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साहित्य में क्लिष्टता सह्य व असह्य

Dr. Yogesh mishr
Published on: 11 Oct 1992 12:53 PM IST
अज्ञेय की कविताओं व तार सप्तक के  कवियों के  बाद से यह विवाद जोर पकड़ता गया। क्यांेकि नयी कविता के  कवि में शब्दों की क्लिष्टता के  प्रति गहरा बोध पाया जाता है। जबकि साहित्य में प्रसाद गुण की सराहना के  मूल में क्लिष्टता का विरोध होता है। वैसे साहित्य में क्लिष्टता के  माममले में जयशंकर प्रसाद भी पीछे नहीं रहे। लेकिन कविता में लय- रिदम होने के  कारण उस क्लिष्टता के  प्रति कोई दुराग्रह नहीं बन पाया। निबंध लिखने में क्लिष्टता का प्रयोग एक अतिरिक्त विशेषता है। तभी तो नाक-कान आदि जैसे विषयों पर निबंध लिखना संभव हो सका है।
सरलता की चाहत अस्वाभाविक नहीं है। प्रारंभ से ही मनुष्य ने सरलता के  लिए तमाम उपाए किए हैं। जैसे हथियार उसने आखेट की क्लिष्टता दूर करने के  लिए बनाए। खेत में अनाज के  बीज इसलिए डाले कि आहार सुगम हो। सरलता पाने के  लिए ही मानव ने तमाम कष्ट झेले हैं। तमाम अविष्कार किए हैं। वर्तमान भौतिकवादी संस्कृति उसी सरलता पाने की अभिलाषा का परिणाम है। जिसके  आगे आज आम मानव घुटने टेक कर बैठ गया है।
साहित्य का पाठक भी भाषा के  स्तर पर सरलता पाने का अभिलाषी है। कुछ लोग भाषा और साहित्य को पर्यायमान बैठते हैं। लेकिन साहित्य एवं भाषा में वही संबंध होता है जो दरबार एवं पथ मंे होता है। जैसे दरबार में जाने के  लिए पथ से होकर ही जाना पता है। उसी तरह साहित्य तक भाषा के  माध्यम से ही पहुंचा जा सकता है।
नयी कविता के  कवियों ने भाषा के  प्रति किसी तरह के  आग्रह को स्वीकारा नहीं। उनका आयाम विस्तृत रहा। इस कारण अन्य भाषाओं के  शब्द भी उनके  साहित्य में उनकी कविता में समा गए। जो शब्द आम बोलचाल में थे या नहीं। इसलिए उस शब्द के  प्रति दुरूहता का बोध होगा ही। परंतु दुरूहता मूलतः उस शैली या भाषा को कहेंगे जो पाठक की निरंतरता में अचानक रुकावट के  लिए खेद है, सरीखी उत्पन्न हो जाए। जिससे पाठक की निरंतरता के  भंग हो। तथा उसको अध्ययन की निरंतरता के  भंग होने के  बाद मन की जगह मस्तिष्क से काम लेना पड़े और यह जिज्ञासु होकर उस शब्द विशेष का अभिप्राय तलाशने लगे। कुछ लोगों की समझ में पढ़ने-लिखने की क्षमता एक संश्लिष्ट सामाजिक अर्थ ग्रहण करने लगती है। उनके  लिए साहित्य मंे क्लिष्टता का कोई मायने नहीं रह जाता है। जबकि क्लिष्टता के  कारण किसी बात से अपरिचित भी रह जाना पड़ता है। हिंदी पत्रकारिता ने इस क्लिष्टता के  बोध को काफी हद तक हल्का किया है। क्योंकि दैनिक जीवन में गद्य की भूमिका बड़ी। आलेख रचना कुछ विशिष्ट प्रतिभा के  लोगों के  लिए ही नहीं रह गई। काव्य रूपों के  माध्यम से सशक्त सांस्कृतिक प्रतीकों के  संरक्षण और प्रसार को लेकर स्थितियां बदल गई थीं। पत्रकारिता ने इन स्थितियों में गद्य का स्वीकृत रूप गढ़ने, पौराणिक, ऐतिहासिक और भौगौलिक प्रतीकों को तेजी से उभरती हुई सामाजिक, राजनीति संवाद शैला में उपलब्ध कराने जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का निर्वाह किया। ऐसा इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि साहित्य व भाषा को समुदाय की साहित्यक परंपराओं को पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित करने के  दायित्व करने का निर्वाह करना था। साहित्य की प्रतीकात्मक उपयोगिता जिस महत्वकांक्षी कार्यक्रम के  संदर्भ में उभरी उससे भी क्लिष्टता के  बोध को गहरा धक्का लगा। धार्मिक  पुनरूत्धानवाद तथा भाषा के  मिलन में उलकर कर क्लिष्टता समाप्त हो गई। फिर भी हिंदी भाषा का प्रयोग संस्कृतनिष्ठ बनाते चले जाने में और लिखित रूप को बोले जाने वाले रूप से काटते जाने का चलन हुआ। यही काम उर्दू के  फारसी करण के  साथ उर्दू भाषा और साहित्य में भी आरम्भ हो चुका था। दोनों भाषाएं एक दूसरे के  शब्दों के  प्रति इतनी आग्रही हो गई थी कि उनमे क्लिष्टता का बोध भर उठा था। यह संस्कृत निष्ठ हिंदी ऊंची जातियों के  साहित्यकर्मी समूह की आत्मपहचान की अभिव्यक्ति का साधन बन चुकी थी। इससे एक नई अभिव्यक्ति योजना विकसित हुई। जिसकी विशेषता थी वाक्य रचना की सुविचारित जटिलता और सावधानी से किए गए शब्द चयन। इसे समर्थन देने के  लिए कहा गया कि शैक्षिक या अध्ययन विषयक संवाद स्वभावता जटिल होते हैं और उसकी भाषा साधारण लोगांे द्वारा बोले जाने वाली भाषा नहीं हो सकती। लेकिन इस तर्क का जोरदार विरोध महात्मा गांधी ने हिंदुस्तानी का विरोध कर किया। महात्मा गांधी की इस हिंदुस्तानी में क्लिष्टता का बोध, जिज्ञासा की जरूरत और दिमागी कसरत के  लिए कोई जगह नहीं थी। जैसे हमारे यहां रिश्तों के  लिए हिंदी भाषा में पितृष्वस्ट (बुआ), मातृष्वस्ट (मौसी) जैसे क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग किया गया है। ये शब्द प्रयुक्त होते ही रिश्तों के  प्रति दय जीवी बोध समाप्त करके  दिमाग को अभिप्राय जुटाने के  लिए मजबूर होना पड़ता है। इस तरह की क्लिष्टता स्वीकार नहीं हो सकती। ‘आंगन के  पार द्वार’ की अधिकांश कविताआंे में असहय क्लिष्टता का बोध होता है। जिसमें शब्दांे की पकड़ छूटती महसूस होती है। तथा शब्द अपने नए भावों के  लिए अभिव्यक्ति के  नए शब्द छूटंते प्रतीत होते हैं जैसेः-
अपने को मौन नदी के  खड़ा किनारे पाता हंू। मैं मौन मुखर सब छन्दांे में...। मौन का सूत्र। किसी अर्थ को मिटाये बिना। सारे शब्द क्रमागत। सुमिरनी में पिरोता है। ... एक चिकना मौन। जिसमें मुखर तपती वासनाएं। मैं अवाक् हंू अपलक हंू। मेरे पास और कुछ नहीं है। तुम भी यदि चाहांे। तो ठुकरा दोः
इस पूरी कविता में क्लिष्टता ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर कवि का स्तर व आयाम को चाहे जितना विस्तार दे दिया हो। परंतु पाठक को मिलने वाली निरंतरता भंग हो उठती है। नतीजतन पाठक एक विशेष प्रकार के  आग्रह से भर उठता है। जिसमें गहरा नकारवादी बोध होता है। यह बोध पंत की कविताआंे में भी है। लेकिन प्रयोगवादी कवियांे को छोड़कर यह प्रकृति साहित्य में काफी कम दिखाई पती है। वैसे तो ‘कामायनी’ जैसे महाकाव्य का सृजन करने में प्रसाद ने अपने साहित्य के  सर्वाधिक क्लिष्ट शब्दांे का प्रयोग किया है। बावजूद इसके  प्रसाद की क्लिष्टता निरंतरता को भंग नहीं करती है। बल्कि कविता से एक स्वतः स्फुर्ति अर्थ निकलता हुआ भी प्रतीत होता है।-
क्या कहती हो ठहरो नारी संकल्प अश्रु जल से अपने।
तुम दान कर चुकी पहले ही जीवन के  सोने से सपने
नारी। तुम क¢वल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में
पीयूष स्त्रोत से बहा करो जीवन के  सुंदर समतल में।
इस तरह साहित्य की क्लिष्टता के  प्रति पाठकों में एक नकारवादी धारणा उपजती है। वैसे साहित्य के  गद्य की गंभीरता को जब भी काव्य या कहानी तथा रिपोतार्ज आदि में स्थापित करने का प्रयास होगा तब-तब क्लिष्टता अस्वीकृति होगी। यूं भी साहित्य मंे क्लिष्टता मात्र लेखों में स्वीकृत हो सकी है। क्योंकि इससे आम पाठक जुड़ता नहीं है और जो जुड़ता है वह गंभीर दार्शनिक चिंतन व परिणाम की अपेक्षा करता है। इसलिए अब उस क्लिष्टता से बचने और कटने की आवश्यकता है जो साहित्य का मन से रिश्ता तोकर मस्तिष्क से जोने को अवश करे तथा निरंतरता में कावट के  लिए खेद सरीखे उपस्थिति हो जाए।


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Dr. Yogesh mishr

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