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मण्डल रथ की मंशा
मण्डल विवाद अभी न्यायालय की समय खपाऊ वेदी पर है। इसी बीच जद के नेतृत्व ने इस सुप्त पड़ते जा रहे मुद्दे को उभारने के लिए प्रदेश की राजनीति में असफल हुए शरद यादव को मण्डल रथ का सारथी बनाकर वोटों की फसल काटने के लिए भेज दिया है। मण्डल रथ ‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर इस समय प्रदेश में अश्वमेध घोेड़े की तरह विचरण कर रहा है ताकि हिंदी के साम्राज्य पर पुनः राज्याभिषेक हो सके ।
यह ‘सामाजिक न्याय’ का जुमला संविधान से चुराया गया है और इसके साथ वही व्यवहार हो रहा है जैसे ‘अश्वरथामा हतो नरो वा कंुजरो वा।’ क्योंकि हमारे संविधान की प्रस्तावना में लिखा हुआ है न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीति, आर्थिक व राजनीतिक न्याय की संकल्पना को दबाकर जद का राीय नेतृत्व सामाजिक न्याय के ‘स्लोगन’ पर फिर सत्ता पा लेना चाहता है। इसका एक कारण यह भी है कि जद के राीय नेतृत्व का अखिल भारतीय चरित्र कांग्रेस से निकला हुआ है उसने कांग्रेस को ‘गरीबी हटाओ’ व ‘अन्तिम इच्छा।’ जैसे स्लोगन पर सत्ता पाते हुए देखा है।
भारतीय संविधान के अनुच्ेद 15, 16, 46 और 340 के मौलिक अधिकारों में इस बात को जोड़ा गया है कि जो लोग हजारों सालों से हर तरह से शोषित रहे हैं - सामाजिक, मानसिक एवं श्रम के आधार पर जिनका सदियों से उत्पीड़न किया जाता रहा है, उन्हंे राष्ट्र की मुख्य धारा में समानता के स्तर पर लाने के लिए आरक्षण की विशेष व्यवस्था की जाये।
संविधान निर्माताओं ने संविधान की धारा 330 व 332 के अन्तर्गत अनुसूचित जातियों और जनजातियों के प्रतिनिधित्व हेतु लोकसभा और विधान सभाओं में आरक्षण की व्यवस्था की थी। साथ ही संविधान की धारा 15(4) व 16(5) के अन्तर्गत सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति एवं जनजाति हेतु आरक्षण की व्यवस्था थी। संविधान की आरक्षण संबंधी मान्यताओं को लागू करने की दृष्टि से 29 जनवरी 1953 को राष्ट्रपति के आदेशानुसार काका साहब कालेलकर की अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया गया। 30 मार्च, 1955 को कालेलकर आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को प्रेषित कर दी। संविधान के अनुच्छेद 340(3) के अनुसार तीन सितम्बर 1956 को इसकी रिपोर्ट संसद में पेश की गयी फिर 20 सितम्बर 1989 को दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग ‘मण्डल आयोग’ के गठन की घोषणा की गयी। जिसने 31 दिसम्बर 1980 को अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को पेश कर दी। काका कालेलकर आयोग ने 1955 में 2399 जातियों का जिक्र किया और उसमें 839 जातियों को बहुत पिछड़ा बताया, जबकि मण्डल आयोग (1980) के समय में जातियों की संख्या बढ़कर चार हजार हो गयी। इससे स्पष्ट रूप से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इन आयोगों ने पिछड़ों को न्याय के लिए महत्वपूर्ण कार्य करने की जगह भारत की जातियों के संख्यागत विकास के अध्ययन पर ज्यादा महत्वपूर्ण कार्य किया है। दूसरी ओर इस परिणाम पर पहुंचा जा सकता है कि भारत के संविधान में निहित समानता के आधार पर कोई औचित्य नहीं रह जाता क्योंकि जातियों, पिछड़ी जातियों की संख्या में सतत बढ़ोत्तरी हो रही है।
जिससे समानता के लक्ष्य की जगह असमानता की खाई बढ़ रही है।
आरक्षण के अेतिहासिक परिपेक्ष्य को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि इसके बीज स्वतंत्रता पूर्व अंग्रेजों ने ही बो दिये थे क्योंकि 17 अगस्त 1932 को ‘कम्युनल अवार्ड’ की घोषणा प्रधानमंत्री रेम्जले मैक्डानाल्ड ने की जो 1930 में प्रथम गोल मेज सम्मेलन में डा. अम्बेडकर के दलित वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में दिये गये भाषण का परिणाम था।
गांधी जी अंग्रेजों के देश को बांटने की इस साजिश को भांप गये और यरवदा जेल (पूना) से उन्होंने प्रधानमंत्री मेक्डानाल्ड को पत्र लिखा, ‘यदि अछूतों को हिन्दुओं से पृथक किया गया, तो वे अपने जीवन की बाजी लगा देंगे।’ परिणामस्वरूप 24 सितम्बर 1932 की सायं पांच बजे यरवदा जेल में प्रसिद्ध ‘पूना पैक्ट’ हुआ जिसमें अम्बेडकर और मदन मोहन मालवीय ने हस्ताक्षर किया। इस ‘पूना पैक्ट’ को हमारे संविधान में अनुच्छेद 330 से 336 तक रखा गया है और यही हमारा आरक्षण का आधार है।
लेकिन आज जबकि हमारे यहाँ चालीस वर्षों के आरक्षण के परिणाम का मूल्यांकन कर एक नयी आरक्षण नीति लागू करके समानता के सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करने का समय आया तो आरक्षण राजनैतिक हथियार के रूप मंे प्रयुक्त होने लगा, आरक्षण ने अपना यथार्थ स्वरूप खो दिया। आरक्षण सुविधाओं को लेकर समाज में विभाजन की रेखा बढ़ा दी गयी है जाति के नाम पर हिंसा के वटवृक्ष बोये जा रहे हैं ऐसा इसलिए किया जा रहा है कि सामाजिक न्याय के नाम पर शोषक पंूजी पूंजीवादी ताकतों का भय दिखाकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर वर्चस्व कायम रखा जाए। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड़ की यह उक्ति सार्थक लगती है जिसमें उन्होंने कहा कि ‘आरक्षण को और पचास वर्षों तक जारी रखा जाना चाहिए लेकिन क्या इससे राजनीति में जाति की प्रतिष्ठा नहीं बढ़ेगी ? और क्या इनसे हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दोष चिन्हित नहीं होते।’
आरक्षण का मुद्दा, उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है फिर भी वोटों के फसल के लिए रथ लेकर निकल पाना न्याय प्रक्रिया पर अविश्वसनीयता का सवाल खड़ा करता है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के दो बड़े राजनैतिक दल जद व भाजपा अपने-अपने वोटांे के लिए ‘सत्ता के लिए उच्चतम न्यायालय पर अविश्वास का सवाल खड़ा कर दें रहे हैं। फिर आम लोगों के लिए न्यायालय के मायने क्या रह जाएगा।’
मण्डल का मुद्दा सामाजिक न्याय के मुद्दे से भटक गया है उसने समाज, सामाजिक न्याय की स्वअर्थी परिभाषाएं व मानदण्ड तैयार कर लिए हैं जो कि मण्डल संग्राम में नेतृत्व पर दृष्टि डालने से पता चल जाता है। नेतृत्व की मानसिकता का पता इससे लगता है कि मण्डल के वरिष्ठ प्रवक्ता राम विलास पासवान ने दूरदर्शन को दिये अपने एक साक्षात्कार में स्वयं ही कहा था कि अस्वस्थता की स्थिति में वह आरक्षित कोटे से पढ़े डाक्टर से अपने को दिखाना पसन्द नहीं करेंगे। इस तरह दोहरी मानसिकता ग्रसित लोगों द्वारा दलित कल्याण की और सामाजिक न्याय के संकल्प को पूरा करने की बात सोचना भी बेमानी होगी।
यह भी सही है कि एक ऐसे देश में जहां एक बहुत बड़ा क्षेत्र अमुद्रीकृत हो वहां आर्थिक आधार की बात आरम्भिक दौर पर कुछ जंचेगी नहीं और आरक्षण के पक्षधर वाला नेतृत्व इसे स्वीकारेगा नहीं, पर इससे आरक्षण के अभिलाषी लोगों को एक लाभ मिलने की संभावना तो बलवती हो ही जाती है कि ये रथी इस सीमा के आधार पर बाहर हो जाएंगे फिर आरक्षण का प्रयोग राजनैतिक फसल और जातीय हिंसा के लिए नहीं हो पाएगा। कार्य दुरुह है पर दुरुह सम कर समाज को कथित सामाजिक न्याय के जातीय उन्माद में रोकने की आवश्यकता तो नहीं ही है।
यह ‘सामाजिक न्याय’ का जुमला संविधान से चुराया गया है और इसके साथ वही व्यवहार हो रहा है जैसे ‘अश्वरथामा हतो नरो वा कंुजरो वा।’ क्योंकि हमारे संविधान की प्रस्तावना में लिखा हुआ है न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीति, आर्थिक व राजनीतिक न्याय की संकल्पना को दबाकर जद का राीय नेतृत्व सामाजिक न्याय के ‘स्लोगन’ पर फिर सत्ता पा लेना चाहता है। इसका एक कारण यह भी है कि जद के राीय नेतृत्व का अखिल भारतीय चरित्र कांग्रेस से निकला हुआ है उसने कांग्रेस को ‘गरीबी हटाओ’ व ‘अन्तिम इच्छा।’ जैसे स्लोगन पर सत्ता पाते हुए देखा है।
भारतीय संविधान के अनुच्ेद 15, 16, 46 और 340 के मौलिक अधिकारों में इस बात को जोड़ा गया है कि जो लोग हजारों सालों से हर तरह से शोषित रहे हैं - सामाजिक, मानसिक एवं श्रम के आधार पर जिनका सदियों से उत्पीड़न किया जाता रहा है, उन्हंे राष्ट्र की मुख्य धारा में समानता के स्तर पर लाने के लिए आरक्षण की विशेष व्यवस्था की जाये।
संविधान निर्माताओं ने संविधान की धारा 330 व 332 के अन्तर्गत अनुसूचित जातियों और जनजातियों के प्रतिनिधित्व हेतु लोकसभा और विधान सभाओं में आरक्षण की व्यवस्था की थी। साथ ही संविधान की धारा 15(4) व 16(5) के अन्तर्गत सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति एवं जनजाति हेतु आरक्षण की व्यवस्था थी। संविधान की आरक्षण संबंधी मान्यताओं को लागू करने की दृष्टि से 29 जनवरी 1953 को राष्ट्रपति के आदेशानुसार काका साहब कालेलकर की अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया गया। 30 मार्च, 1955 को कालेलकर आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को प्रेषित कर दी। संविधान के अनुच्छेद 340(3) के अनुसार तीन सितम्बर 1956 को इसकी रिपोर्ट संसद में पेश की गयी फिर 20 सितम्बर 1989 को दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग ‘मण्डल आयोग’ के गठन की घोषणा की गयी। जिसने 31 दिसम्बर 1980 को अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को पेश कर दी। काका कालेलकर आयोग ने 1955 में 2399 जातियों का जिक्र किया और उसमें 839 जातियों को बहुत पिछड़ा बताया, जबकि मण्डल आयोग (1980) के समय में जातियों की संख्या बढ़कर चार हजार हो गयी। इससे स्पष्ट रूप से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इन आयोगों ने पिछड़ों को न्याय के लिए महत्वपूर्ण कार्य करने की जगह भारत की जातियों के संख्यागत विकास के अध्ययन पर ज्यादा महत्वपूर्ण कार्य किया है। दूसरी ओर इस परिणाम पर पहुंचा जा सकता है कि भारत के संविधान में निहित समानता के आधार पर कोई औचित्य नहीं रह जाता क्योंकि जातियों, पिछड़ी जातियों की संख्या में सतत बढ़ोत्तरी हो रही है।
जिससे समानता के लक्ष्य की जगह असमानता की खाई बढ़ रही है।
आरक्षण के अेतिहासिक परिपेक्ष्य को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि इसके बीज स्वतंत्रता पूर्व अंग्रेजों ने ही बो दिये थे क्योंकि 17 अगस्त 1932 को ‘कम्युनल अवार्ड’ की घोषणा प्रधानमंत्री रेम्जले मैक्डानाल्ड ने की जो 1930 में प्रथम गोल मेज सम्मेलन में डा. अम्बेडकर के दलित वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में दिये गये भाषण का परिणाम था।
गांधी जी अंग्रेजों के देश को बांटने की इस साजिश को भांप गये और यरवदा जेल (पूना) से उन्होंने प्रधानमंत्री मेक्डानाल्ड को पत्र लिखा, ‘यदि अछूतों को हिन्दुओं से पृथक किया गया, तो वे अपने जीवन की बाजी लगा देंगे।’ परिणामस्वरूप 24 सितम्बर 1932 की सायं पांच बजे यरवदा जेल में प्रसिद्ध ‘पूना पैक्ट’ हुआ जिसमें अम्बेडकर और मदन मोहन मालवीय ने हस्ताक्षर किया। इस ‘पूना पैक्ट’ को हमारे संविधान में अनुच्छेद 330 से 336 तक रखा गया है और यही हमारा आरक्षण का आधार है।
लेकिन आज जबकि हमारे यहाँ चालीस वर्षों के आरक्षण के परिणाम का मूल्यांकन कर एक नयी आरक्षण नीति लागू करके समानता के सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करने का समय आया तो आरक्षण राजनैतिक हथियार के रूप मंे प्रयुक्त होने लगा, आरक्षण ने अपना यथार्थ स्वरूप खो दिया। आरक्षण सुविधाओं को लेकर समाज में विभाजन की रेखा बढ़ा दी गयी है जाति के नाम पर हिंसा के वटवृक्ष बोये जा रहे हैं ऐसा इसलिए किया जा रहा है कि सामाजिक न्याय के नाम पर शोषक पंूजी पूंजीवादी ताकतों का भय दिखाकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर वर्चस्व कायम रखा जाए। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड़ की यह उक्ति सार्थक लगती है जिसमें उन्होंने कहा कि ‘आरक्षण को और पचास वर्षों तक जारी रखा जाना चाहिए लेकिन क्या इससे राजनीति में जाति की प्रतिष्ठा नहीं बढ़ेगी ? और क्या इनसे हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दोष चिन्हित नहीं होते।’
आरक्षण का मुद्दा, उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है फिर भी वोटों के फसल के लिए रथ लेकर निकल पाना न्याय प्रक्रिया पर अविश्वसनीयता का सवाल खड़ा करता है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के दो बड़े राजनैतिक दल जद व भाजपा अपने-अपने वोटांे के लिए ‘सत्ता के लिए उच्चतम न्यायालय पर अविश्वास का सवाल खड़ा कर दें रहे हैं। फिर आम लोगों के लिए न्यायालय के मायने क्या रह जाएगा।’
मण्डल का मुद्दा सामाजिक न्याय के मुद्दे से भटक गया है उसने समाज, सामाजिक न्याय की स्वअर्थी परिभाषाएं व मानदण्ड तैयार कर लिए हैं जो कि मण्डल संग्राम में नेतृत्व पर दृष्टि डालने से पता चल जाता है। नेतृत्व की मानसिकता का पता इससे लगता है कि मण्डल के वरिष्ठ प्रवक्ता राम विलास पासवान ने दूरदर्शन को दिये अपने एक साक्षात्कार में स्वयं ही कहा था कि अस्वस्थता की स्थिति में वह आरक्षित कोटे से पढ़े डाक्टर से अपने को दिखाना पसन्द नहीं करेंगे। इस तरह दोहरी मानसिकता ग्रसित लोगों द्वारा दलित कल्याण की और सामाजिक न्याय के संकल्प को पूरा करने की बात सोचना भी बेमानी होगी।
यह भी सही है कि एक ऐसे देश में जहां एक बहुत बड़ा क्षेत्र अमुद्रीकृत हो वहां आर्थिक आधार की बात आरम्भिक दौर पर कुछ जंचेगी नहीं और आरक्षण के पक्षधर वाला नेतृत्व इसे स्वीकारेगा नहीं, पर इससे आरक्षण के अभिलाषी लोगों को एक लाभ मिलने की संभावना तो बलवती हो ही जाती है कि ये रथी इस सीमा के आधार पर बाहर हो जाएंगे फिर आरक्षण का प्रयोग राजनैतिक फसल और जातीय हिंसा के लिए नहीं हो पाएगा। कार्य दुरुह है पर दुरुह सम कर समाज को कथित सामाजिक न्याय के जातीय उन्माद में रोकने की आवश्यकता तो नहीं ही है।
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