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अम्बेडकर को हथियार मत बनाइये
भारतीय संविधान की रचना करके भीमराव अम्बेडकर बीसवीं शताब्दी के स्मृतिकार बन गये। 26 जनवरी,1950 को उन्होंने संविधान को आत्मर्पित करते हुए कहा कि ‘हम भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्टा एवं अवसर की समानता आदि के अधिकार देने की घोषणा करते हैं। आज से सभी नागरिकों को इन अधिकारों को समान रूप से पाने का अधिकार प्राप्त हो गया। ’ इस घोषणा को करने के बाद भीमराव अम्बेकर को भारत का मनु कहकर सम्बोधित किया गया था। आज अम्बेकर समर्थक मनुवादी, सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलन्द कर रहे हैं। इसी आधार पर उन्होंने जातीय ध्रुवों को हवा देकर सत्ता भी छीनी। यह सत्ता पाने का क्रम पहली बार जातीय आधार पर नहीं हुआ वरन् राजनीति ने हमेशा जातीय व साम्प्रदायिक शक्तियों को हवा दी। इस बार जातीय व साम्प्रदायिक शक्तियों को हवा देकर लाभ उठा लेने वाली ताकतों की जगह हवा खाने वाली ताकतों ने ही सत्ता हथिया ली। यही वह व्यग्रता है जो राजनीति व सामाजिक परिवेश में देखने को मिल रही है। अन्तर महज इतना ही है कि इस बार जातीय एवं साम्प्रदायिक ताकतों को हवा देकर सत्ता पाने वाली शक्तियों ने पराजित ताकतों को मुंह चिाना शुरू कर दिया है। स्थापित शक्तियां आमूल-चूल परिवर्तन के नारे पर अड़ी हैं, जबकि उन्हें पता है कि आमूल-चूल परिवर्तन सम्भव नहीं है। होता भी नहीं है। जैसे बसपा अध्यक्ष कांशीराम यह कहते नहीं थकते हैं कि सामाजिक संरचना उध्र्वाधर की जगह क्षैतिज बनायी जाएगी। उन्हें यह सम में नहीं आता कि कोई संरचना जो उध्र्वाधर हैं वह क्षैतिज नहीं हो सकती, क्योंकि उस संरचना का क्षैेतिज होने का सीधा सा मतलब उसका अपना स्थापित स्वरूप खो देना है। किसी भी स्कूल में अध्यापकों के पर एक प्रधानाध्यापक होता है। उसके पर क्रमशः इसी तरह और भी अधिकारियों की उध्र्वाधर संरचना खी होती है। कोई कहे कि अब शिक्षा से सम्बन्धित सभी लोग मास्टर होंगे तो यह एकदम बचकाना और अनौचित्यपूर्ण है। दुःखद यह है कि इस तरह की आधारहीन बातें करने वाले लोग हमारे संविधान शिल्पी भीमराव अम्बेकर का स्वयं को घोषित उत्तराधिकारी बता रहे हैं। उस अंबेडकर का उत्तराधिकारी जिसे हमने बीसवीं सदी का मनु कह कर स्वीकार किया। आज अम्बेडकर के नाम पर कुछ लोग राजनीतिक पार्टियां गठित करके उन पर अपना हक जमा कर उन्हें सीमाओं से बांधना चाह रहे हैं। महात्मा गांधी को कांग्रेसी, कांग्रेस से नहीं बांध पाये। विनोबा भावे नहीं बंधे। लोहिया जी एवं जय प्रकाश जी किसी की निजी मल्कियत में नहीं समाये। फिर अम्बेडकरवादी बनकर यह सब करते रहना कितना और कहां तक सार्थक है ? अम्बेडकर को जातीय सीमाओं में कस लेना कितना उचित है? अम्बेडकर ने जिस संविधान का निर्माण किया था उसमें सबके लिए समान अधिकार की बात थी/है। फिर असमानता का बीज बोने के लिए अम्बेडकर को क्यों कर अपना हथियार बनाया जा रहा है ? 5 फरवरी 1950 को सदन को सम्बोधित करते हुए उन्होंने चेतावनी दी थी कि भारत शताब्दियों के बाद स्वतंत्र हुआ है, स्वराज्य की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। भारत में किसी भी प्रकार की फूट हमारा स्वराज्य हमसे छीन लेगी। शताब्दियों की गुलामी के परिणामस्वरूप हमारे यहां छिपापन और जातिवाद आदि भेदभाव उत्पन्न हो गये हैं। भारत ने अपने ही लोगों की गद्दारी के कारण अपनी स्वतंत्रता गंवायी थी। सिंध के राजा दाहिर को मोहम्मद बिन कासिम ने हराया था। इस हार का एकमात्र कारण यह था कि दाहिर के सेनापतियों ने कासिम से घूस ले ली थी। आज अम्बेडकर के सेनापति कुछ ऐसा ही कर रहे हैं। क्यों कर रहे हैं ? यह पता नहीं लग पा रहा है। राष्ट्र के लिए सोचने-समझने और तमाम विसंगतियों, साधनों एवं अपमानों में जी कर भी राष्ट्र के लिए कुछ कर गुजरने वाले अम्बेडकर को जाति में बांधने की साजिश क्यों? समानता का संविधान देने वाले को हथियार बनाकर सामाजिक असमानता का खेल आज खेला जा रहा है।
अम्बेडकर का संघर्ष आत्मसम्मान का था। समाज के प्रत्येक व्यक्ति की आजादी का था। वे हरिजन नेता की भूमिका के रूप में बड़े कटु थे। वह पूर्णतया राष्ट्रवादी थे। वे अपने समय के विश्व के सर्वोत्कृअट 6 विद्वानों में से एक थे। वे स्वयं को हिन्दू समाज का अंग मानते थे। बौद्ध धर्म उन्होने इसलिए ही स्वीकार किया था कि वह हिन्दू समाज का सुधार करने वाला एक आन्दोलन था। 1936 में 30-31 मई को मुम्बई में आयोजित एक सम्मेलन में उन्होंने धर्म परिवर्तन पर विचार व्यक्त करते हुए कहा था, ‘हम लोग यदि ईसाई या इस्लाम धर्म स्वीकार करेंगे तो हमारी भारतीयता में अन्तर आ जाएगा। हमारे सिर मक्का एवं मदीना की ओर ुकने लगेंगे।’ उन्होंने अपनी पुस्तक ‘थाट्स आॅन पाकिस्तान’ में लिखा था कि ‘मुसलमानों के लिए उनका मजहब सर्वोपरि होने के कारण उन्हें जनतंत्र की कल्पना समझ में नहीं आ सकती। उनकी राजनीति मजहब प्रधान है। अपने प्रतिगामी विचारों के साथ ही वे सारे विश्व में पहचाने जाते हैं। उनका बंधुत्व के वल मुसलमानों तक ही सीमित होता है। उन्होंने उसी समय कहा था कि पाकिस्तान में गैर मुस्लिमों की वही स्थिति होगी, जो हिटलर की हुकूमत में यदियों की थी।’ इतने दूरदृष्टा थे अम्बेडकर। राष्ट्रीयता तो उनमें इतनी अन्तर्निहित थी कि वो कहते थे, ‘मुझे यह अच्छा नहीं लगता, जब कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं और बाद में हिन्दू अथवा मुसलमान। मुझे यह स्वीकार नहीं है। धर्म, संस्कृति भाषा तथा राज्य के प्रतीक निष्ठा से परे हैं - भारतीय होने की निष्ठा। मैं चाहता हूँ कि लोग पहले भारतीय हों और अन्त तक भारतीय बने रहें - भारतीय के अलावा कुछ नहीं।’
अम्बेडकर ने कहा कि ‘जाति भावनाओं से आर्थिक विकास रुकता है। इससे वे स्थितियां पैदा होती हैं जो कृषि तथा अन्य क्षेत्रों में सामूहिक प्रयत्नों के विरुद्ध हैं। जात-पांत के रहते हुए ग्रामीण विकास समाजवादी सिद्धान्तों के विरुद्ध रहेगा।’ आज स्वयं को अम्बेडकरवादी कहकर ‘वोट बैंक’ बनाने में जुटे प्रतिबद्ध लोगों को यह सब पढ़ने और जानने की जरूरत है। ये लोग अम्बेडकर का कद कतरने में जुटे हैं ये अम्बेडकर को जातीय सीमाओं में जकड़ना चाहते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें अम्बेडकर के जन्म, दर्शन से कोई ताल्लुक नहीं है। अगर इनसे पूछा जाये कि अम्बेडकर कब पैदा हुए थे, कहां पैदा हुए थे तो ये लोग मौन रह जायेंगे। ये लोग वैसे ही अम्बेडकरवादी हैं जैसे हमारे राजनीतिज्ञ राष्ट्रवादी। हमारे राष्ट्रवादी राजनीतिज्ञों को यह नहीं पता कि राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत में क्या अंतर है? उन्हें राष्ट्रपिता के मायने नहीं पता। पर वे राष्ट्रहितों के पोषक हैं। वो ही इकलौते राष्ट्रहितों के पोषक है। यही उनका दायरा है। भीमराव अम्बेडकर की पत्नी सविता अम्बेडकर को रायबरेली से चुनाव हरवाने में इन्हीं अम्बेडकरवादी लोगों का हाथ था। यही लोग प्रकाश अम्बेडकर को अम्बेडकर का असली वारिस बनने देने से रोकने में जुटे हैं। ऐसे लोगों का चेहरा बेनकाब करना जरूरी है। महाराष्ट्र के भणरा सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्र में दूसरे संसदीय चुनाव में पराजित हो जाने के बाद भीमराव अम्बेडकर ने जवाहर लाल नेहरू को एक पत्र लिखा था कि ‘मैं अपनी पराजय से इस निष्कर्ष पर पहंुचा हूं कि देश का दलित अब अपने बारे में समझने-बूझने की स्थिति में आ गया है।’ इस पत्र को जवाहर लाल नेहरू ने संसद के पटल पर भी रखा था। इस पत्र को जानने-समझने के बाद भी अम्बेडकरवादी दलित राजनीति का प्रणेता बनने का दंभ जीते रहना चाहते हैं।
इन परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि जीवन के उन बुनियादी एवं शाश्वत मार्गों की खोज की जाये। उन्हें पुनः स्थापित किया जाये जिन पर चलकर आदिकाल से आज तक मानवता ने प्रकाश प्राप्त किया है, चाहे वह ईसा मसीह के बलिदान से प्रशस्त मार्ग हो या बुद्ध का सामाजिक परम्पराओं के प्रति विद्रोह का पथ या फिर गांधी के संघर्ष या अम्बेडकर के संविधान निर्माण करके समाज को बांधने का प्रयास। गीता में कृष्ण ने कहा था -
यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः।
अभ्युत्थानमूधर्मस्य तादात्मानं सृजाभ्यहम्।।
परित्राणाय साधनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म-संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे।।
इसका सीधा सा अभिप्राय है कि जब देश और समाज की परिस्थितियां बहुत खराब हो जाती हैं तो उसे सुधारने के लिए महापुरुषों का जन्म होता है। भीमराव अम्बेडकर इसी तरह के एक महापुरुष थे जो किसी जाति, वर्ग, सम्प्रदाय की सीमाओं से परे थे। इन्हें परे ही रहने दें। यही इनके प्रति हमारी, हमारे परिवेश की सच्ची श्रृद्धांजलि होगी। इन्हें हम सामाजिक संरचना ठीक करने के लिए हथियार या औजार के रूप में प्रयोग मत करें।
हम जिस जीवन दृष्टि से बंधे है उसमें मानव की मूल्यात्मक स्थिति संत दयावत् है, जो परदुख से सहज ही द्रवित हो जाता है -
संत दय नवनीत समझाना। कहा कविन पै कहत न जाना।
निज परिताप द्रवै नवनीता। पर दुःख द्रवै संत सुपुनीता।।
इतना ही नहीं उसे यह भी समझ में आता है कि -
परहित सरिस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।
और अब इसी परिवेश में अम्बेडकरवादी लोगों को भी भीमराव अम्बेडकर को देखने की आदत डालनी चाहिए।
अम्बेडकर का संघर्ष आत्मसम्मान का था। समाज के प्रत्येक व्यक्ति की आजादी का था। वे हरिजन नेता की भूमिका के रूप में बड़े कटु थे। वह पूर्णतया राष्ट्रवादी थे। वे अपने समय के विश्व के सर्वोत्कृअट 6 विद्वानों में से एक थे। वे स्वयं को हिन्दू समाज का अंग मानते थे। बौद्ध धर्म उन्होने इसलिए ही स्वीकार किया था कि वह हिन्दू समाज का सुधार करने वाला एक आन्दोलन था। 1936 में 30-31 मई को मुम्बई में आयोजित एक सम्मेलन में उन्होंने धर्म परिवर्तन पर विचार व्यक्त करते हुए कहा था, ‘हम लोग यदि ईसाई या इस्लाम धर्म स्वीकार करेंगे तो हमारी भारतीयता में अन्तर आ जाएगा। हमारे सिर मक्का एवं मदीना की ओर ुकने लगेंगे।’ उन्होंने अपनी पुस्तक ‘थाट्स आॅन पाकिस्तान’ में लिखा था कि ‘मुसलमानों के लिए उनका मजहब सर्वोपरि होने के कारण उन्हें जनतंत्र की कल्पना समझ में नहीं आ सकती। उनकी राजनीति मजहब प्रधान है। अपने प्रतिगामी विचारों के साथ ही वे सारे विश्व में पहचाने जाते हैं। उनका बंधुत्व के वल मुसलमानों तक ही सीमित होता है। उन्होंने उसी समय कहा था कि पाकिस्तान में गैर मुस्लिमों की वही स्थिति होगी, जो हिटलर की हुकूमत में यदियों की थी।’ इतने दूरदृष्टा थे अम्बेडकर। राष्ट्रीयता तो उनमें इतनी अन्तर्निहित थी कि वो कहते थे, ‘मुझे यह अच्छा नहीं लगता, जब कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं और बाद में हिन्दू अथवा मुसलमान। मुझे यह स्वीकार नहीं है। धर्म, संस्कृति भाषा तथा राज्य के प्रतीक निष्ठा से परे हैं - भारतीय होने की निष्ठा। मैं चाहता हूँ कि लोग पहले भारतीय हों और अन्त तक भारतीय बने रहें - भारतीय के अलावा कुछ नहीं।’
अम्बेडकर ने कहा कि ‘जाति भावनाओं से आर्थिक विकास रुकता है। इससे वे स्थितियां पैदा होती हैं जो कृषि तथा अन्य क्षेत्रों में सामूहिक प्रयत्नों के विरुद्ध हैं। जात-पांत के रहते हुए ग्रामीण विकास समाजवादी सिद्धान्तों के विरुद्ध रहेगा।’ आज स्वयं को अम्बेडकरवादी कहकर ‘वोट बैंक’ बनाने में जुटे प्रतिबद्ध लोगों को यह सब पढ़ने और जानने की जरूरत है। ये लोग अम्बेडकर का कद कतरने में जुटे हैं ये अम्बेडकर को जातीय सीमाओं में जकड़ना चाहते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें अम्बेडकर के जन्म, दर्शन से कोई ताल्लुक नहीं है। अगर इनसे पूछा जाये कि अम्बेडकर कब पैदा हुए थे, कहां पैदा हुए थे तो ये लोग मौन रह जायेंगे। ये लोग वैसे ही अम्बेडकरवादी हैं जैसे हमारे राजनीतिज्ञ राष्ट्रवादी। हमारे राष्ट्रवादी राजनीतिज्ञों को यह नहीं पता कि राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत में क्या अंतर है? उन्हें राष्ट्रपिता के मायने नहीं पता। पर वे राष्ट्रहितों के पोषक हैं। वो ही इकलौते राष्ट्रहितों के पोषक है। यही उनका दायरा है। भीमराव अम्बेडकर की पत्नी सविता अम्बेडकर को रायबरेली से चुनाव हरवाने में इन्हीं अम्बेडकरवादी लोगों का हाथ था। यही लोग प्रकाश अम्बेडकर को अम्बेडकर का असली वारिस बनने देने से रोकने में जुटे हैं। ऐसे लोगों का चेहरा बेनकाब करना जरूरी है। महाराष्ट्र के भणरा सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्र में दूसरे संसदीय चुनाव में पराजित हो जाने के बाद भीमराव अम्बेडकर ने जवाहर लाल नेहरू को एक पत्र लिखा था कि ‘मैं अपनी पराजय से इस निष्कर्ष पर पहंुचा हूं कि देश का दलित अब अपने बारे में समझने-बूझने की स्थिति में आ गया है।’ इस पत्र को जवाहर लाल नेहरू ने संसद के पटल पर भी रखा था। इस पत्र को जानने-समझने के बाद भी अम्बेडकरवादी दलित राजनीति का प्रणेता बनने का दंभ जीते रहना चाहते हैं।
इन परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि जीवन के उन बुनियादी एवं शाश्वत मार्गों की खोज की जाये। उन्हें पुनः स्थापित किया जाये जिन पर चलकर आदिकाल से आज तक मानवता ने प्रकाश प्राप्त किया है, चाहे वह ईसा मसीह के बलिदान से प्रशस्त मार्ग हो या बुद्ध का सामाजिक परम्पराओं के प्रति विद्रोह का पथ या फिर गांधी के संघर्ष या अम्बेडकर के संविधान निर्माण करके समाज को बांधने का प्रयास। गीता में कृष्ण ने कहा था -
यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः।
अभ्युत्थानमूधर्मस्य तादात्मानं सृजाभ्यहम्।।
परित्राणाय साधनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म-संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे।।
इसका सीधा सा अभिप्राय है कि जब देश और समाज की परिस्थितियां बहुत खराब हो जाती हैं तो उसे सुधारने के लिए महापुरुषों का जन्म होता है। भीमराव अम्बेडकर इसी तरह के एक महापुरुष थे जो किसी जाति, वर्ग, सम्प्रदाय की सीमाओं से परे थे। इन्हें परे ही रहने दें। यही इनके प्रति हमारी, हमारे परिवेश की सच्ची श्रृद्धांजलि होगी। इन्हें हम सामाजिक संरचना ठीक करने के लिए हथियार या औजार के रूप में प्रयोग मत करें।
हम जिस जीवन दृष्टि से बंधे है उसमें मानव की मूल्यात्मक स्थिति संत दयावत् है, जो परदुख से सहज ही द्रवित हो जाता है -
संत दय नवनीत समझाना। कहा कविन पै कहत न जाना।
निज परिताप द्रवै नवनीता। पर दुःख द्रवै संत सुपुनीता।।
इतना ही नहीं उसे यह भी समझ में आता है कि -
परहित सरिस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।
और अब इसी परिवेश में अम्बेडकरवादी लोगों को भी भीमराव अम्बेडकर को देखने की आदत डालनी चाहिए।
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