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मंडल का न्याय

Dr. Yogesh mishr
Published on: 22 Nov 1992 1:09 PM IST
सामाजिक न्याय का जुमला उच्चतम न्यायालय द्वारा पुष्ट हो जाने के  बाद पूरे देश में एक बार फिर आन्दोलन का जज्बा उग्र होता नजर आ रहा है। एक बार फिर तरुणाई हिंसा का सहारा लेने के  लिये स्वयं को अवश महसूस कर रही है। इस राजनीतिक चाल के  परिणाम इतने गम्भीर हुए कि न्याय पालिका की शरण लेनी पड़ी। मूलतः विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिरने के  पीछे 7 अगस्त 1990 को नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा करना ही इसका कारण था क्योंकि उनकी इस घटना से राष्ट्रीय मोर्चा का संसद में सहयोगी दल भाजपा चिन्तित हो उठा और उसे लगा कि अचानक वोटों की फसल वी.पी. ने उसके  बिना पूछे कैसे उगा ली ? इतना ही नहीं, मण्डल की घोषणा से भाजपा को अपने हिन्दू वोट बैंक में भी गम्भीर सेंध से लगी हुई दिखी।
वैसे तो मंडल आयोग के  गठन की घोषणा 20 दिसम्बर, 1978 को हुई थी। जिसने 3743 पिछड़ी जातियों की पहचान सहित 31 दिसम्बर 1980 को अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी। इस रिपोर्ट को जब इंका द्वारा मंत्रिमण्डल कमेटी की बैठक के  बाद ठंडे बस्ते में डाला गया, उस समय वी.पी. सिंह उस मंत्रिमण्डल के  महत्वपूर्ण स्तम्भ थे और उस समय उनकी चुप्पी रही। इससे स्पष्ट तौर पर स्वीकारा जा सकता है कि वी.पी. की मंशा भी ‘सामाजिक न्याय’ के  जुमले को चरितार्थ करना नहीं वरन् वोटों को उपजा फसल भारत के  लोकतंत्र में बो लेना था। वी.पी. की इस मंशा के  पीछे पूरा उत्तर भारत जल उठा और 19 सितम्बर, 1990 को आत्मदाह के  प्रयास ने एक श्रृंखला ही बना दीं जिसमें युवा आक्रोश की चरम परिणित दिखी। पूरा हिन्दू समाज झगड़ों और पिछड़ों की वैमनस्यवादी प्रकृति में विभाजित हो गया। उस समय इस आन्दोलन का एक तर्क यह था कि उच्च न्यायालय में अगड़ों ने कुछ याचिका दायर कर दी। उच्चतम न्यायालय ने 16 नवम्बर को अपना निर्णय सुना दिया। जिसमें वी.पी. सिंह के  ही मण्डल के  माध्यम से विभाजन की प्रवृत्तियों पर मुहर लगा दी गयी। यानी वोटों की फसल जो वीपी सिंह की थी उसे लहलहाते देखना उच्चतम न्यायालय को भी रास आया।
फैसले में उच्चतम न्यायालय की 9 सदस्यीय खण्डपीठ को शरीक किया गया था। 1972 के  बाद किसी भी मामले की सुनवाई के  लिए इतनी बड़ी पीठ पहली बार बैठी। उच्चतम न्यायालय ने मण्डल आयोग की 1980 की रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए माना कि ‘इस तरह के  मानवीय मामलों में कभी भी एक सम्पूर्ण रिपोर्ट नहीं दी जा सकती है। सम्पूर्णता एक आदर्श है। ऐसा लक्ष्य नहीं जिसे पाया जा सके ।’
ऐसा कहकर उच्चतम न्यायालय ने मण्डल आयोग की स्वीकृति ही नहीं दी। वरन् उसने मण्डल आयोग की कमियों को पूरी तरह न्यायालय में सुरक्षित कर दिया। अपने फैसले में नैकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण को वैध ठहराते हुए पिछड़े वर्ग में अनावश्यक लाभ लेने की प्रवृत्ति पर भी अंकुश लगाने में सफलता पायी है उसने कहा है कि पिछड़े वर्गो की सूची में उन लोगों को शामिल नहीं किया जाए जो पिछड़े होने के  बावजूद सामाजिक दृष्टि से समृद्ध हैं। एक ऐसे देश में, जिसमें मनुवादी सामाजिक संरचना के  विरोध में विद्रोह के  तेवर हों। जिस देश की सामाजिक संरचना स्वयं को तोकर विश्रृंखलित करके  उन्मुक्त हो जाने की कोशिश में लगातार सफल होती जा रही है वहां मण्डल आयोग लागू करने के  पीछे सामाजिक न्याय की मंशा उचित नहीं ठहरती है, क्योंकि मनुवादी व्यवस्था है कहां ? जब वह यथार्थ और व्यवहार में नहीं है तो फिर उसके  खिलाफ विद्रोह क्यों ? शहरीकरण और पाश्चात्यीकरण ने इस व्यवस्था के  कथित तार भी छिन्न भिन्न कर दिये हैं।
इस राजनीतिक मुद्दे को तय करने में उच्चतम न्यायालय ने भी स्वयं को काफी कमजोर महसूस किया। उच्चतम न्यायालय से जिस न्याय की अपेक्षा थी, वह कर सकने में वह सक्षम नहीं दिखा। पहली बार इतनी बड़ी पीठ में जिस तरह के  विवाद उभरे, उससे न्याय पालिका की विश्वसनीयता फिर संकट में पड़ी दिख जाती है। एक ओर न्यायमूर्ति सहाय ने मण्डल आयोग के  जातियों के  पहचान के  तरीके  को असंवैधानिक बताते हुए पचास प्रतिशत से अधिक आरक्षण का विरोध किया। न्यायमूर्ति पी.के . थामन ने अपने फैसले में आरक्षण के  सवाल पर पुनर्विचार करने को कहा। न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह ने आर्थिक आधार पर नरसिंह राव के  फैसले को उचित ठहराते हुए कहा कि अनुच्ेद 16(4) के  तहत वर्ग को जाति नहीं मानना चाहिए।
पूरी पीठ के  एक बहुत बड़े अंश ने आर्थिक आधार के  नरसिंह राव के  तर्क को खारिज कर दिया। वैसे एक ऐसे देश में जहां तीन चैथाई अर्थव्यवस्था अमुद्रीकृत हो। जहां कोई निश्चित आर्थिक संरचना न हो। वहां आर्थिक आधार की बात करना बेमानी है। कांग्रेस ने आर्थिक आधार मानने की वकालत की थी लेकिन अदालत के  बार-बार आग्रह करने पर भी सरकार आर्थिक स्थिति तय करने का कोई आधार नहीं दे पायी। एक ऐसी सरकार जिसके  पास मनमोहन सिंह जैसा परिवर्तनवादी वित्त मंत्री हो, वह आर्थिक आधार पर कोई तर्क न दे पाये इससे शर्मनाक कुछ भी नहीं हो सकता है। कुल मिलाकर आर्थिक आधार पर तर्क अपरिभाषित ही रह गया।
वैसे राजनीतिक क्षेत्र में आरक्षण का विरोध करने का साहस किसी को नहीं हुआ। आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात जोकर कांग्रेस और भाजपा ने आरक्षण कहीं वीपी की उपलब्धि न हो जाए उसमें रोड़ा अटकाने का काम किया था। दरअसल, यह फैसला उच्चतम न्यायालय की उदासीनता का परिचायक है। क्योंकि हमारी  न्याय व्यवस्था ने एक मुद्दे पर तीन तरह के  फैसले सुनाये। जिसमें पांच जजों ने वी.पी. के  आरक्षण को वैध ठहराते हुये लिखा कि पदोन्नति में आरक्षण का लाभ न मिले। इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय को यह भी परिभाषित करना चाहिए था कि पदोन्नति में आरक्षण अनुसूचित  जाति का कायम रहेगा या नहीं। यदि अनुसूचित जाति का लाभ कायम रहता है तो पदोन्नति में उत्तर प्रदेश में पिी जातियों को कोई लाभ नहीं मिलता है, यह उच्चतम न्यायालय को जानना चाहिए था। तीन जजों ने जाति के  आधार पर आरक्षण को संविधान में दर्ज धर्म निरपेक्षता का उंधन घोषित करते हुये पूरे आदेश को गैर कानूनी बताया। पांडियन ने अगस्त 1990 के  फैसले को पूरी तरह उचित माना।
अल्पसंख्यकों में भी मुसलमानों को शामिल न करना और आगामी चार माह में प्रदेश सरकार को पिछड़ी जातियों की पहचान के  लिए स्थायी आयोग बनाना। इसकी सिफारिश मानने को अनिवार्य बनाना जैसा कार्य यह बताता है कि उच्चतम न्यायालय ने मण्डल के  मुद्दे पर के न्द्र सरकार को सुरक्षित करने का काम किया है और सारी जिम्मेदारियों प्रदेश सरकार पर डाल दी हैं।
वैसे तो इस फैसले को गम्भीरता से देखा जाए तो हमारी न्याय पालिका विवाद व संदेह के  प्रश्नों से घिर उठती है क्योंकि न्याय पालिका से स्पता व निष्पक्षता की आशा होती है। न्यायपालिका अगर राजनीति का कार्य करने लगे तो उचित नहीं होता है। वैसे भी हमारी न्यायपालिका के  प्रतीक के  रूप में जिस न्याय की देवी की कल्पना की गयी है, वह भी आंख पर पट्टी बांधकर तराजू पर न्याय की स्थापना नहीं कर पाती है। आंख खुलने पर उससे यह आशा करना तो निरर्थक ही है क्योंकि आंख खुलेगी तो उसकी प्रतिबद्धताएं जग उठेंगी। वैसे मण्डल आयोग का प्रयोग जिस तरह हथियार के  रूप में हुआ है वह एक गम्भीर समस्या है और हमारे सामाजिक परिवेश के  लिए एक खतरा भी। उच्चतम न्यायालय के  फैसले पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भाजपा नेता अटल बिहारी बाजपेयी ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण माना लेकिन उन्हीं के  मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने 27 प्रतिशत आरक्षण की मुलायम सिंह के  कार्यकाल की घोषणा को दो बार जस का तस अध्यादेश के  माध्यम से पारित किया है।
उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में जो कुछ कहा वह स्पष्ट है। उसे पूरी तरह परिभाषित होना चाहिए था। इंका उच्चतम न्यायालय के  निर्णय पर सभी राजनीतिक दलों की राय जानने का विचार कर रही है। वह संविधान संशोधन की मृगमरीचिका दिखाकर अगड़ों को बांधना चाहेगी और भाजपा अब उच्चतम न्यायालय की उपेक्षा करके  कारसेवा चालू करके  हिन्दू मतों की सेंध को रोकने का प्रयास करेगी। यह सब कुछ लोकतंत्र को गुमराह करने की साजिश है।
युवाओं में आक्रोश लाजमी है। उनसे देश का कर्णधार होने के  नाते अपेक्षाएं भी ज्यादा हैं कि वे उच्चतम न्यायालय के  मर्यादा की रक्षा करें। भले ही मतीय निष्ठा के  तहत संसद से शाहबानो सरीखे मुकदमों पर मोहर लगवाकर स्त्री विभेद उत्पन्न कराया जाए। वैसे भी हमारे देश में रोटी का कोई महत्व नहीं है। रोटी छीनने के  पीछे प्रतिक्रयाएं लाजिमी भी नहीं है। सत्ता छिनना भी खराब माना जाता है। हमारी कुर्सियां पेट से बड़ी हैं।  तभी तो पेट में कुर्सियां समा जाती हैं। मंडल के  न्याय पर पिछड़ों को हर्षना भी नहीं चाहिए क्योंकि बैसाखियां देने वाली सहानुभूति पर जीना कम खतरनाक नहीं होता है। क्योंकि मंडल के  पीछे मंशा है अलगाव की। सहानुभूति की। बैसाखी की। इस मंशा से दूर रहने की जरूरत आन पड़ी है। वर्ना राजनीतिज्ञ हमें पास रहने से तो नहीं रोक पाएंगे। हां, साथ-साथ नहीं रहने दंेगे।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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