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धर्मनिरपेक्षता के मायने

Dr. Yogesh mishr
Published on: 13 Sept 1992 12:49 PM IST
धर्मनिरपेक्षता शब्द जो हमारे यहां आमतौर पर व्यवत होता है। वह खासा विवाद का विषय है। धर्मनिरपेक्षता के  अंग्रेजी अनुवाद ‘सेक्युलरिज्म’ ने तो इस संकट को और भी गहराया है। मूलतः धर्मनिरपेक्ष राज्यों का जन्म यूरोप के  चर्च अधिपत्य समाज के  कारण हुआ।
‘सेक्युलरिज्म’ के  इतिहास पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि सेट मार्क ने अपने एक उपदेश में कहा था कि जो कुछ क¢सर (राजा) का है। वह उसे और जो कुछ ईश्वर का है वह उसे समर्पित कर दो। मिलान में 312 ई. के  शिलालेख मार्क के  इस उपदेश की पुष्टि करते हैं। सम्राट कांस्टाटइन ने ईसाई धर्म स्वीकार करने के  बाद इसे अपना राजधर्म घोषित किया तथा 346 ई में उसने गैर इसाई पूजागृहों को बंद कराने का आदेश दे दिया। इसी के  बाद से पूरे यूरोप में कभी चर्च कभी स्टेट एक-दूसरे पर प्रभावी होने लगे परंतु भारत के  इतिहास का सिंहावलोकन करें तो अशोक के  काल को छोड़कर कभी भी कोई धर्म राजकीय संरक्षण में पला, बढ़ा नहीं। सेक्युलरिज्म की विचारधारा मूलरूप से जेम्स मिल और बेंथम के  उपयोगतावाद में निहित है। उल्लेखनीय है कि इन्हें इसकी प्रेरणा, थामस पेन और रिचर्ड कालाईन से मिली, जो ईश्वर की सत्ता में बिल्कुल विश्वास नहीं करते थे।
राजनीति के  क्षेत्र में ‘सेक्युलरिज्म’ का उदय 1832 के  रिफार्म बिल बनने से पहले हुई घटनाओं के  कारण हुआ। जिसे राबर्ट ओवर के  यूटोपियन समाजवाद व चार्टिस्ट आंदोलन से भी प्रेरणा मिली। लेकिन ‘सेक्युलरिज्म’ को यह नाम 1850 में ब्रेला से मिलने के  बाद जार्ज जेकल होलीओक ने दिया जिनका मानना था कि ईश्वर की सत्ता को स्वीकर न करना ‘सेक्युलरिज्म’ की अनिवार्य शर्त है।
यहां धर्म के  माध्यम से लोगों को हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख-ईसाई आदि के  रूप में देखने और समझने के  हम आदी हो गए हैं। यह दृष्टिकोण हमारा सर्वथा गलत है क्योंकि धर्म अपने व्याप्ति के  प्रयास में उन सभी मूल्यों कार्यों को समाहित करता है जिससे लोकमंगल या लोकहित होता हो जिससे मानव कल्याण होता हो। धर्म की यही संकल्पना एक ओर व्यक्ति को स्वतंत्रता प्रदान करती है तो दूसरी ओर लोगों के  प्रति सहिष्णुता भरती है। जिसके  कारण धर्म सार्वकालिक, सार्वभौतिक और सार्वलौकिक होता है।
हमारे यहां सांप्रदायिक दंगे होते रहते हैं। दो बड़े धर्म हिंदू-मुस्लिम आपस में विद्वेष और प्रतिस्पर्धा की स्थिति मे जीते हुए एक-दूसरे को सर्वथा शंका और संदेह से देखते हैं। दोनों एक-दूसरे को प्रतिक्रियावादी बताते हैं। लेकिन हम गंभीरता से देखें तो अंग्रेजों के  आने के  पहले ये दोनों धर्म अपने सबसे कठोर और आडंबर पूर्ण स्थिति में थे फिर भी दोनों धर्म को देखने का आपसी नजरियां इतना गंदा नहीं था। इतना विद्वेषपूर्ण कभी नहीं रहा। जबकि आजकल इन दोनों धर्मों ने अपनी-अपनी सीमाएं व मान्यताएं के  पीछे कारण क्या है ? फिर भी इस तरह की मनोवृत्ति के  पीछे कारण क्या है ? अगर गंभीरता से दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि अंग्रेजों के  आने के  बाद जबसे धर्म का भावानुवाद रिलीजन से किया गया तबसे ही ये समस्याएं गहराई हैं।
धीरे-धीरे हमने, हमारे राजनीतिक तंत्र ने अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के  लिए इस शब्द का विकृत और गलत अभिप्राय हमें समझाया। यहीं से बहुसंख्यक सांप्रदायिकता, अल्पसंख्यक हितों जैसे शब्द गढ़ कर उन्हें सत्ता के  लिए हथियार बनाकर अख्तियार किया गया।
हमारे देश के  संविधान सभा में भी ‘सेक्युलरिज्म’ पर काफी बहस हुई थी। जिसमें भीमराव अंबेडकर ने कहा कि ‘सेक्युलर स्टेट’  का कुल मिलाकर आशय यह है कि संसद को किसी विशिष्ट धर्म को शेष जनता परलागू करने का अधिकार नहीं होगा। पर ‘सेक्युलरिज्म’ का अर्थ ‘रिलीजन’ को समाप्त करना नहीं होता। अंबेडकर ने यह भी कहा था कि रिलीजन सटीक रूप से एक व्यक्ति का मामला है जबकि धर्म का संबंध समाज से होता है।
गांधी ने एक स्थान पर लिखा है कि कोई भी आदमी धर्म के  बगैर नहीं रह सकता लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जो अपने दलील की झोंक में कह सकते हैं कि हमारा धर्म से कोई सरोकार नहीं है। हम नस्तिक हैं लेकिन यह ऐसा ही है जैसे कोई आदमी कहे कि मैं सांस तो लेता। पर मेरी नाक नहीं है। ऐसा कहने वाले लोग धर्म के  बारे में जनता नहीं। गांधी जी धर्म का प्रयोग मुख्यतः नैतिक अर्थ में करते थे।
जवाहर लाल नेहरू  ने अपने जीवन के  उत्तरार्ध में कहा कि रिलीजन शब्द ( या और जुबानों में इस मायने के  और शब्द हैं ) के  मायने तरह-तरह के  लोगों ने जितनी तरह से समझें और दिए हैं, उतना शायद ही किसी जुबान में किसी लफ्ज के  साथ हुआ हो ? शायद ही ऐसे आदर्श मिले जिनके  मन में इस शब्द को सुनकर एक तरह के  विचार उभरते हों। रिलीजन शब्द के  सही मायने , अगर इसके  कोई सही मायने हैं, क्या है, यह कोई नहीं जानता। इसके  कुछ मायने लगाए जाते हैं, जो इसके  ठीक उल्टे होते हैं। अच तो यही हो कि हम इसका प्रयोग करना छोड़ दें। इसकी जगह थियौलौजी, फिलोसफी, मारल्स, एथिक्स, स्पियुलिटी, मेटा फिजिक्स, ड्यूटी सेरिमोनियल जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना शुरू कर दें।
अब हम देख सकते हैं कि रिलीजन शब्द जो धर्म का सही-सही भाषानुवाद नहीं है वह इतने विवादों, वितंाड और असम का शिकार है तो हमारी धर्मनिरपेक्षता इससे कैसे बच सकती है। हमारी धर्मनिरपेक्षता की कितनी परिभाषाएं हो सकती हैं। महाभारत में धर्म के  बारे में कहा गया है जो प्राणियों के  उत्थान में सहायक हो वही धर्म है, यानि धर्म का काम कल्याण है। धर्म व निरपेक्षता का अभिप्राय व आधार सत्यं शिवम् सुंदरम् व सर्वे कल्याण भवंतु  है। होना भी चाहिए। इस बात को श्री एम.एस.जायस की पुस्तक ‘लीगल एंड कांस्टीट्यूशनल हिस्ट्री आफ इंडिया’ से और बल मिलता है। जिसमें लिखा है कि धर्म संस्कृत भाषा का शब्द है जिसके  व्यापक अर्थ हैं। इस जैसा शब्द किसी भाषा में नहीं है।
अब धर्म और रिलीजन में अंतर करके  हमे अपनी धर्मनिरपेक्षता को भी देखना होगा। वैसे भी संप्रदाय निरपेक्षता हमारी संस्कृति में निहित है। जिसे वैदिक ग्रंथों में एको सद विप्रा बहुधा वदंति कहकर व्यक्त किया गया है। वैसे धर्म सत्य भी है। सत्य दो नहीं होते इसलिए धर्म भी दो नहीं हो सकता। धर्म एक है कल्याण। प्राणिमात्र का कल्याण। यही धर्म का स्वरूप हमारी धर्मनिरपेक्षता का आधार है।
Dr. Yogesh mishr

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