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संसद की अंतरात्मा का सवाल!
भारतीय संसद के इतिहास में कल एक ऐसा अवसर आया था। जब संसद को भ्रष्टाचार के किसी मुद्दे पर विधायिका की जगह न्यायपालिका का स्वरूप ग्रहण करके देश के परिवेश में एक मील का पत्थर स्थापित करना था। परंतु इतिहास के ऐसे क्षणों के साथ देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ही नहीं वरन 45 वर्षों तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी ने इस घटना की ऐसी शर्मनाक परिणति की, जिससे बोफोर्स, फेयरफैक्स और प्रतिभूति घोटाले के समानान्तर दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक संस्था ने भ्रष्टाचार को मान्यता दे दी। इस प्रस्ताव से यह तो साफ हो गया है कि भ्रष्टाचार को संसदीय मान्यताएं मिल गयीं। इतना ही नहीं, अगर राजनीतिक दलों पर भारत के संविधान से खेलने का आरोप जांचा-परखा जाय, तो कांग्रेस ने जो किया उससे संविधान के परखचे उड़ गए।
संवैधानिक अनिवार्यता है कि महाभियोग प्रस्ताव को सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले दो तिहाई सदस्यों का सामथ्र्य प्राप्त होना चाहिए तथा उनकी संख्या सदन की कुल सदस्यता से आधे से अधिक होनी चाहिए। वर्तमान में सदन की कुल सदस्यता 544 रह गयी है, जिसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग के 205 सदस्यों ने मतदान में हिस्सा न लेकर सदन की कुल सदस्यता से आधे से अधिक होनी चाहिए, जैसी अनिवार्यता का बखूबी लाभ उठाया।
मद्रास हाईकोर्ट में जज बनने के साथ ही न्यायिक सेवा में आए रामास्वामी पर हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश काल में वित्तीय अनियमितताएं बरतने का आरोप है। ये आरोप नियंत्रक और महालेखा परीक्षा ने लगाए थे। नौवीं लोकसभा में 108 सांसदों द्वारा 27 फरवरी, 1991 को महाभियोग की सूचना संसद को दी गयी थी। लेकिन तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष रवि राय ने तीन न्यायाधीशों की एक समिति बनायी। समिति ने सरकारी धन के दुरूपयोग के दस आरोप पूर्णतया सही पाए और एक आंशिक रूप से परिणामतः संविधान के अनुच्छेद-124(4) के अंतर्गत राष्ट्रपति के समक्ष यह प्रस्ताव पेश किया गया कि यह सभा संकल्प करती है कि भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति रामास्वामी को उनके निम्नलिखित (11) कदाचार के लिए पद से हटाने हेतु राष्ट्रपति को आवेदन प्रस्तुत किया जाय।
इन ग्यारह आरोपों में पद के दुरूपयोग के साथ-साथ रिश्वत के माध्यम से अकूत सम्पत्ति इकट्ठा करने का आरोप रामास्वामी का था।
न्यायमूर्ति श्री पीवी सावंत, श्री पीवी देसाई और प्रतिष्ठित विधि विशेषज्ञ कोचिनप्पा रेड्डी की समिति ने यह निष्कर्ष भी दिया कि वी.रामास्वामी विनिर्दिष्ट कदाचार के दोषी हैं और जबकि भारत के संविधान के अनुच्छेद-224 के खण्ड (4) के उपबंधों के अनुसार लोकसभा द्वारा उपरोक्त प्रस्ताव के स्वीकृत किये जाने पर न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 की धारा-6 की उपधारा-3 के अंतर्गत उक्त श्री वी. रामास्वामी का कदाचार सिद्ध हुआ माना गया है।
इन सारी रिपोर्टों के बाद रामास्वामी भ्रष्टाचार को असम्बद्ध स्वीकार (साबित) करने की जरूरत नहीं रह गयी थी। फिर भी इंका सरकार ने लोकतंत्र, संसद और न्यायालय की उत्कृष्ट परम्परा के अनुरूप जो कुछ किया, वह अब किसी से छिपा नहीं है। इससे देश की संसद की गरिमा को गहरा आघात पहुंचा है। कांग्रेस के इतिहास में यह पहला मौका है जब स्व विवेक से मतदान का अवसर इंका सांसदों को दिया गया था। फिर भी उन्हें संसद में उपस्थिति का व्हिप तो जारी किया गया था। यदि दल-बदल कानून को गंभीरता से विश्लेषित करें तो एक ओर कांग्रेसी व्हिप का अर्थ तो स्पष्ट ही हो जाता है दूसरी तरफ इंका के उस नाटक का भी कलंकित पटाक्षेप दिखता है, जिससे अंतरात्मा की आवाज पर मतदान करने की छूट दी गयी थी। वैसे भी समस्याओं को टुकड़े के रूप में देखने के अभ्यस्त इंका सांसदों ने मतदान को वास्तविक स्वरूप में देखा।
मतदान के पहले ही भाजपा सांसद जसवंत सिंह ने जो टिप्पणी की थी वह परिणाम का और परिणति का स्पष्ट संके त उभार पाने में सक्षम थी। हम तो कई बार सोचते हैं कि कांग्रेस की अंतरात्मा मर चुकी है। कल पता लगेगा कि अंतरात्मा वाकई है भी या नहीं....। और अगर है तो वह किस ओर प्रेरित करती है।
यदि समग्र स्थिति पर गौर करें तो महाभियोग प्रस्ताव रामास्वामी की नौकरी में बहाली या बर्खास्तगी के लिए लाया गया था। उनके कदाचार तो सिद्ध हो ही चुके थे। इस प्रस्ताव को पास होने से रोककर कांग्रेस ने उत्तरी भारत और दक्षिणी भारत के बीच एक विभाजक रेखा खींच दी है। कदाचार की पुष्टि के बाद भी रामास्वामी का पद पर बने रहना कांग्रेस के खाते में बोफोर्स, फेयरफैक्स और प्रतिभूति घोटाले सरीखे तमाम उपलब्धियों के साथ एक और बड़ी उपलब्धि है। इससे बड़ा राष्ट्रीय शर्म का विषय और हो ही क्या सकता है कि एक ओर जहां सुप्रीम कोर्ट के वकीलों ने रामास्वामी के कोर्ट में पेश होना ही बंद कर दिया था। वहीं दूसरी तरफ रामास्वामी के वकील श्री सिब्बल जब संसद में आरोपों का जवाब दे रहे थे तब इंकाई न जाने कौन सी मुस्कराहट जी रहे थे। क्या सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के उन वकीलों को रामास्वामी के कोर्ट में पुनः उपस्थित होने के लिए विवश नहीं किया है। सरकार ने तीन सदस्यीय आयोग के फैसले पर जो नाटकीय परिवर्तन दिखाया, वही किस अंतरात्मा की आवाज मानी जाय।
राजनीतिक दृष्टिकोण से ही अगर देखा जाय तो तमिलनाडु के सांसदों के कहने पर कांग्रेस ने कदाचार साबित रामास्वामी को पद पर बने रहने का अवसर देकर अगर कुछ सांसदांे को इंका से जोड़ा हो तो उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि महाभियोग प्रस्ताव माकपा के सोमनाथ चटर्जी ने पेश किया था और कांग्रेस के इस स्टैण्ड से कांग्रेस-वाममोर्चा रिश्ता कहीं न कहीं आहत ही हुआ होगा।
यदि भ्रष्टाचार के इस पूरे प्रकरण को इंका को राजनीतिक दिशा देनी ही थी तो श्रीमती रामास्वामी द्वारा उच्चतम न्यायालय मंे दायर उस याचिका को प्रतिबद्ध करा लेना चाहिए था, जिसमें यह कहा गया था कि नौंवी लोकसभा में रखे गये अविश्वास प्रस्ताव पर दसवीं लोकसभा कैसे विचार करेगी। कांग्रेस के पास एक और अवसर था, जब वह स्वयं को इस राष्ट्रीय शर्म से सीधी तौर पर जुड़ने से रोक सकती थी, वह था जब विषय निर्धारण समिति महाभियोग स्वीकार कर रही थी। इस पूरे प्रकरण में एक बात साफ हो गयी सत्ता में बने रहने के लिए सभी मूल्यों को ताक पर रखकर कुर्सी का मूल्य और मूल्य की कुर्सी इन दोनों के अलावा किसी को स्वीकार करके यह अखिल देशीय राजनीतिक पार्टी नहीं चल सकती। इसके राष्ट्र की संपूर्ण संकल्पना संसद के पास है।
वैसे किसी एक रामास्वामी के हट जाने से भ्रष्टाचार की गंगा के प्रवाह में कहीं काई अवरोध नहीं आने वाला था लेकिन न हटने पर जो हुआ उसका खामियाजा देश की जनता कब तक भुगतती रहेगी। यह तय कर पाना मुश्किल है।
हमारी न्याय व्यवस्था से लोगों का विश्वास पहले ही टूट चुका था। लोग यह तर्क स्वीकार करने लगे थे कि न्याय की देवी की आंखों में पट्टी बंधी रहने के बाद भी उसके न्याय का तराजू बराबर नहीं रह पाता तो इंका के उन सांसदों के बारे में कोई अनौचित्य पूर्ण टिप्पणी करना न्यायसंगत नहीं रह जाता। क्योंकि उनकी आंखें खुली हुई हैं और सामने संसद सुविधाएं और सत्ता के सारे भौतिक सुख हैं। राधास्वामी का हट जाना शायद इतनी बड़ी घटना नहीं बन पाता, जितना उनका बना रहना है। वैसे भी कांग्रेस को इतिहास में तारीख दर्ज कराने की आदत सी रही है। हो सकता है कि रामास्वामी पर लिया गया निर्णय इसी आदत का एक अंश हो। इतना ही नहीं कांग्रेस द्वारा यह स्वीकार करना कि न्यायमूर्ति रामास्वामी भले ही वित्तीय अनियमितता के दोषी रहे हों लेकिन उन्हें महाभियोग के तहत पद से हटाना एक अतिरेकपूर्ण कदम होता। लेकिन कांग्रेस यह भूल गये कि इस प्रस्ताव के गिर जाने से दसवीं लोकसभा के इंका शायद न्याय पालिका को नष्ट और भ्रष्ट करने के एक औजार करने के रूप में ही याद किये जायेंगे। इस घटना से क्षेत्रीय शक्तियां मजबूत हुईं और वे स्वेेच्छा से कदाचार या स्वैच्छिक व्यवहार को राजनीतिक मान्यता प्रदान करवाती रहेंगी।
न्याय पालिका के दुरूपयोग की कई घटनाएं गत दिनों हमारे सामने आ चुकी हैं। इसे भी उन्हीं घटनाओं की चरम परिणति मानकर स्वीकार कर लेने के अतिरिक्त बचा ही क्या है। क्योंकि संसद बनी रहे यह तो सभी सांसद चाहते हैं और जिसका बना रहना सबके लिए जरूरी हो वह निरंकुश और कदाचारी हो जाए तो आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए। ऐसे संसद में बने रह जाने का अब कोई नैतिक और लोकतांत्रिक अधिकार किसी संसद के पास शेष नहीं रह जाता। कांगे्रस पर भ्रष्टाचार के आरोप तो हर प्रधानमंत्री के समय में लगते रहे हैं परंतु नरसिंह राव के काल में प्रमाणिक और चरम भ्रष्टाचार करने का जो ऐतिहासिक साहस जुटाया गया, जिसका आंशिक उत्तर जनता देगी। आंशिक इसलिए कि देश का लोकतंत्र और संक्रमण और संत्रास की स्थिति में है।
कांग्रेस द्वारा इतने साहसिक रूप से किसी भ्रष्टाचार की स्वीकारोक्ति के लिए कांग्रेसी सांसदों का साहस प्रशंसनीय है, वैसे यदि संसद अब भ्रष्टाचारियों और दुराचारियों को स्थापित करने का मंच बन गयी है तो यह नहीं लगता कि संसद जैसे किसी मंच की जरूरत जनता को है।
भ्रष्टाचारियों और कदाचारियों को जिस ढंग से संसद में संरक्षण दिया जाने लगा है यह देश में एक और समग्र क्रांति की ओर संके त करता है। क्योंकि संासद भले ही यह सब स्वीकार करते चलें लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश में कुछ जिंदा कौमें अभी भी हैं।
इस घटना से यह स्पष्ट हो गया कि हमारी विधायिका अपने लोक के प्रति कितनी जवाबदेह है और लोक द्वारा दिये गये तंत्र को संचालित करने के लिए वह कितनी सक्षम है। अगर जवाबदेही का रंचमात्र भी कुछ बच गया हो तो अभी भी जनता को यह बता दें कि वह कौन सी विवशताएं थीं, जिनसे संसद भ्रष्टाचार की स्थापना की पर्याय बन बैठी और यह भी तय कर लें कि इससे हमारा लोकतंत्र महिमा मंडित हुआ या कलंकित।
सच तो यह है कि इससे इंका के सांसदों की अंतरात्मा की आवाज पता चल गयी लेकिन साथ ही साथ पता चली एक कड़वी सच्चाई वह यह कि सांसदों की अंतरात्मा ही संसद की अंतरात्मा होती है और जो कुछ भी कल घटित हुआ उससे प्रश्न चिन्ह तो संसद की अंतरात्मा पर ही लगा है।
संवैधानिक अनिवार्यता है कि महाभियोग प्रस्ताव को सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले दो तिहाई सदस्यों का सामथ्र्य प्राप्त होना चाहिए तथा उनकी संख्या सदन की कुल सदस्यता से आधे से अधिक होनी चाहिए। वर्तमान में सदन की कुल सदस्यता 544 रह गयी है, जिसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग के 205 सदस्यों ने मतदान में हिस्सा न लेकर सदन की कुल सदस्यता से आधे से अधिक होनी चाहिए, जैसी अनिवार्यता का बखूबी लाभ उठाया।
मद्रास हाईकोर्ट में जज बनने के साथ ही न्यायिक सेवा में आए रामास्वामी पर हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश काल में वित्तीय अनियमितताएं बरतने का आरोप है। ये आरोप नियंत्रक और महालेखा परीक्षा ने लगाए थे। नौवीं लोकसभा में 108 सांसदों द्वारा 27 फरवरी, 1991 को महाभियोग की सूचना संसद को दी गयी थी। लेकिन तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष रवि राय ने तीन न्यायाधीशों की एक समिति बनायी। समिति ने सरकारी धन के दुरूपयोग के दस आरोप पूर्णतया सही पाए और एक आंशिक रूप से परिणामतः संविधान के अनुच्छेद-124(4) के अंतर्गत राष्ट्रपति के समक्ष यह प्रस्ताव पेश किया गया कि यह सभा संकल्प करती है कि भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति रामास्वामी को उनके निम्नलिखित (11) कदाचार के लिए पद से हटाने हेतु राष्ट्रपति को आवेदन प्रस्तुत किया जाय।
इन ग्यारह आरोपों में पद के दुरूपयोग के साथ-साथ रिश्वत के माध्यम से अकूत सम्पत्ति इकट्ठा करने का आरोप रामास्वामी का था।
न्यायमूर्ति श्री पीवी सावंत, श्री पीवी देसाई और प्रतिष्ठित विधि विशेषज्ञ कोचिनप्पा रेड्डी की समिति ने यह निष्कर्ष भी दिया कि वी.रामास्वामी विनिर्दिष्ट कदाचार के दोषी हैं और जबकि भारत के संविधान के अनुच्छेद-224 के खण्ड (4) के उपबंधों के अनुसार लोकसभा द्वारा उपरोक्त प्रस्ताव के स्वीकृत किये जाने पर न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 की धारा-6 की उपधारा-3 के अंतर्गत उक्त श्री वी. रामास्वामी का कदाचार सिद्ध हुआ माना गया है।
इन सारी रिपोर्टों के बाद रामास्वामी भ्रष्टाचार को असम्बद्ध स्वीकार (साबित) करने की जरूरत नहीं रह गयी थी। फिर भी इंका सरकार ने लोकतंत्र, संसद और न्यायालय की उत्कृष्ट परम्परा के अनुरूप जो कुछ किया, वह अब किसी से छिपा नहीं है। इससे देश की संसद की गरिमा को गहरा आघात पहुंचा है। कांग्रेस के इतिहास में यह पहला मौका है जब स्व विवेक से मतदान का अवसर इंका सांसदों को दिया गया था। फिर भी उन्हें संसद में उपस्थिति का व्हिप तो जारी किया गया था। यदि दल-बदल कानून को गंभीरता से विश्लेषित करें तो एक ओर कांग्रेसी व्हिप का अर्थ तो स्पष्ट ही हो जाता है दूसरी तरफ इंका के उस नाटक का भी कलंकित पटाक्षेप दिखता है, जिससे अंतरात्मा की आवाज पर मतदान करने की छूट दी गयी थी। वैसे भी समस्याओं को टुकड़े के रूप में देखने के अभ्यस्त इंका सांसदों ने मतदान को वास्तविक स्वरूप में देखा।
मतदान के पहले ही भाजपा सांसद जसवंत सिंह ने जो टिप्पणी की थी वह परिणाम का और परिणति का स्पष्ट संके त उभार पाने में सक्षम थी। हम तो कई बार सोचते हैं कि कांग्रेस की अंतरात्मा मर चुकी है। कल पता लगेगा कि अंतरात्मा वाकई है भी या नहीं....। और अगर है तो वह किस ओर प्रेरित करती है।
यदि समग्र स्थिति पर गौर करें तो महाभियोग प्रस्ताव रामास्वामी की नौकरी में बहाली या बर्खास्तगी के लिए लाया गया था। उनके कदाचार तो सिद्ध हो ही चुके थे। इस प्रस्ताव को पास होने से रोककर कांग्रेस ने उत्तरी भारत और दक्षिणी भारत के बीच एक विभाजक रेखा खींच दी है। कदाचार की पुष्टि के बाद भी रामास्वामी का पद पर बने रहना कांग्रेस के खाते में बोफोर्स, फेयरफैक्स और प्रतिभूति घोटाले सरीखे तमाम उपलब्धियों के साथ एक और बड़ी उपलब्धि है। इससे बड़ा राष्ट्रीय शर्म का विषय और हो ही क्या सकता है कि एक ओर जहां सुप्रीम कोर्ट के वकीलों ने रामास्वामी के कोर्ट में पेश होना ही बंद कर दिया था। वहीं दूसरी तरफ रामास्वामी के वकील श्री सिब्बल जब संसद में आरोपों का जवाब दे रहे थे तब इंकाई न जाने कौन सी मुस्कराहट जी रहे थे। क्या सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के उन वकीलों को रामास्वामी के कोर्ट में पुनः उपस्थित होने के लिए विवश नहीं किया है। सरकार ने तीन सदस्यीय आयोग के फैसले पर जो नाटकीय परिवर्तन दिखाया, वही किस अंतरात्मा की आवाज मानी जाय।
राजनीतिक दृष्टिकोण से ही अगर देखा जाय तो तमिलनाडु के सांसदों के कहने पर कांग्रेस ने कदाचार साबित रामास्वामी को पद पर बने रहने का अवसर देकर अगर कुछ सांसदांे को इंका से जोड़ा हो तो उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि महाभियोग प्रस्ताव माकपा के सोमनाथ चटर्जी ने पेश किया था और कांग्रेस के इस स्टैण्ड से कांग्रेस-वाममोर्चा रिश्ता कहीं न कहीं आहत ही हुआ होगा।
यदि भ्रष्टाचार के इस पूरे प्रकरण को इंका को राजनीतिक दिशा देनी ही थी तो श्रीमती रामास्वामी द्वारा उच्चतम न्यायालय मंे दायर उस याचिका को प्रतिबद्ध करा लेना चाहिए था, जिसमें यह कहा गया था कि नौंवी लोकसभा में रखे गये अविश्वास प्रस्ताव पर दसवीं लोकसभा कैसे विचार करेगी। कांग्रेस के पास एक और अवसर था, जब वह स्वयं को इस राष्ट्रीय शर्म से सीधी तौर पर जुड़ने से रोक सकती थी, वह था जब विषय निर्धारण समिति महाभियोग स्वीकार कर रही थी। इस पूरे प्रकरण में एक बात साफ हो गयी सत्ता में बने रहने के लिए सभी मूल्यों को ताक पर रखकर कुर्सी का मूल्य और मूल्य की कुर्सी इन दोनों के अलावा किसी को स्वीकार करके यह अखिल देशीय राजनीतिक पार्टी नहीं चल सकती। इसके राष्ट्र की संपूर्ण संकल्पना संसद के पास है।
वैसे किसी एक रामास्वामी के हट जाने से भ्रष्टाचार की गंगा के प्रवाह में कहीं काई अवरोध नहीं आने वाला था लेकिन न हटने पर जो हुआ उसका खामियाजा देश की जनता कब तक भुगतती रहेगी। यह तय कर पाना मुश्किल है।
हमारी न्याय व्यवस्था से लोगों का विश्वास पहले ही टूट चुका था। लोग यह तर्क स्वीकार करने लगे थे कि न्याय की देवी की आंखों में पट्टी बंधी रहने के बाद भी उसके न्याय का तराजू बराबर नहीं रह पाता तो इंका के उन सांसदों के बारे में कोई अनौचित्य पूर्ण टिप्पणी करना न्यायसंगत नहीं रह जाता। क्योंकि उनकी आंखें खुली हुई हैं और सामने संसद सुविधाएं और सत्ता के सारे भौतिक सुख हैं। राधास्वामी का हट जाना शायद इतनी बड़ी घटना नहीं बन पाता, जितना उनका बना रहना है। वैसे भी कांग्रेस को इतिहास में तारीख दर्ज कराने की आदत सी रही है। हो सकता है कि रामास्वामी पर लिया गया निर्णय इसी आदत का एक अंश हो। इतना ही नहीं कांग्रेस द्वारा यह स्वीकार करना कि न्यायमूर्ति रामास्वामी भले ही वित्तीय अनियमितता के दोषी रहे हों लेकिन उन्हें महाभियोग के तहत पद से हटाना एक अतिरेकपूर्ण कदम होता। लेकिन कांग्रेस यह भूल गये कि इस प्रस्ताव के गिर जाने से दसवीं लोकसभा के इंका शायद न्याय पालिका को नष्ट और भ्रष्ट करने के एक औजार करने के रूप में ही याद किये जायेंगे। इस घटना से क्षेत्रीय शक्तियां मजबूत हुईं और वे स्वेेच्छा से कदाचार या स्वैच्छिक व्यवहार को राजनीतिक मान्यता प्रदान करवाती रहेंगी।
न्याय पालिका के दुरूपयोग की कई घटनाएं गत दिनों हमारे सामने आ चुकी हैं। इसे भी उन्हीं घटनाओं की चरम परिणति मानकर स्वीकार कर लेने के अतिरिक्त बचा ही क्या है। क्योंकि संसद बनी रहे यह तो सभी सांसद चाहते हैं और जिसका बना रहना सबके लिए जरूरी हो वह निरंकुश और कदाचारी हो जाए तो आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए। ऐसे संसद में बने रह जाने का अब कोई नैतिक और लोकतांत्रिक अधिकार किसी संसद के पास शेष नहीं रह जाता। कांगे्रस पर भ्रष्टाचार के आरोप तो हर प्रधानमंत्री के समय में लगते रहे हैं परंतु नरसिंह राव के काल में प्रमाणिक और चरम भ्रष्टाचार करने का जो ऐतिहासिक साहस जुटाया गया, जिसका आंशिक उत्तर जनता देगी। आंशिक इसलिए कि देश का लोकतंत्र और संक्रमण और संत्रास की स्थिति में है।
कांग्रेस द्वारा इतने साहसिक रूप से किसी भ्रष्टाचार की स्वीकारोक्ति के लिए कांग्रेसी सांसदों का साहस प्रशंसनीय है, वैसे यदि संसद अब भ्रष्टाचारियों और दुराचारियों को स्थापित करने का मंच बन गयी है तो यह नहीं लगता कि संसद जैसे किसी मंच की जरूरत जनता को है।
भ्रष्टाचारियों और कदाचारियों को जिस ढंग से संसद में संरक्षण दिया जाने लगा है यह देश में एक और समग्र क्रांति की ओर संके त करता है। क्योंकि संासद भले ही यह सब स्वीकार करते चलें लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश में कुछ जिंदा कौमें अभी भी हैं।
इस घटना से यह स्पष्ट हो गया कि हमारी विधायिका अपने लोक के प्रति कितनी जवाबदेह है और लोक द्वारा दिये गये तंत्र को संचालित करने के लिए वह कितनी सक्षम है। अगर जवाबदेही का रंचमात्र भी कुछ बच गया हो तो अभी भी जनता को यह बता दें कि वह कौन सी विवशताएं थीं, जिनसे संसद भ्रष्टाचार की स्थापना की पर्याय बन बैठी और यह भी तय कर लें कि इससे हमारा लोकतंत्र महिमा मंडित हुआ या कलंकित।
सच तो यह है कि इससे इंका के सांसदों की अंतरात्मा की आवाज पता चल गयी लेकिन साथ ही साथ पता चली एक कड़वी सच्चाई वह यह कि सांसदों की अंतरात्मा ही संसद की अंतरात्मा होती है और जो कुछ भी कल घटित हुआ उससे प्रश्न चिन्ह तो संसद की अंतरात्मा पर ही लगा है।
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