पाने की प्रक्रिया में जिस तरह हमारे युवाओं में पश्चिमी संस्कृति, जीवन शैली, मूल्य, संगीत और कला के प्रति आकर्षण बढ़ा है, उसके चलते देश के भविष्य कहे जाने वाले युवाओं के सामने कई ऐसे प्रश्न खे हुए हैं जिनका जवाब उनके पास नहीं है। उनकी पीढ़ियों के पास नहीं है। हद तो यह है कि इन यक्ष प्रश्नों का जवाब देने में उनके पूर्वज भी अब खुद को नाकाबिल मान रहे हैं क्योंकि इसका जवाब अनंत संभावनाआंे और ऊर्जा से संप्रक्त युवा की आलोचना है। यह स्यापा है कि - युवा भटक गया है। युवा गुमराह हो गया है। क्यांेकि पश्चिम के मूल्य, जीवन शैली, संस्कृति, संगीत और कला के प्रति भारतीय युवाओं का भान अपने मूल्य, संस्कृति, जीवन शैली, संगीत और कला को साथ-साथ सहेजने की परंपरा का हिस्सा नहीं है। बल्कि पश्चिम उसका आदर्श हो गया है । उसे नहीं पता कि पश्चिम पूरब की ओर देख रहा है। वह यह भूल रहा है कि भारतीय संगीत, कला, जीवन शैली, संस्कृति और मूल्य में न क¢वल उसके अपने सभी सवालों के जवाब हैं बल्कि भारतीय मौसम और परिवेश के लिहाज से उन्हें इस कदर गा गया है कि वे जीवन को राह दिखाते हैं। जीवन को तोष देते हैं। जीवन को अनंत ऊर्जा से भरते हैं।
परंतु पश्चिमी देशों का संगीत-संस्कृति इन युवाओं के लिए आधुनिक मूल्यांे का आदर्श हो गया है। पूरब का युवा जब पश्चिम के भाव-बोध मंे संस्कृति, जीवन शैली, मूल्य संगीत और कला तलाशने लगता है तो वह जो होता है और जो होना चाहता है। या दिखना चाहता है उससे वह एकदम अलग हो जाता है। यानि हम कह सकते हैं कि वह अपने संपूर्ण व्यक्तित्व और बोध में मल्टीफोल्ड करता है। यह मल्टीफोल्ड उसे भले रास आता हो, क्योंकि उसके सामने इसका असर देखने के लिए आईना नहीं होता। वह दूसरों की आंखों में झांककर इसका असर नहीं पढ़ना चाहता। अगर कभी उसने किसी आंखांे में गहराई तक उतरने की कोशिश की तो वह उसकी उस प्रेमिका की झील सरीखी उपमाएं हासिल की हुई आंख होती है। जिसमें प्रेम नहीं, आसक्ति भी नहीं, बल्कि इंस्टेंट लव का खुमार होता है। जिसमें पल भर में सब कुछ हासिल करने का जोश और पल भर में हासिल हो जाने का लुत्फ। पल भर में ही हासिल न होने का अवसाद होता है।
पश्चिमी जर्मनी में पिछले दिनों एक अध्ययन सामने आया है। इस अध्ययन में वहां के आत्मविस्मृति की हालत में वहां का युवा वर्ग की स्थितियां बयां की गई हैं। इस शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक जर्मनी के उन संगीतघरोें के सर्वेक्षण और अध्ययन पर आधारित है जहां कान फोड़ू संगीत में झूमता हुआ युवक पल भर के लिए पल भर को जीना चाहता है। जहां सिगरेट के कश के बीच हाथ में अधभरे जाम के कलाकृति वाले प्याले, लखाते हुए कदम के बीच नृत्य का भान होता है। वहां युवा अपनी सुधि खोने का अवसर जुटाता है। युवतियां सदियांे की दासतां की बेड़ियां तोड़ते हुए प्रगतिशील होने की खातिर सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार दिखती हैं। देर रात को शुरू होने वाले इन तलघर संस्कृति वाले संगीत आयोजनों के युवाओं को देख कर उसमें अंतरनिहित अनंत ऊर्जा का जुमला बेमेल लगने लगता है।
इन संगीत आयोजनों में जो लोग होते हैं वे अपने असली चेहरे से बचना चाहते हैं। वे नकली बन जाना चाहते हंै। वे नकली लोग होते हैं। वे संगीत के बारे मंे कुछ नहीं जानते। राॅक और पाॅप उनके जुमले हैं, इसके मतलब और इसके तरीके इन्हें भी नहीं पता। स्नायु मंलों को आक्रामक कर उत्तेजित करने का संगीत और आंखों पर कुप्रभाव ढोते हुए आत्म विस्मृति की स्थिति पैदा करने वाली रोशनियां हमें जो कुछ और जितना भी भय करती हैं। उसका भान नहीं हो पाता। डीजे की धुन पर थिरकना, एक-दूसरे की बाहों में झूमने का चलन जब तक शहरों तक सीमित था। तब तक यह उतनी चिंता का सबब नहीं था जितना अब जब यह सुदूर गांवों तक जा पहुंचा है। पहले भी गांव के युवक इन्हें देखने के लिए शहर तक आ जाते थे। पर वे अपवाद थे। इक्का-दुक्का थे। लेकिन गांवों तक पहुंचकर इसने यह जता दिया है कि युवकों में ही नहीं युवतियों में भी इस संस्कृति का वाहक बनने की क्षमता और ललक है। इसकी वजह वह प्लेटफार्म है जहां विपरीत सेक्स के प्रति निकट संपर्क की उम्मीद होती है। हालांकि यह सतही होता है। पर यह मिलन बिंदु इस सतह को भी दूर तक ले जाने का मौका और मतलब मुहैया कराता है।
पूंजीवाद के विकास के बाद खुद को भुलाने, स्मृतिहीन बना देने वाले इस चलन के वाहक पहले गतिशील और प्रगतिशील युवक-युवतियां थे। आज पुरान पंथियों में भी इस झूठे संसार में जीने की चाह दिखने लगी है। इस संगीत और संस्कृति के वाहकों ने यह जताना शुरू कर दिया है कि जिसे वास्तविक जीवन, वास्तविक संगीत, वास्तविक कला, वास्तविक मूल्य और वास्तविक शैली का आनंद लेना है। उन्हें यही राह पकनी होगी। क्यांेकि यहां विस्मृति का अभ्यास कराया जाता है। आत्म विस्मृति का, इतिहास विस्मृति का, समाज विस्मृति का। विस्मृति की यह अवस्थाएं युवाओं में कंुठा जनती हैं। यही नहीं, विस्मृति की कोशिश नशे की ओर भी ले जाती है जिसकी शुरुआत सिगरेट के एक-दो कश मारने या फिर सिगरेट चूसने से होती है। सिगरेट के धुए में आत्म विस्मृत युवा आकाश भाषित हो अपना वर्तमान खोता है। भविष्य के जो भी सपने खोता है उसके लिए उसके पास न तो जमीन होता है न ही खाद-पानी। यह पूरी कोशिश स्नायु तंत्र शिथिल करती है। खेद यह है कि अब इस संस्कृति, संगीत, जीवन शैली और कला की पैठ टीवी और सिनेमा के मार्फत हमारे घरों तक हो गई है। चित्र-विचित्र पोशाकों में जोर-जोर से चिल्लाकर कभी क्रंदन और कभी रुदन की शैली में परोसे गए संगीत के दृश्यों के पीछे हम भाग रहे हैं। हम अपने बच्चे को इन दृश्यों के सामने खड़े करके अपनी उंगलियों के संक¢त पर नचाना चाहते हैं। थिरकते हुए बच्चे को देखकर खुश हो लेते हैं। पर शायद यह हमारी स्मृति से निकल चुका होता है कि इसके मार्फत हम उसमें उसी पश्चिमी संगीत, कला और मूल्य के बीज बो रहे हैं।
हम वही गलती दोहरा रहे हैं जिसमें कभी हमने मां के सीने से चिपट कर दूध पीने को खारिज किया था। हमारे डाक्टरों ने यह फैलाया था कि बच्चे को मां के दूध की जगह बोतल का सहारा लेना चाहिए। पर जिंदगी की शुआत बोतल से करने वाली युवा पीढ़ी अगर युवा अवस्था में बोतल को हमकदम बनाए तो गैर वाजिब क्या होगा। क्योंकि इस उम्र में उसे बोतल को हमकदम बनाने के लिए किसी को तिलांजलि नहीं देनी पड़ रही है। जबकि बचपन में बोतल मां के दूध के विकल्प के रूप में परोसी जाती है। हालांकि तमाम लोगों ने बोतल के दूध का प्रतिरोध किया। पर न जाने कौन सी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ताकतें बोतल के दूध की हिमायती थीं कि विरोधियों की आवाज नक्कारखाने में तूती बन कर रह गई। अब हम फिर पता नहीं किन ताकतों की शह पर मां के दूध पीने-पिलाने की न क¢वल परंपरा को एक बार फिर स्थापित करने में जुटे हैं। बल्कि महिलाआंे को यह भी बता रहे हैं कि - ‘हाऊ टू हैंडिल योर ब्रेस्ट’। अब तो हम हिंदी और अंगे्रजी का पूरा वाक्य बोलना भूल गए हैं। पश्चिम से हमने कुछ शब्द उधार लिए हैं तो पूरब में अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। हर शब्द का मस्तिष्क में एक चित्रात्मक रूप स्वरूप होता है। जो उस शब्द के कहे जाने पर क्रिया और प्रतिक्रिया के मार्फत संवेदना जनता या फिर घृणा उत्पन्न करता है। पर जबसे हमने क्रोड और क्रियोल की भाषा में विदेशी शब्दों को प्रयोग करना शुरू किया है। तब से शब्दों के प्रयोग का रूढ़ात्मक स्वरूप खत्म हुआ है। चुका है। इसने हमें पश्चिम की ओर सिर उठाकर देखने के लिए इसलिए मजबूर किया है क्योंकि हम अपने अतीत से कट गए हैं। इतिहास से कटा, अतीत से कटा, समाज या आदमी वैभव हासिल नहीं कर सकता। यह सत्य हम भूलते जा रहे हैं। हमने पश्चिम का जो वैभव देखा और कुबूल किया है वह पूरब से एकदम अलग है। पूरब के वैभव में संतुष्टि भी है। पश्चिम के वैभव में सिर्फ दौड़ शामिल है। पचास की उम्र के बाद यह युवा पीढ़ी जब पलटकर अपने पुराने दिनों का विश्लेषण करेगी तो जरूर उसे यह वेदना सताएगी कि उसने अपने अतीत के लिए कुछ नहीं किया। कभी भारत को सोने की चिड़िया कहा जाना पुरखों का अतीत के लिए किए गए काम-काज का ही नतीजा था। पर हम जिनके पुरखे हैं उनके लिए क्या कर रहे हैं, इस सवाल का जवाब भी पश्चिम की ओर उन्मुख युवा को तलाशना होगा।
परंतु पश्चिमी देशों का संगीत-संस्कृति इन युवाओं के लिए आधुनिक मूल्यांे का आदर्श हो गया है। पूरब का युवा जब पश्चिम के भाव-बोध मंे संस्कृति, जीवन शैली, मूल्य संगीत और कला तलाशने लगता है तो वह जो होता है और जो होना चाहता है। या दिखना चाहता है उससे वह एकदम अलग हो जाता है। यानि हम कह सकते हैं कि वह अपने संपूर्ण व्यक्तित्व और बोध में मल्टीफोल्ड करता है। यह मल्टीफोल्ड उसे भले रास आता हो, क्योंकि उसके सामने इसका असर देखने के लिए आईना नहीं होता। वह दूसरों की आंखों में झांककर इसका असर नहीं पढ़ना चाहता। अगर कभी उसने किसी आंखांे में गहराई तक उतरने की कोशिश की तो वह उसकी उस प्रेमिका की झील सरीखी उपमाएं हासिल की हुई आंख होती है। जिसमें प्रेम नहीं, आसक्ति भी नहीं, बल्कि इंस्टेंट लव का खुमार होता है। जिसमें पल भर में सब कुछ हासिल करने का जोश और पल भर में हासिल हो जाने का लुत्फ। पल भर में ही हासिल न होने का अवसाद होता है।
पश्चिमी जर्मनी में पिछले दिनों एक अध्ययन सामने आया है। इस अध्ययन में वहां के आत्मविस्मृति की हालत में वहां का युवा वर्ग की स्थितियां बयां की गई हैं। इस शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक जर्मनी के उन संगीतघरोें के सर्वेक्षण और अध्ययन पर आधारित है जहां कान फोड़ू संगीत में झूमता हुआ युवक पल भर के लिए पल भर को जीना चाहता है। जहां सिगरेट के कश के बीच हाथ में अधभरे जाम के कलाकृति वाले प्याले, लखाते हुए कदम के बीच नृत्य का भान होता है। वहां युवा अपनी सुधि खोने का अवसर जुटाता है। युवतियां सदियांे की दासतां की बेड़ियां तोड़ते हुए प्रगतिशील होने की खातिर सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार दिखती हैं। देर रात को शुरू होने वाले इन तलघर संस्कृति वाले संगीत आयोजनों के युवाओं को देख कर उसमें अंतरनिहित अनंत ऊर्जा का जुमला बेमेल लगने लगता है।
इन संगीत आयोजनों में जो लोग होते हैं वे अपने असली चेहरे से बचना चाहते हैं। वे नकली बन जाना चाहते हंै। वे नकली लोग होते हैं। वे संगीत के बारे मंे कुछ नहीं जानते। राॅक और पाॅप उनके जुमले हैं, इसके मतलब और इसके तरीके इन्हें भी नहीं पता। स्नायु मंलों को आक्रामक कर उत्तेजित करने का संगीत और आंखों पर कुप्रभाव ढोते हुए आत्म विस्मृति की स्थिति पैदा करने वाली रोशनियां हमें जो कुछ और जितना भी भय करती हैं। उसका भान नहीं हो पाता। डीजे की धुन पर थिरकना, एक-दूसरे की बाहों में झूमने का चलन जब तक शहरों तक सीमित था। तब तक यह उतनी चिंता का सबब नहीं था जितना अब जब यह सुदूर गांवों तक जा पहुंचा है। पहले भी गांव के युवक इन्हें देखने के लिए शहर तक आ जाते थे। पर वे अपवाद थे। इक्का-दुक्का थे। लेकिन गांवों तक पहुंचकर इसने यह जता दिया है कि युवकों में ही नहीं युवतियों में भी इस संस्कृति का वाहक बनने की क्षमता और ललक है। इसकी वजह वह प्लेटफार्म है जहां विपरीत सेक्स के प्रति निकट संपर्क की उम्मीद होती है। हालांकि यह सतही होता है। पर यह मिलन बिंदु इस सतह को भी दूर तक ले जाने का मौका और मतलब मुहैया कराता है।
पूंजीवाद के विकास के बाद खुद को भुलाने, स्मृतिहीन बना देने वाले इस चलन के वाहक पहले गतिशील और प्रगतिशील युवक-युवतियां थे। आज पुरान पंथियों में भी इस झूठे संसार में जीने की चाह दिखने लगी है। इस संगीत और संस्कृति के वाहकों ने यह जताना शुरू कर दिया है कि जिसे वास्तविक जीवन, वास्तविक संगीत, वास्तविक कला, वास्तविक मूल्य और वास्तविक शैली का आनंद लेना है। उन्हें यही राह पकनी होगी। क्यांेकि यहां विस्मृति का अभ्यास कराया जाता है। आत्म विस्मृति का, इतिहास विस्मृति का, समाज विस्मृति का। विस्मृति की यह अवस्थाएं युवाओं में कंुठा जनती हैं। यही नहीं, विस्मृति की कोशिश नशे की ओर भी ले जाती है जिसकी शुरुआत सिगरेट के एक-दो कश मारने या फिर सिगरेट चूसने से होती है। सिगरेट के धुए में आत्म विस्मृत युवा आकाश भाषित हो अपना वर्तमान खोता है। भविष्य के जो भी सपने खोता है उसके लिए उसके पास न तो जमीन होता है न ही खाद-पानी। यह पूरी कोशिश स्नायु तंत्र शिथिल करती है। खेद यह है कि अब इस संस्कृति, संगीत, जीवन शैली और कला की पैठ टीवी और सिनेमा के मार्फत हमारे घरों तक हो गई है। चित्र-विचित्र पोशाकों में जोर-जोर से चिल्लाकर कभी क्रंदन और कभी रुदन की शैली में परोसे गए संगीत के दृश्यों के पीछे हम भाग रहे हैं। हम अपने बच्चे को इन दृश्यों के सामने खड़े करके अपनी उंगलियों के संक¢त पर नचाना चाहते हैं। थिरकते हुए बच्चे को देखकर खुश हो लेते हैं। पर शायद यह हमारी स्मृति से निकल चुका होता है कि इसके मार्फत हम उसमें उसी पश्चिमी संगीत, कला और मूल्य के बीज बो रहे हैं।
हम वही गलती दोहरा रहे हैं जिसमें कभी हमने मां के सीने से चिपट कर दूध पीने को खारिज किया था। हमारे डाक्टरों ने यह फैलाया था कि बच्चे को मां के दूध की जगह बोतल का सहारा लेना चाहिए। पर जिंदगी की शुआत बोतल से करने वाली युवा पीढ़ी अगर युवा अवस्था में बोतल को हमकदम बनाए तो गैर वाजिब क्या होगा। क्योंकि इस उम्र में उसे बोतल को हमकदम बनाने के लिए किसी को तिलांजलि नहीं देनी पड़ रही है। जबकि बचपन में बोतल मां के दूध के विकल्प के रूप में परोसी जाती है। हालांकि तमाम लोगों ने बोतल के दूध का प्रतिरोध किया। पर न जाने कौन सी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ताकतें बोतल के दूध की हिमायती थीं कि विरोधियों की आवाज नक्कारखाने में तूती बन कर रह गई। अब हम फिर पता नहीं किन ताकतों की शह पर मां के दूध पीने-पिलाने की न क¢वल परंपरा को एक बार फिर स्थापित करने में जुटे हैं। बल्कि महिलाआंे को यह भी बता रहे हैं कि - ‘हाऊ टू हैंडिल योर ब्रेस्ट’। अब तो हम हिंदी और अंगे्रजी का पूरा वाक्य बोलना भूल गए हैं। पश्चिम से हमने कुछ शब्द उधार लिए हैं तो पूरब में अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। हर शब्द का मस्तिष्क में एक चित्रात्मक रूप स्वरूप होता है। जो उस शब्द के कहे जाने पर क्रिया और प्रतिक्रिया के मार्फत संवेदना जनता या फिर घृणा उत्पन्न करता है। पर जबसे हमने क्रोड और क्रियोल की भाषा में विदेशी शब्दों को प्रयोग करना शुरू किया है। तब से शब्दों के प्रयोग का रूढ़ात्मक स्वरूप खत्म हुआ है। चुका है। इसने हमें पश्चिम की ओर सिर उठाकर देखने के लिए इसलिए मजबूर किया है क्योंकि हम अपने अतीत से कट गए हैं। इतिहास से कटा, अतीत से कटा, समाज या आदमी वैभव हासिल नहीं कर सकता। यह सत्य हम भूलते जा रहे हैं। हमने पश्चिम का जो वैभव देखा और कुबूल किया है वह पूरब से एकदम अलग है। पूरब के वैभव में संतुष्टि भी है। पश्चिम के वैभव में सिर्फ दौड़ शामिल है। पचास की उम्र के बाद यह युवा पीढ़ी जब पलटकर अपने पुराने दिनों का विश्लेषण करेगी तो जरूर उसे यह वेदना सताएगी कि उसने अपने अतीत के लिए कुछ नहीं किया। कभी भारत को सोने की चिड़िया कहा जाना पुरखों का अतीत के लिए किए गए काम-काज का ही नतीजा था। पर हम जिनके पुरखे हैं उनके लिए क्या कर रहे हैं, इस सवाल का जवाब भी पश्चिम की ओर उन्मुख युवा को तलाशना होगा।
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