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राष्ट्रपिता बनाम देश सपूत

Dr. Yogesh mishr
Published on: 18 Oct 1992 12:56 PM IST
महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता ना स्वीकारने की कल्याण सिंह की टिप्पणी पर विरोध अभी थमा नहीं है। लखनऊ के  इंकाई अब इसी मुद्दे को लेकर नुक्कड़ सभाएं करने लगे हैं। रामकोला और प्रतिभूति घोटाला जैसे विषयों पर मौन स्वीकार लक्षण जैसे शान्त इंकाई महात्मा गांधी के  तीनों बंदरों की मुद्रा में एक साथ हो गए थे। अब वह अपनी हताशा मिटाने का एक बहाना पा गए। उल्लेखनीय है कि गत 02 अक्टूबर को तिलक हाल में एक सभा में कल्याण सिंह ने यह आपत्ति उठायी थी। वैसे राजनीति के  शब्दों के  सटीक प्रयोग न करने की एक लम्बी परम्परा रही है जिसके  तहत राजीव गांधी द्वारा कहा गया गणतंत्र व नरसिंह राव का भंगी शब्द आता है। फिर भी उनके  वक्तव्य और वक्तव्य की पुष्टि में दिए गए तर्क पर ध्यान दिया जाय तो इंकाई यह विरोध वैसे ही है जैसे किसी बाप के  दो बेटे हों और दूसरा पहले से इसलिए लड़ रहा हो कि बाप को तुमने क्यों मार डाला? हम क्यों मार नहीं पाए?
इंका के  शासनकाल में गांधी मारे गए और गांधीवाद दम तोड़ गया। इसकी चिंता नहीं है। गांधी शांति प्रतिष्ठान में बड़े घपले की सूचना आयी और सरकार खामोश रह गयी। क्योंकि गांधी शांति प्रतिष्ठान किसी तरह से कुर्सी नहीं दिला सकता और राष्ट्रपिता पर कल्याण सिंह की आपत्ति शायद..... । इंकाई बड़े आशावादी है। उन्होंने इतिहास से काफी शिक्षा ली है। इन्हें याद है कि जब अंग्रेजों के  शासन से महात्मा गांधी कुर्सी दिलवा सकते हैं तो कल्याण सिंह की भाजपा सरकार की क्या मजाल जो राष्ट्रपिता पर आपत्ति करने के  बाद बनी रह सके । इंकाई यह भूल गए कि उन्हीं के  सर्वाधिक करिश्माई नेता राजीव गांधी के  काल में महात्मा गांधी की समाधि पर ऐतिहासिक व अविस्मरणीय भद्दगी हुई। परंतु इंकाई चुप रहे। इसके  पीछे उनका मौन तर्क यह था कि जिस सम्प्रदाय, वर्ग, जाति के  लोगों ने किया था, उसका वोट इंका को चाहिए था। उन दिनों गांधी अप्रासंगिक थे। आज भले ही भाजपा सरकार के  सामने प्रासंगिक हो गए हों। प्रासंगिक कोई स्थायी तो होता नहीं है। अब गांधी की मत के  लिए प्रासंगिकता बढ़ गयी है। तभी तो इंकाई नुक्कड़ सभाएं करने लगे हैं। यहां मसला आस्था व श्रद्धा का नहीं रह गया। वैसे कल्याण सिंह की यह आपत्ति भारत के  नागरिकों के  आस्था व संवेदनाओं के  साथ खिलवाड़ तो है ही, जो कल्याण सिंह के  ओछे राजनीतिक चरित्र व शिक्षा का परिचायक है। क्योंकि मोहनदास करमचंद गांधी को 06 अगस्त, 1944 को सर्वप्रथम महात्मा शब्द से आजाद हिंद फौज के  रेडियो प्रसारण में सुभाष चन्द्र बोस ने सम्बोधित किया था। किन्तु प्रकारान्तर वह एक स्व स्वीकृत उपाधि हो गयी। उसी तरह राष्ट्रपिता भी स्वीकृत संवेदनशील श्रद्धा व आस्था का प्रतीक है। लेकिन इस शब्द पर आपत्ति करते हुए कल्याण सिंह की मंशा महात्मा गांधी के  उत्सर्ग व कद को कम करके  आंकने की नहीं थी। जैसा इंकाई तूल दे रहे हैं। क्योंकि कल्याण सिंह की मंशा ऐसी होती तो वे महात्मा गांधी की तुलना पुरूषोत्तम राम से नहीं करते और मर्यादा पुरूषोत्तम राम के  बराबर महात्मा गांधी को नहीं मानते। यानी जिस लिए विरोध किया जा रहा है, वह पता लगाना अब कठिन नहीं रह जाता है। विरोध के  लिए विरोध का जुमला यहां ठीक है।
वैसे कलयाण सिंह की अज्ञानता ही है कि वे भारत देश को साक्षात् माता के  रूप में देखने लगे और महात्मा गांधी के  लिए प्रयुक्त और राष्ट्रपिता सम्बोधन को उसी मानवीय रिश्ते में स्वीकारने की गलती कर बैठे। वैसे कल्याण सिंह की इस आपत्ति को भूल भी नहीं मान सकते हैं। क्योंकि भूलवश यदि यह वाक्य कहा गया होता तो कल्याण सिंह महात्मा गांधी की भगवान राम से तुलना नहीं करते और फिर पार्टी के  वरिष्ठ नेता इस बयान को समर्थन न दे बैठते। कल्याण सिंह शब्द की अर्थवत्ता तक पहुंचने की कोशिश में बेकार में जुट गए। जबकि यह आपत्ति करते हुए राष्ट्रपति सरीखे सम्बोधन पर आपत्ति करके  प्रयोग कर लेना चाहिए था। वैसे भी राजनीति शब्द की अर्थवत्ता तक नहीं पहुंच पाती। जैसे कल्याण सिंह देश और राष्ट्र की सूक्ष्म अर्थवत्ता तक नहीं पहुंच पाए। वह नहीं जान पाए कि राष्ट्र किसी भौगोलिक सीमा के  अंदर रहने वाले लोगों की आस्था का नाम है और राष्ट्रीयता उसी आस्था की जन स्वीकृति। कल्याण सिंह को इस अंतर को समझने के  लिए मकान और घर का उदाहरण लेना चाहिए था। जिसमें देश मकान और राष्ट्र घर होता। घर और राष्ट्र के  लिए निजी अवधारणाएं नहीं हो सकतीं। इसके  लिए सामूहिक अवधारणाओं पर विश्वास करना पड़ता है। कल्याण सिंह को यह नहीं पता कि व्यंग्य में जैसे भाषा अपना अर्थ बदल देती है। उसी तरह भाषा अभिधा, लक्षणा व व्यंजना तीन प्रकार से प्रयुक्त होती है। तीनों में उसके  अलग-अलग रूप होते हैं।
आज इंकाई के  लिए कल्याण सिंह ने अक्षम्य अपराध किया है। उसकी सजा प्रदेश कांग्रेस की दृष्टि में यह है कि राष्ट्रपिता का अपमान करने वाले मुख्यमंत्री को एक पल के  लिए भी सत्ता में बने रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने राष्ट्रपिता पर आपत्ति को सुभाष चन्द्र बोस का भी अपमान कहा है। क्योंकि सबसे पहले 1944 में सुभाष चन्द्र बोस ने उन्हें राष्ट्रपिता कहा था।
इन बातों पर गौर करें तो स्पष्ट हो जाता है कि इंकाइयों का विरोध कल्याण सिंह को नैतिकता की याद दिलाकर सत्ता छुड़वाने के  लिए है। परंतु इंकाइयों को यह भी सोचना चाहिए कि नैतिकता सिर्फ कल्याण सिंह या भाजपाइयों के  हिस्से व अनुपालन की चीज नहीं होनी चाहिए। बोफोर्स से कई गुना बड़ा प्रतिभूति घोटाला है। उस पर इंका सरकार को नैतिकता की स्मृति क्यों नहीं हो आयी। भिन्डारवाले को राजनीतिक हथियार के  रूप में प्रयोग करने, अलगाववादी प्रवृत्तियों को कश्मीर, पंजाब, असम और अब बिहार में पनपने व बढ़ाने में नैतिकता की याद क्या नहीं आनी चाहिए और गम्भीरता से देखें तो इंका ने राजनीति में ढेर सारे गैर नीतिक परम्पराओं को बढ़ावा और प्रवेश दिया है। खैर पर उपदेश कुशल बहुतेरे। आपके  लिए नैतिकता इस कारण से जरूरी है। क्योंकि हमारा लाभ हो सके । आप व्रत रहें। ताकि हम आपका भोजन कर सकें आदि.... इत्यादि। जिस कांग्रेस अध्यक्ष को यह नहीं पता कि 1944 में सुभाष चन्द्र बोस ने मोहनदास करमचंद गांधी को राष्ट्रपिता नहीं वरन महात्मा से सम्बोधित किया था। उसे भी नैतिकता का पाठ पढ़ाने का दायित्व बोध नजर आ रहा है। जबकि इंका के  प्रदेश अध्यक्ष को अर्जुन सिंह का पत्र जो कल्याण सिंह की टिप्पणी पर जारी किया गया था, वह पढ़ना चाहिए था। वही पढ़ते तो भी उनका ज्ञान शायद दुरूस्त हो जाता। पर पढ़ें भी क्यों। क्योंकि अर्जुन सिंह गुट के  हैं नहीं और उनकी बात को कहते तो उन्हें अनर्गल प्रचार मिलता। इंका संस्कृृति में प्रचार दिया नहीं महज पाया जाता है।
जैसे इस विवाद से एक लाभ तो हुआ ही है कि इंकाई अब सुभाष चन्द्र बोस का नाम लेने लगे हैं। सुभाष चंद्र बोस अब इंकाइयों के  लिए प्रासंगिक हो उठे हैं। वहीं नेता जी जिसके  18 अगस्त, 1945 को विमान दुर्घटना में ताइपेई अस्पताल में मृत्यु को इंकाई पुष्टि नहीं करा पाए। खैर देर आए दुरूस्त आए।
जो भी जैसे भी हो इंकाइयों के  लिए सुभाष चंद्र बोस का जीवित व प्रासंगिक हो उठना महत्वपूर्ण है। इसके  लिए कल्याण सिंह साधुवाद के  पात्र हैं। परंतु यदि वह कुर्सी छोड़ दंे तो शायद राष्ट्रपिता पर की गयी आपत्ति पर इंकाई क्षमा कर दें और फिर इंकाई किश्तों में गांधीवाद, मारने का अधिकार प्राप्त कर प्रफुल्लित हो उठेंगे। वैसे भी इंकाइयों को निराश नहीं होना चाहिए। क्योंकि उन्हें विपक्ष का तेवर दिखाने का एक अवसर मिल गया है और इसी आधार पर अपना और संगठन का जंग खुरचा जा सकता है। नुक्कड़ सभाएं.... बयान और.... तमाम राजनीतिक उपक्रम करके । क्योंकि अभी तो नुक्कड़ सभाएं सिर्फ लखनऊ में की जा रही हैं। फिर इसकी सुगबुगाहट पूरे प्रदेश में करना बाकी है। अभियान जोर पर है।
Dr. Yogesh mishr

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