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प्रश्नों की पुनरावृत्ति का प्रयास है-‘भूमिगत सुभाष’
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जिस नेता ने दुनिया के पैमाने पर अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ी और जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का संचालन रूस, जर्मनी, जापान, सिंगापुर आदि देशों से किया है। इन देशों की सरकारों से सहायता लेकर सर्वप्रथम भारतीय सरकार का गठन करके ब्रिटिश गुप्तचर व्यवस्था के सामने लाचारी खड़ी कर दी। ऐसे सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु 1945 के बाद से अभी तक विवाद और शंकाओं का विषय है। सरकार इस पर एकदम मौन है तो जनमानस किसी भी शगूफे या प्रचार के पीछे अकुला सा जाता है। इसी द्वंद्व और मिथ्या सत्य के पीछे की सम्पूर्ण कहानी है सुभाष बाबू के जीवन का अंतिम अध्याय, जिसके बारे में प्रमाणिक तौर पर अभी तक कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसी अंतिम अध्याय का खुलासा करने की कोशिश रणजीत पांचाले ने अपनी पुस्तक -भूमिगत सुभाष’ में की है।
जनता का इस अध्याय पर से ध्यान हटाने के लिए खोसला और सहनवाज समितियां बहुत दबाव के बाद गठित की गयीं और अपने जांच के दौरान खोसला आयोग ने ताइपेई पहुंचकर ताइपेई हवाई अड्डे के मौसम वैज्ञानिक प्राधिकार से यह रिपोर्ट पायी कि अगस्त 1945 में यहां इस प्रकार की कोई दुर्घटना नहीं हुई थी। एक विमान दुर्घटना हुई जरूर थी पर 1944 में 1945 में नहीं। जबकि 06 अगस्त व 09 अगस्त, 1944 के नेता जी के जीवित होने की बात भारत सरकार भी स्वीकार कर चुकी है। अतः खोसला आयोग इन प्रयासों के बाद भी सरकार के उसी निर्णय पर पहुंचती है, जिसका रहस्योद्घाटन टोकियो रेडियो ने 1945 को किया था।
खोसला आयोग की रिपोर्ट पर सन्तुष्टि न होने के कारण सरकार पर अपने चहेते नेता के बारे में जानने के लिए दबाव और तेज हो गये जो सरकार ने 1955 में शहनवाज जांच समिति का गठन कर दिया, जिसने 67 गवाहों के बयान सहित 1956 में सरकार को अपनी रिपोर्ट दी, जो खोसला आयोग के निष्कर्षों की ही पुष्टि कर रही थी। इतना ही नहीं, इस रिपोर्ट से इसी आयोग के एक सदस्य सुरेश चन्द्र बोस असहमत थे और उनके दस्तखत के बिना यह रिपोर्ट सरकार को सौंपी गयी।
इन सारे विवादों को समेटते हुए रणजीत पांचाले ने अपनी पुस्तक ‘भूमिगत सुभाष’ ने सुभाष चंद्र बोस के मृत्यु की घोषणा के जापानी प्रसारण पर सवाल खड़ा किया है। पांचाले का मानना है कि यदि 18 अगस्त को विमान दुर्घटना हुई तो उसकी घोषणा पंाच दिन बाद करने के पीछे क्या तर्क था। इतना ही नहीं नेता जी का जो मृत्यु प्रमाण-पत्र व शवदाह संस्कार की अनुमति पत्र के रूप में प्रस्तुत किया गया। उनका मूल जापानी काटाकाना भाषा से अनुवाद करने के बाद जो रहस्योद्घाटन होता है, वह है-
1-यह दस्तावेज एक जापानी सैनिक से सम्बन्धित था जिसका नाम ओकार ओचीरो था। जो 19 अगस्त 1945 को सायं 04 बजे ताइपेई में मर गया था।
2-उसका जन्म 09 अप्रैल 1900 में हुआ था।
3-उसकी सैनिक संख्या-21123 थी।
ये ह ीवह महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, जो नेताजी के बारे में जानने के लिए आम आदमी को मथित कर रहे हैं। इतना ही नहीं नेताजी की मृत्यु पश्चात् कोई भी चित्र नहीं खींचा गया।
इन सारे सवालों को सहेज कर पांचाले ने एक बार फिर सुभाष बाबू को जानने समझने के लिए आम जनता को भूमिगत सुभाष के माध्यम से आगाह करने की कोशिश की है और सवाल उठाए हैं कि आखिर क्या हुआ सुभाष बाबू का? कहां हैं सुभाष बाबू? उनके बारे में समय-समय पर जो बातें फैली हैं उन्हें स्थायी रूप से हल करने से सरकार रूचि क्यों नहीं ले रही है। सुभाष बाबू अगर जिंदा हैं तो बाहर आने की उन्होनंे कोशिश क्यों नहीं की? उनका वही प्रिय देश, जिसके लिए उन्होंने तमाम साहसिक और दुस्साहसिक निर्णय लेकर जोखिम भरी यात्राएं की हैं। वही आज इतने संकट में हैं तब भी वह खामोश क्यों हैं। जापान के रेंकोजि मंदिर में रखी हड्डियां अगर सुभाष बाबू की हैं तो उनके परिवार के लोग उन्हें स्वीकार क्यों नहीं कर रहे हैं। इसके अलावा सैलमारी आश्रम में स्वामी शारदानंद के नाम से रह रहे सुभाष बाबू के हमशक्ल संन्यासी की चर्चाएं जवाहर लाल की मृत्यु के समय उनके शव के पास सुभाष बाबू के शक्ल में खड़ा संन्यासी आदि कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके माध्यम से बीच-बीच में यह प्रयास होता रहा है कि नेता जी न तो किसी दुर्घटना में मारे गए हैं और न रूस जाकर फंसे हैं। बल्कि भारत आकर अज्ञातवास कर रहे हैं। परंतु यहां भी ये प्रश्न उभरता है कि क्यों? किस मजबूरी में?
इन्हीं सारे सवालों का उत्तर तलाशने के लिए समय-समय पर नेताजी पर कई पुस्तकें प्रकाशित होती रही हैं। लेकिन ये सारी पुस्तकें पुराने प्रश्नों को फिर से उठाने के अलावा आधिकारिक रूप से तथा तथ्यात्मक ढंग से कुछ भी कह पाने में असमर्थ रही हैं। भूमिगत सुभाष भी उन्हीं प्रश्नों की पुनरावृत्ति का एक सार्थक एवंज ीवंत प्रयास है।
वास्तव में भूमिगत सुभाष में जानकारियों के जो सार्थक स्रोत प्रयोग किए गए हैं और जिन चीजों को आधार बनाकर रणजीत पांचाले ने यह सवाल उठाया है। यह अपनी व आम धारणा प्रस्तुत की है वह किसी ऐसे घटना को समझने और मानने के लिए पर्याप्त नहीं होता। मसलन शहनवाज का खोसला जांच आयोग पर उठी आपत्तियां या अखबारों आदि में समय-समय पर खबरें, चर्चाएं व अनुमान आदि के सहारे पूर्व में प्राप्त निष्कर्षों की धज्जियां तो उड़ायी जा सकती हैं और नए सवाल खड़े किए जा सकते हैं लेकिन सच को उसकी संपूर्णता में उजागर नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही साथ पूर्व में प्राप्त निष्कर्षों के सामने ऐसे महत्वपूर्ण सवालों में नए निष्कर्ष स्थापित करने की आवश्यकता है। निष्कर्षों की धज्जियां उड़ाने और नए सवाल खड़े करने से काम नहीं चलेगा। वैसे तो सुभाष बाबू के जीवन से पर्दा हटाया जाना सहज नहीं है क्योंकि अमरीका व ब्रिटिश गुप्तचर रिपोर्ट तक कुछ कह पाने में असमर्थ है। सुभाष बाबू पर लिखी इस पुस्तक पर यह कमजोर पहलू रहा है कि जिस तरह खोसला और शहनवाज समितियां यह सिद्ध करने के लिए प्रतिबद्ध की थीं कि सुभाष बाबू 1945 को ताइपेई में मरे। उसी तरह इन पुस्तकों ने भी यह प्रतिबद्ध होकर ही लिखा है कि सुभाष बाबू मरे नहीं हैं। कोई भी यह लिखने को तैयार नहीं है कि मरे नही ं तो क्या हुआ उनका? क्योंकि सुभाष बाबू कोई साधारण व्यक्ति तो रहे ही नहीं कि किसी भी भीड़ में आसानी से गुम हो जाएं। सुभाष बाबू पर पुस्तक लिखते समय सत्य की आवश्यकता है। तथ्यों से काम नहीं चलने वाला है। और आज तक लिखी पुस्तकों में उन्हीं तथ्यों को उलटफेर करके क्रमबद्ध किया है। लेकिन यह भी एक सार्थक और सराहनीय प्रयास है कि समय-समय पर सवाल उठाकर सुभाष बाबू को जिंदा रखने की जो कोशिश है, जिसमें सुभाष बाबू हैं, जैसा सत्य निहित है। वह श्रेष्ठ है। रणजीत पांचाले ने उसी कोशिश में तथ्यों के माध्यम से बेहद सार्थक प्रयास किया है। वैसे यह पुस्तक सत्य स्थापना की दिशा में चाहे जिस स्थिति में हो। परंतु इसने नेता जी पर लगे उन तमाम आरोपों का निवारण करने में उल्लेखनीय योगदान दिया है। जिसके तहत नेता जी को नाजी समर्थक हिटलर समर्थक या विदेशों से सहायता लेकर भारतीय स्वाधीनता लड़ने पर लगाए गए थे। वैसे तो नेता जी के सहयोगी सत्य गुप्त ने नेता जी के बारे में यह कहा था कि विरोधाभास रहस्य और संघर्ष नेता जी की जीवन शैली है। अब इसी वाक्य का पूरी तरह से खुलासा करने की जरूरत आन पड़ी है, जिससे जनता या तो अपने नेता के निधन पर जार-जार हो ले या उन्हें लाकर एक बार फिर इस टूट रहे भारत को बचाने की महती जिम्मेदारी जन पुराने कंधों को सौंप सके । इसलिए सुभाष बाबू के बारे में ढंग से खोजबीन जारी की जानी चाहिए। जो तथ्य से परे सत्य हो।
जनता का इस अध्याय पर से ध्यान हटाने के लिए खोसला और सहनवाज समितियां बहुत दबाव के बाद गठित की गयीं और अपने जांच के दौरान खोसला आयोग ने ताइपेई पहुंचकर ताइपेई हवाई अड्डे के मौसम वैज्ञानिक प्राधिकार से यह रिपोर्ट पायी कि अगस्त 1945 में यहां इस प्रकार की कोई दुर्घटना नहीं हुई थी। एक विमान दुर्घटना हुई जरूर थी पर 1944 में 1945 में नहीं। जबकि 06 अगस्त व 09 अगस्त, 1944 के नेता जी के जीवित होने की बात भारत सरकार भी स्वीकार कर चुकी है। अतः खोसला आयोग इन प्रयासों के बाद भी सरकार के उसी निर्णय पर पहुंचती है, जिसका रहस्योद्घाटन टोकियो रेडियो ने 1945 को किया था।
खोसला आयोग की रिपोर्ट पर सन्तुष्टि न होने के कारण सरकार पर अपने चहेते नेता के बारे में जानने के लिए दबाव और तेज हो गये जो सरकार ने 1955 में शहनवाज जांच समिति का गठन कर दिया, जिसने 67 गवाहों के बयान सहित 1956 में सरकार को अपनी रिपोर्ट दी, जो खोसला आयोग के निष्कर्षों की ही पुष्टि कर रही थी। इतना ही नहीं, इस रिपोर्ट से इसी आयोग के एक सदस्य सुरेश चन्द्र बोस असहमत थे और उनके दस्तखत के बिना यह रिपोर्ट सरकार को सौंपी गयी।
इन सारे विवादों को समेटते हुए रणजीत पांचाले ने अपनी पुस्तक ‘भूमिगत सुभाष’ ने सुभाष चंद्र बोस के मृत्यु की घोषणा के जापानी प्रसारण पर सवाल खड़ा किया है। पांचाले का मानना है कि यदि 18 अगस्त को विमान दुर्घटना हुई तो उसकी घोषणा पंाच दिन बाद करने के पीछे क्या तर्क था। इतना ही नहीं नेता जी का जो मृत्यु प्रमाण-पत्र व शवदाह संस्कार की अनुमति पत्र के रूप में प्रस्तुत किया गया। उनका मूल जापानी काटाकाना भाषा से अनुवाद करने के बाद जो रहस्योद्घाटन होता है, वह है-
1-यह दस्तावेज एक जापानी सैनिक से सम्बन्धित था जिसका नाम ओकार ओचीरो था। जो 19 अगस्त 1945 को सायं 04 बजे ताइपेई में मर गया था।
2-उसका जन्म 09 अप्रैल 1900 में हुआ था।
3-उसकी सैनिक संख्या-21123 थी।
ये ह ीवह महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, जो नेताजी के बारे में जानने के लिए आम आदमी को मथित कर रहे हैं। इतना ही नहीं नेताजी की मृत्यु पश्चात् कोई भी चित्र नहीं खींचा गया।
इन सारे सवालों को सहेज कर पांचाले ने एक बार फिर सुभाष बाबू को जानने समझने के लिए आम जनता को भूमिगत सुभाष के माध्यम से आगाह करने की कोशिश की है और सवाल उठाए हैं कि आखिर क्या हुआ सुभाष बाबू का? कहां हैं सुभाष बाबू? उनके बारे में समय-समय पर जो बातें फैली हैं उन्हें स्थायी रूप से हल करने से सरकार रूचि क्यों नहीं ले रही है। सुभाष बाबू अगर जिंदा हैं तो बाहर आने की उन्होनंे कोशिश क्यों नहीं की? उनका वही प्रिय देश, जिसके लिए उन्होंने तमाम साहसिक और दुस्साहसिक निर्णय लेकर जोखिम भरी यात्राएं की हैं। वही आज इतने संकट में हैं तब भी वह खामोश क्यों हैं। जापान के रेंकोजि मंदिर में रखी हड्डियां अगर सुभाष बाबू की हैं तो उनके परिवार के लोग उन्हें स्वीकार क्यों नहीं कर रहे हैं। इसके अलावा सैलमारी आश्रम में स्वामी शारदानंद के नाम से रह रहे सुभाष बाबू के हमशक्ल संन्यासी की चर्चाएं जवाहर लाल की मृत्यु के समय उनके शव के पास सुभाष बाबू के शक्ल में खड़ा संन्यासी आदि कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके माध्यम से बीच-बीच में यह प्रयास होता रहा है कि नेता जी न तो किसी दुर्घटना में मारे गए हैं और न रूस जाकर फंसे हैं। बल्कि भारत आकर अज्ञातवास कर रहे हैं। परंतु यहां भी ये प्रश्न उभरता है कि क्यों? किस मजबूरी में?
इन्हीं सारे सवालों का उत्तर तलाशने के लिए समय-समय पर नेताजी पर कई पुस्तकें प्रकाशित होती रही हैं। लेकिन ये सारी पुस्तकें पुराने प्रश्नों को फिर से उठाने के अलावा आधिकारिक रूप से तथा तथ्यात्मक ढंग से कुछ भी कह पाने में असमर्थ रही हैं। भूमिगत सुभाष भी उन्हीं प्रश्नों की पुनरावृत्ति का एक सार्थक एवंज ीवंत प्रयास है।
वास्तव में भूमिगत सुभाष में जानकारियों के जो सार्थक स्रोत प्रयोग किए गए हैं और जिन चीजों को आधार बनाकर रणजीत पांचाले ने यह सवाल उठाया है। यह अपनी व आम धारणा प्रस्तुत की है वह किसी ऐसे घटना को समझने और मानने के लिए पर्याप्त नहीं होता। मसलन शहनवाज का खोसला जांच आयोग पर उठी आपत्तियां या अखबारों आदि में समय-समय पर खबरें, चर्चाएं व अनुमान आदि के सहारे पूर्व में प्राप्त निष्कर्षों की धज्जियां तो उड़ायी जा सकती हैं और नए सवाल खड़े किए जा सकते हैं लेकिन सच को उसकी संपूर्णता में उजागर नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही साथ पूर्व में प्राप्त निष्कर्षों के सामने ऐसे महत्वपूर्ण सवालों में नए निष्कर्ष स्थापित करने की आवश्यकता है। निष्कर्षों की धज्जियां उड़ाने और नए सवाल खड़े करने से काम नहीं चलेगा। वैसे तो सुभाष बाबू के जीवन से पर्दा हटाया जाना सहज नहीं है क्योंकि अमरीका व ब्रिटिश गुप्तचर रिपोर्ट तक कुछ कह पाने में असमर्थ है। सुभाष बाबू पर लिखी इस पुस्तक पर यह कमजोर पहलू रहा है कि जिस तरह खोसला और शहनवाज समितियां यह सिद्ध करने के लिए प्रतिबद्ध की थीं कि सुभाष बाबू 1945 को ताइपेई में मरे। उसी तरह इन पुस्तकों ने भी यह प्रतिबद्ध होकर ही लिखा है कि सुभाष बाबू मरे नहीं हैं। कोई भी यह लिखने को तैयार नहीं है कि मरे नही ं तो क्या हुआ उनका? क्योंकि सुभाष बाबू कोई साधारण व्यक्ति तो रहे ही नहीं कि किसी भी भीड़ में आसानी से गुम हो जाएं। सुभाष बाबू पर पुस्तक लिखते समय सत्य की आवश्यकता है। तथ्यों से काम नहीं चलने वाला है। और आज तक लिखी पुस्तकों में उन्हीं तथ्यों को उलटफेर करके क्रमबद्ध किया है। लेकिन यह भी एक सार्थक और सराहनीय प्रयास है कि समय-समय पर सवाल उठाकर सुभाष बाबू को जिंदा रखने की जो कोशिश है, जिसमें सुभाष बाबू हैं, जैसा सत्य निहित है। वह श्रेष्ठ है। रणजीत पांचाले ने उसी कोशिश में तथ्यों के माध्यम से बेहद सार्थक प्रयास किया है। वैसे यह पुस्तक सत्य स्थापना की दिशा में चाहे जिस स्थिति में हो। परंतु इसने नेता जी पर लगे उन तमाम आरोपों का निवारण करने में उल्लेखनीय योगदान दिया है। जिसके तहत नेता जी को नाजी समर्थक हिटलर समर्थक या विदेशों से सहायता लेकर भारतीय स्वाधीनता लड़ने पर लगाए गए थे। वैसे तो नेता जी के सहयोगी सत्य गुप्त ने नेता जी के बारे में यह कहा था कि विरोधाभास रहस्य और संघर्ष नेता जी की जीवन शैली है। अब इसी वाक्य का पूरी तरह से खुलासा करने की जरूरत आन पड़ी है, जिससे जनता या तो अपने नेता के निधन पर जार-जार हो ले या उन्हें लाकर एक बार फिर इस टूट रहे भारत को बचाने की महती जिम्मेदारी जन पुराने कंधों को सौंप सके । इसलिए सुभाष बाबू के बारे में ढंग से खोजबीन जारी की जानी चाहिए। जो तथ्य से परे सत्य हो।
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