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पीड़ित तंत्र की व्यथा
आजकल भारतीय संस्कृति के उपभोक्तावाद का एक स्वरूप यह है कि घरों में नौकर और कार्यालयों में चपरासी का होना प्रतिष्ठा का विषय है। किसके घर में कितने नौकर हैं। किसके कार्यालय में कितने चपरासी हैं। वह भी किसके अधीन हैं यह ‘स्टेट्स’ का प्रतीक है। चपरासी के लिए जिन पश्चिमी देशों में ‘पियून’ और नौकर के लिए ‘सर्वेन्ट’ शब्द का प्रयोग करके अपने अभिजात्यपन को दर्शाया जाता था वहां ये दोनों प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। चपरासी और ‘सर्वेन्ट’ की जगह अगर अब कुछ थोड़ा सा शेष है तो वह है ‘अटेन्डेण्ट-सहायक’ पश्चिमी देशों सहित पूर्वी यूरोप के देशों में भी कमोबेश यही स्थिति है। इन देशों में इस प्रजाति के अदृश्य होने पर कोई सवाल भी नहीं खड़ा किया जा रहा है परन्तु हमारे यहां इस व्यवस्था को लागू रखने के लिए हमेशा कोशिश होती रहती है। कार्यालयों में अधिकारियों व घरों में गृहणियों द्वारा इस प्रजाति के संबंध में ढेर से तर्क सुने जा सकते हैं। इसी के समर्थन में हमारे यहां दफ्तरी व्यवस्था को जीवित रखा जा रहा है। दुनिया में दफ्तरी व्यवस्था का यह स्वरूप सिर्फ भारत में ही बरकरार है। अगर कोई राजनीतिक पार्टी चपरासी विहीन प्रशासन व्यवस्था का सिर्फ प्रस्ताव ही कर दे तो देश में छोटी-मोटी क्रान्ति हो जाएगी क्योंकि हमारे यहाँ पदों की गरिमा इसी कारण बनी है क्योंकि उनके और कार्यालय के अन्य लोगांे के बीच स्टूल पर बैठा ढेर सारे आदेशों को मानता और अवहेलना करता टेबुल दर टेबुल भटकता एक कृशकाय काया मड़राती रहती है।
चपरासी विहीन व्यवस्था की बात उठा देने पर टेबुलों पर चुपचाप बैठे काम के घण्टों में से एक-चैथाई को टहल-घूमकर बिताने वाला, कोट और सामान से अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर सरकारी तंत्र के उपस्थिति पर सवाल खड़ा करने वाला यह वर्ग एक जुमला खड़ा कर देगा कि ऐसा करने से बेरोजगारों की संख्या बढ़ जाएगी। भारत के लिए बेरोजगारी का भूत इतना भयानक है कि वह चपरासी भी बिदक जाएगा। जो लगातार अपने कार्यालयी जीवन में शोषित और उपेक्षित हो रहा है, जो साहब की कार खोलने, गिलास का पानी भरने, घण्टी बजाने पर दौड़कर आने, फाइलों को ढोने, चाय-नाश्ता कराने और तश्तरियां हटाने सहित दफ्तरों की फाईलों की गति बनाये रखने में संलग्न है, जो दफ्तर के अतिरिक्त इन कामों के लिए अपने भाग्य को कोसता मिल जाएगा। दफ्तर से घर तक के बीच संदेश, उपहार पहुँचाने का काम करता हुआ चपरासी कुछ दिनों बाद अपने यथास्थितिवाद पर प्रसन्न हो उठता है क्योंकि साहब के आगन्तुक त्योहारी, नजराना और शुकराना उसे साहब के साथ बने रहने के लिए, साहब के महत्व को मानने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। अगर गम्भीरता से देखा जाए तो कार्यालय में चपरासी की ज्यादा आवश्यकता उसी तबके को पती है जिसके घर इस प्रजाति का अंशमात्र भी कभी नहीं रहा हो। ऐसे लोग ही कार्यों के लिए बार-बार आदेशित करते और डांटते-डपटते रहते हैं। प्रशासनिक अधिकारियों व मंत्रियों के चपरासियों की स्थितियां तो और भी बदतर हैं क्योंकि यहां तो चपरासी को कार्यो के साथ गोपनीयता की शपथ भी निभानी पड़ती है। जो लोग व्यवहारवादी हैं वो चपरासी को इसी शर्त के साथ ही ‘कामरेड’ मान बैठते हैं तथा समाजवाद उनके लिए यहीं जीवित हो उठता है।
चपरासी को साहब के उन टेलीफोनों और लोगों को जवाब भी देने पड़ते हैं जिनसे साहब मिलना नहीं चाहते हैं या फिर आवश्यकता पने पर बनावटी झिड़की भी सहने को तैयार रहना पड़ता है लेकिन नजराना, शुकराना और मेहनताना की दर के कारण लाखों लोग चपरासी बनने का सौभाग्य भी खुशी-खुशी जीने के लिए राजी हो जाते हैं और चपरासी व्यवस्था की पीड़ा भी सहते रहते हैं। इन्हें सहने के साथ-साथ चपरासी भी इस कोशिश में लगातार लगा रहता है कि वह साहब-बड़े साहब का मुंहलगा हो जाए जिससे आफिस में उसे सबसे नीचे दर्जा देकर देखने की प्रथा पर अंकुश लग जाए। अगर वह साहब-बड़े साहब का मुंहलगा हो या तो उसे काम का बोझ, काम के घण्टे और सेवा शर्तों में सुधार की सुविधाएं स्वयं मुहैया हो जाती हैं। फिर तो परस्पर सामंजस्य और सहयोग की स्थिति पर वह सब होने लगता है जिसे समाज में शिष्टाचार कहा जाता है। इसमें साहब के नाम पर अटैची लेने का काम करता हुआ चपरासी उसमे उपलब्ध सामग्री के बारे में अनभिज्ञ रहता हुआ भी गर्व से फूला नहीं समाता है। घर में मेम साहब की डांट-डपट खाते हुए वह यह संतोष कर बैठता है कि साहब की स्थिति ‘जिमी’ से अच्छी तो नहीं है फिर मेरी स्थिति अच्छी कैसे हो सकती है। जिमी हमेशा मेम साहब की गोद में रहता है, मेम साहब नहलाती और उसके सुख-सुविधाओं का ध्यान रखती हैं पर साहब के लिए देने को उनके पास समय नहीं है? ये ढेर सारे तर्क उस चपरासी को मेम साहब के रूखे व्यवहार को सहने के लिए तोष देते हैं।
इन सब कारणों से सभी जगह चपरासी का पद व्यवस्थागत कमजोरी हो गया है। इस पद के कारण वर्तमान में मानव पर मानव के शासन करने की अवैध परम्परा को मान्यता मिलती है। चपरासी के उद्घोष मात्र से एक अभिजात्य बंधुआ मजदूर का बोध होता है जो साहब की प्रसन्नता पर जीवित रहने के लिए मजबूर है। साहब के सुख और दुःख को अपना समझ कर जीने के भ्रम में है। इतना ही नहीं, अवसरों पर यदि साहब के यहां वह अपना परिवार भेजता है तो वहां पूरे परिवार को दोयम दर्जे की स्थिति प्राप्त होती है। क्या सचमुच अपने प्राकृतिक संसाधनों, मानवीय प्रतिभा व वैज्ञानिक तकनीकी उपलब्धि के उपरान्त भी हमें मनुष्य के अपमान के इस स्वरूप को स्वीकारने के लिए बाध्य होना पेगा ? शासकों और शोषितों के बीच इस दीवार का होना एक सिद्धान्त का रूप लेता जा रहा है। चूंकि अशिक्षितों, अर्द्धशिक्षितों तथा शिक्षितों की बड़ी फौज को काम देने का इन्तजाम नहीं है और उत्पादक काम देने का तो बिल्कुल ही नहीं, तो व्यवस्था कुछ को तो चपरासी के रूप में अपने गोद में ले लेती है। ये चपरासी निरन्तर अपमान और क्षुद्रताओं का सामना करते रहते हैं लेकिन यह यातना एक कारखाना, सड़क मजदूर की अपेक्षा कुछ कम होती है इसके साथ ही नौकरी की गारन्टी सहित कुछ विशेषाधिकार जुड़े होते हैं इसलिए चपरासी असंतुष्टि में भी संतुष्ट बना रहता है। व्यवस्था के शिखर पर बैठे मनुष्यों को अनेक सुखों में से एक अमानुषिक सुख यह भी मिलता है कि वे एक भरे-पूरे इंसान को अपनी आवश्यकता के अनुरूप दौड़ा और चला सकते हैं। मानव का मानव के प्रति यह घिनौना स्वरूप थमने वाला नहीं है क्योंकि इसे ‘स्टेट्स सिंबल’ से जो दिया गया है। वैसे ही जैसे अंग्रेजी को ‘स्टेट्स सिंबल’ के रूप में स्वीकार किया गया है। सरकार की लगातार हिन्दी प्रसार व प्रयोग की घोषणाओं के बाद भी हर वर्ष अंग्रेजी के स्कूल ही खुल रहे हैं। प्राइमरी पाठशालाएं अपना स्थान खोती जा रही हैं। वामपंथियों में तो चपरासी के प्रति अजीब नजरिया होता है। वो अगर पद पर नहीं है तो चपरासी कामरेड रहता है, उसकी बीड़ी पी जा सकती, उसके घर उपवास के समय सूखी रोटियां समाजवाद के के नाम पर तोड़ी जा सकती हैं लेकिन पद पर आ जाने के बाद उन पर भी वही अभिजात्य मानसिकता हावी हो जाती है। उनका वह सामाजिक अन्तराल मर चुका होता है। इस परम्परा से तब तक निजात नहीं पाया जा सकता है जब तक कि हम चपरासी को आदमी मानने से इनकार करते रहेंगे और उसके पूरे जीवन को पद के दृष्टिकोण से देखते रहेंगे। मानव के अपमान के इस स्वरूप को स्वीकारने के लिए आखिर कब तक बाध्य रहना पेगा, यह सवाल हमारे देश में अन उत्तरित होगा या हम लोग पश्चिमी देशों सहित पूर्वी यूरोप में विलुप्त हो रही इस प्रजाति को कायम रखने के बोध से गौरवान्वित होते रहंेगे।
चपरासी विहीन व्यवस्था की बात उठा देने पर टेबुलों पर चुपचाप बैठे काम के घण्टों में से एक-चैथाई को टहल-घूमकर बिताने वाला, कोट और सामान से अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर सरकारी तंत्र के उपस्थिति पर सवाल खड़ा करने वाला यह वर्ग एक जुमला खड़ा कर देगा कि ऐसा करने से बेरोजगारों की संख्या बढ़ जाएगी। भारत के लिए बेरोजगारी का भूत इतना भयानक है कि वह चपरासी भी बिदक जाएगा। जो लगातार अपने कार्यालयी जीवन में शोषित और उपेक्षित हो रहा है, जो साहब की कार खोलने, गिलास का पानी भरने, घण्टी बजाने पर दौड़कर आने, फाइलों को ढोने, चाय-नाश्ता कराने और तश्तरियां हटाने सहित दफ्तरों की फाईलों की गति बनाये रखने में संलग्न है, जो दफ्तर के अतिरिक्त इन कामों के लिए अपने भाग्य को कोसता मिल जाएगा। दफ्तर से घर तक के बीच संदेश, उपहार पहुँचाने का काम करता हुआ चपरासी कुछ दिनों बाद अपने यथास्थितिवाद पर प्रसन्न हो उठता है क्योंकि साहब के आगन्तुक त्योहारी, नजराना और शुकराना उसे साहब के साथ बने रहने के लिए, साहब के महत्व को मानने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। अगर गम्भीरता से देखा जाए तो कार्यालय में चपरासी की ज्यादा आवश्यकता उसी तबके को पती है जिसके घर इस प्रजाति का अंशमात्र भी कभी नहीं रहा हो। ऐसे लोग ही कार्यों के लिए बार-बार आदेशित करते और डांटते-डपटते रहते हैं। प्रशासनिक अधिकारियों व मंत्रियों के चपरासियों की स्थितियां तो और भी बदतर हैं क्योंकि यहां तो चपरासी को कार्यो के साथ गोपनीयता की शपथ भी निभानी पड़ती है। जो लोग व्यवहारवादी हैं वो चपरासी को इसी शर्त के साथ ही ‘कामरेड’ मान बैठते हैं तथा समाजवाद उनके लिए यहीं जीवित हो उठता है।
चपरासी को साहब के उन टेलीफोनों और लोगों को जवाब भी देने पड़ते हैं जिनसे साहब मिलना नहीं चाहते हैं या फिर आवश्यकता पने पर बनावटी झिड़की भी सहने को तैयार रहना पड़ता है लेकिन नजराना, शुकराना और मेहनताना की दर के कारण लाखों लोग चपरासी बनने का सौभाग्य भी खुशी-खुशी जीने के लिए राजी हो जाते हैं और चपरासी व्यवस्था की पीड़ा भी सहते रहते हैं। इन्हें सहने के साथ-साथ चपरासी भी इस कोशिश में लगातार लगा रहता है कि वह साहब-बड़े साहब का मुंहलगा हो जाए जिससे आफिस में उसे सबसे नीचे दर्जा देकर देखने की प्रथा पर अंकुश लग जाए। अगर वह साहब-बड़े साहब का मुंहलगा हो या तो उसे काम का बोझ, काम के घण्टे और सेवा शर्तों में सुधार की सुविधाएं स्वयं मुहैया हो जाती हैं। फिर तो परस्पर सामंजस्य और सहयोग की स्थिति पर वह सब होने लगता है जिसे समाज में शिष्टाचार कहा जाता है। इसमें साहब के नाम पर अटैची लेने का काम करता हुआ चपरासी उसमे उपलब्ध सामग्री के बारे में अनभिज्ञ रहता हुआ भी गर्व से फूला नहीं समाता है। घर में मेम साहब की डांट-डपट खाते हुए वह यह संतोष कर बैठता है कि साहब की स्थिति ‘जिमी’ से अच्छी तो नहीं है फिर मेरी स्थिति अच्छी कैसे हो सकती है। जिमी हमेशा मेम साहब की गोद में रहता है, मेम साहब नहलाती और उसके सुख-सुविधाओं का ध्यान रखती हैं पर साहब के लिए देने को उनके पास समय नहीं है? ये ढेर सारे तर्क उस चपरासी को मेम साहब के रूखे व्यवहार को सहने के लिए तोष देते हैं।
इन सब कारणों से सभी जगह चपरासी का पद व्यवस्थागत कमजोरी हो गया है। इस पद के कारण वर्तमान में मानव पर मानव के शासन करने की अवैध परम्परा को मान्यता मिलती है। चपरासी के उद्घोष मात्र से एक अभिजात्य बंधुआ मजदूर का बोध होता है जो साहब की प्रसन्नता पर जीवित रहने के लिए मजबूर है। साहब के सुख और दुःख को अपना समझ कर जीने के भ्रम में है। इतना ही नहीं, अवसरों पर यदि साहब के यहां वह अपना परिवार भेजता है तो वहां पूरे परिवार को दोयम दर्जे की स्थिति प्राप्त होती है। क्या सचमुच अपने प्राकृतिक संसाधनों, मानवीय प्रतिभा व वैज्ञानिक तकनीकी उपलब्धि के उपरान्त भी हमें मनुष्य के अपमान के इस स्वरूप को स्वीकारने के लिए बाध्य होना पेगा ? शासकों और शोषितों के बीच इस दीवार का होना एक सिद्धान्त का रूप लेता जा रहा है। चूंकि अशिक्षितों, अर्द्धशिक्षितों तथा शिक्षितों की बड़ी फौज को काम देने का इन्तजाम नहीं है और उत्पादक काम देने का तो बिल्कुल ही नहीं, तो व्यवस्था कुछ को तो चपरासी के रूप में अपने गोद में ले लेती है। ये चपरासी निरन्तर अपमान और क्षुद्रताओं का सामना करते रहते हैं लेकिन यह यातना एक कारखाना, सड़क मजदूर की अपेक्षा कुछ कम होती है इसके साथ ही नौकरी की गारन्टी सहित कुछ विशेषाधिकार जुड़े होते हैं इसलिए चपरासी असंतुष्टि में भी संतुष्ट बना रहता है। व्यवस्था के शिखर पर बैठे मनुष्यों को अनेक सुखों में से एक अमानुषिक सुख यह भी मिलता है कि वे एक भरे-पूरे इंसान को अपनी आवश्यकता के अनुरूप दौड़ा और चला सकते हैं। मानव का मानव के प्रति यह घिनौना स्वरूप थमने वाला नहीं है क्योंकि इसे ‘स्टेट्स सिंबल’ से जो दिया गया है। वैसे ही जैसे अंग्रेजी को ‘स्टेट्स सिंबल’ के रूप में स्वीकार किया गया है। सरकार की लगातार हिन्दी प्रसार व प्रयोग की घोषणाओं के बाद भी हर वर्ष अंग्रेजी के स्कूल ही खुल रहे हैं। प्राइमरी पाठशालाएं अपना स्थान खोती जा रही हैं। वामपंथियों में तो चपरासी के प्रति अजीब नजरिया होता है। वो अगर पद पर नहीं है तो चपरासी कामरेड रहता है, उसकी बीड़ी पी जा सकती, उसके घर उपवास के समय सूखी रोटियां समाजवाद के के नाम पर तोड़ी जा सकती हैं लेकिन पद पर आ जाने के बाद उन पर भी वही अभिजात्य मानसिकता हावी हो जाती है। उनका वह सामाजिक अन्तराल मर चुका होता है। इस परम्परा से तब तक निजात नहीं पाया जा सकता है जब तक कि हम चपरासी को आदमी मानने से इनकार करते रहेंगे और उसके पूरे जीवन को पद के दृष्टिकोण से देखते रहेंगे। मानव के अपमान के इस स्वरूप को स्वीकारने के लिए आखिर कब तक बाध्य रहना पेगा, यह सवाल हमारे देश में अन उत्तरित होगा या हम लोग पश्चिमी देशों सहित पूर्वी यूरोप में विलुप्त हो रही इस प्रजाति को कायम रखने के बोध से गौरवान्वित होते रहंेगे।
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