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यह कौन सी जिम्मेदारी है!
इन्दिरा गांधी के करिश्माई व्यक्तित्व के बाद भी कांग्रेस में परस्पर विरोधाभासी स्वीकृतियां और अस्वीकृतियों के तेवर देखे जाते रहे। पर यह इन्दिरा गांधी की राजनीतिक शतरंज की एक बिसात होती थी। ऐसा वे इसलिए किया करती थीं, जिससे विद्रोह के असली स्वरूप को चिन्हित किया जा सके । और स्थिर विरोधी तेवर की जड़ में मट्ठा डालने में आसानी हो। लेकिन बार-बार श्रीमती गांधी को अपनी इन शतरंजी चालों के बाद भी शह मिलती रही। जब भी इन्हें शह मिली तो उसे उन्होंने ऐसी स्वीकृति दी, जिससे लोगों को यह लगे कि बची मात उनके करिश्माई अंदाज में इजाफा करेगी। उस समय यह महसूस हुआ करता था कि श्रीमती गांधी अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी से लाभान्वित हो रही हैं। परंतु 1984 में उनकी नृशंस हत्या के बाद प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गांधी की उपलब्धियों ने उत्तराधिकारी की बात पर पानी फेर दिया और करिश्माई व्यक्तित्व की उपलब्धि हासिल कर ली।
राजीव की संसद दुनिया की सबसे मजबूत संसद थी। संख्यात्मक स्तर पर इसी मजबूती के कारण पूरी संसद में कोई भी वैचारिक वैभिन्न नहीं गहराया। उस समय लोगों को यह आभास हो गया था कि यह सारी उपलब्धियां इंका के मजबूत सांगठनिक ढांचे के कारण ही हैं। परंतु राजीव गांधी की शहादत के बाद जिस तरह नरसिंह राव की ताजपोशी हुई, उसी समय से वैचारिक धरातल पर दरारनुमा विरोधी स्वर उभरने लगे थे। इसका सबसे बड़ा कारण नरसिंह राव की अपनी कोई राजनीतिक थाती का न होना था। इतना ही नहीं अपने पूरे राजनीतिक जीवन में नरसिंह राव स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाने की सफलता भी अर्जित नहीं कर पाये। नरसिंह राव जिन परिस्थितियों में प्रधानमंत्री बने और उन्हें कांग्रेस का सांगठनिक स्वरूप सौंपा गया, उस समय उनके कद और काठी के बराबर कई नेता विराजमान थे। यही वह महत्वपूर्ण कारण हो सकता है जिससे राव को समानान्तर ताकतों की मुखालफत झेलनी पड़ती रही है। इसकी परिणति मंत्री परिषद में स्पष्ट रूप से देखने को मिल रही है।
बम्बई बम विस्फोटों पर मंत्रि परिषद के जिम्मेदार लोगों ने जिस तरह की परस्पर विरोधी बयानबाजी की है और प्रधानमंत्री ने जो उदासीनतापूर्ण रवैया अख्तियार किया, उससे संगठन की सामूहिक जिम्मेदारियों का जुमला बेहद कमजोर मालूम पड़ता है। बम्बई बम काण्ड की सीबीआई द्वारा जांच की मांग पर प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने स्पष्ट संके त दिए। एक ओर उन्होंने कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में यह कहा कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवार, सीबीआई जांच के खिलाफ हैं और दूसरी ओर कहा कि जरूरी हुआ तो विस्फोटों की जांच सीबीआई के नेतृत्व में ही कराई जाएगी।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री पवार ने 11 मई को एक पत्र लिखकर प्रधानमंत्री से यह कहा कि के न्द्र यदि चाहे तो वे जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंपने के लिए तैयार हैं। उन्होंने इस स्तर पर जांच का कार्य सीबीआई को देने के नतीजों से भी आगाह किया। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंपे जाने के बाद इसमें हुई देरी की जिम्मेदारी मैं नहीं लूंगा।
के न्द्रीय आंतरिक सुरक्षा राज्यमंत्री राजेश पायलट ने प्रधानमंत्री को भेजे अपने एक पत्र में माफिया से राजनीतिज्ञों और व्यवसायियों के संबंधों का आरोप लगाया था और मांग की थी कि बम्बई विस्फोट की जांच सीबीआई से ही कराई जाय। पायलट के इस पत्र ने पवार को ही सिर्फ संकट में नहीं डाला। बल्कि समूची कांग्रेस भी संकट में फंस गयी। मतभेद विस्फोटक स्थिति में पहुंच गए। कांग्रेस की अंदरूनी स्थिति इस हद तक पहुंच गयी कि पवार समर्थक सांसदों ने रामास्वामी के विरूद्ध संसद में लाए गए महाभियोग प्रस्ताव पर मतदान न करने के फैसले को लेकर प्रधानमंत्री राव के विरूद्ध कड़ा प्रतिवाद किया। राव के इसी फैसले से महाभियोग प्रस्ताव गिरा भी। उस घटना पूर्व दिन के कुछ घंटों के भीतर ही पायलट ने राव को पत्र लिखकर यह कहा कि बम्बई बम धमाकों की सीबीआई से जांच करायी जाय। ताकि अंडरवल्र्ड कुछ राजनीतिज्ञों, व्यापारियों और नौकरशाहों के बीच के रिश्तों को बेनकाब किया जा सके ।
उन्होंने कहा कि धमाकों की जांच ऐसी एजेन्सी से कराने से यह साबित करने में काफी सफलता मिलेगी कि सरकार किसको बचाना नहीं चाहती है।
पायलट का उद्देश्य सचमुच ऐसा नहीं था। जैसा वह कह रहे थे। क्यांेकि यह बात उन्होंने पवार विरोधियों को कांग्रेस (ई) के सदस्य के रूप में कही थी। कार्यसमिति पार्टी की सर्वोच्च निकाय है और पायलट ने प्रधानमंत्री को यह पत्र कांग्रेस इकाई (ई) समिति के लेटरहेड पर ही लिखा था। इस पत्र के साथ ही पायलट पवार विरोधी मुहिम के साथ जुड़ गए। जिसे पहले चव्हाण संचालित कर रहे थे। इस बीच पवार ने फिर पाला बदला और कहा कि बम विस्फोटों की सीबीआई या खुफिया एजेंसियों से जांच कराने की कोई जरूरत नहीं। इतना ही नहीं, पवार विरोधियों ने एक मुहिम चलाकर सांसद के रूप में पवार के अधिकारों को सीमित करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करवाने के लिए मुहिम तेज कर दी।
पवार पर भले ही बम धमाकों की जांच से कतराने का अरोप लगता रहे परंतु सच यह है कि सचिवों की समिति भी बम धमाकों की जांच सीबीआई से नहीं करवाना चाहती है। उसका कहना है कि अभी जांच बम्बई पुलिस को करनी चाहिए। सीबीआई का जांच रिकार्ड बहुत ठीक नहीं है। अगर जांच अलग एजेंसी से करानी पड़ी तो फिर अलग से जांच आयोग बनाया जाएगा। उल्लेखनीय है कि सीसीपीए की गैर मौजूदगी में सचिवों की यह समिति की राजकाज चला रही है।
प्रधानमंत्री दफ्तर से भी ऐसा जो कुछ हो रहा है उसके पीछे इंका की अंर्तकलह ही है। क्योंकि इनका इरादा एक ओर शरद पवार को माफिया संबंधों के दायरे में घेरने का है तो दूसरे ओर दिल्ली के राजनीतिज्ञों को बचाना भी। तभी तो प्रधानमंत्री कार्यालय जांच के सूत्र बम्बई की जगह अपने हाथ में लेना चाह रहा है। इसी दिशा में सचिवों की समिति ने सामरा को दिल्ली बुलाकर बातचीत भी की है।
के न्द्रीय गृह मंत्री शंकर राव चव्हाण ने 13 मई को एक बयान में बम्बई बम विस्फोटों की जांच के न्द्रीय जांच ब्यूरो से कराने का आदेश देेने में अपनी असमर्थता जतायी। उनका कहना था कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवार इसके लिए तैयार नहीं हैं। चव्हाण ने लोकसभा में जांच में हुई अब तक की प्रगति पर तीन घंटे तक चली विशेष चर्चा का उत्तर देते हुए कहा कि मैंने निजी क्षेत्र पर मुख्यमंत्री पवार से बात की थी। लेकिन कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली। मुख्यमंत्री से सकारात्मक प्रतिक्रिया मिले के न्द्रीय जांच ब्यूरो को जांच का आदेश देना संभव नहीं है।
यह सब कुछ कांग्रेस के अंर्तविरोधियों की प्रतिक्रियाएं हैं, जिनका उद्देश्य चाहे जो हो। लेकिन इससे जो स्पष्ट तस्वीर दिखती है, वह है संगठन का सामूहिक जिम्मेदारी से इंकार।
यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि आंतरिक सुरक्षा राज्यमंत्री राजेश पायलट और गृह मंत्री शंकर राव चव्हाण, जिस क्षण के न्द्रीय जांच ब्यूरो से जांच न करवाने की प्रतिबद्धता पवार के सिर मढ़ रहे थे, उसी समय प्रधानमंत्री राव ने यह स्वीकार किया कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवार मामले को सीबीआई को सौंपे जाने के खिलाफ नहीं है। पवार के वक्तव्य से भी यह स्पष्ट होता है कि सीबीआई जांच को टालना भले ही उनका मकसद हो पर जांच आरंभ करने में हुई देरी का बहाना लेकर जिम्मेदारियों को के न्द्र सरकार के ऊपर मढ़ना चाहते हैं।
वैसे भी अपने प्रधानमंत्री राव तटस्थता के समर्थक हैं। इसलिए उन्होंने 85 सांसदों द्वारा सीबीआई जांच की मांग को न ही स्वीकार किया और न ही ठुकराया। पायलट के पत्र को पवार के खिलाफ महज पायलट की साजिश नहीं मान सकते। क्योंकि इतने संवेदनशील मुद्दे पर पायलट बिना प्रधानमंत्री कार्यालय के इशारे के कुछ नहीं कर सकते थे।
मंत्रिपरिषद की परस्पर विरोधी बयानबाजियां भाजपा पर अर्जुन सिंह और नरसिंह राव द्वारा दिये गये वक्तव्यों से भी स्पष्ट होती है। भाजपा को लेकर जिस तरह इन दो वरिष्ठ नेताओं ने परस्पर विरोधी बयान दिए। उससे भी मंत्रिपरिषद में दरार ही पड़ती नजर आ रही थी।
घरेलू मुद्दों पर इंका ने जिस परस्पर विरोधी चरित्र को स्वीकार किया है उससे मुद्दों की गंभीरता में जहां एक ओर गिरावट आई है वहीं मुद्दों से टकराव की परम्परा भी चल निकली है। यह परम्परा विदेशी मामलों में भी उजागर हुई है। खासतौर पर पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करने के सम्बन्ध में के न्द्रीय गृह मंत्री चव्हाण और विदेश मंत्री दिनेश सिंह के वक्तव्यों में देखी जा सकती है। इसी विरोध की खाई को पाटने के लिए कांग्रेस को फिर एक करिश्माई नेतृत्व की आवश्यकता आन पड़ी है। जिसके लिए कठौरा (अमेठी) अधिवेशन में सोनिया गांधी की उपस्थिति दर्ज कराकर लाभ उठाने की कोशिश जारी है। अपने राजनीतिक प्रस्तावों खासतौर पर पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करने तथा साम्प्रदायिकता के विरूद्ध जेहाद छेड़ने के सभी मुद्दों पर कांग्रेस बिखरी दिखेगी और फिर अनुशासन समिति का लाभ उठाने की कोशिश की जाएगी। लेकिन मंत्रि परिषद और इंका संगठन को सामूहिक नेतृत्व की जिम्मेदारी से कटने से रोकने के लिए अनुशासन समिति कब तक इस्तेमाल होगी। जरूरी यह है कि कांग्रेस के भीतर लोकतंत्र कायम करने का प्रयास हो और वह लोकतंत्र ही सब कुछ तय करे। वर्ना जब तक समानान्तर कद वाले कई लोग रहेंगे तब तक काट-छांट की परम्परा चलती रहेगी।
बम्बई बम विस्फोट पर मंत्रिपरिषद जितनी बंटी दिखी वह कोई खास मुद्दा नहीं था। राव के सत्ता संभालने के बाद से ही सभी अहम मुद्दों पर मंत्रिपरिषद बिखराव की शिकार रही। बोफोर्स काण्ड से बम्बई बम विस्फोट तक सभी मुद्दों पर यह बिखराव साफ-साफ दिखा। इस प्रक्रिया की शुरूआत भाजपा से सीधे तौर पर लड़कर सामुदायिक शक्तियों से लड़ने वाला मसीहा हो जाने की अर्जुन सिंह व राव की मुहिम से हुई थी। तभी तो जब अर्जुन सिंह राव को भाजपा के खिलाफ लड़ने से कमजोर पाने पर पत्र लिखते थे, तब राव का कोई सिपहसालार अर्जुन विरोधी बयान दे डालता था। वैसे इस तरह के सिपहसालारों की एक लंबी फेहरिश्त हर इकाई प्रधानमंत्री ने अपने पास रखी थी। परंतु इसके फेहरिश्त के लोग अभी तक पार्टी संगठन में रखे जाते थे या इस कार्य को पूरा करने का दायित्व सांगठनिक लोगों को दिया जाता था। परंतु राव ने यह कार्य मंत्रिपरिषद के कुछ लोगों को सौंपकर सामूहिक दायित्व जैसी परम्परा का निर्वहन करने से मंत्रिपरिषद को विमुख किया है।
यह बात तो साफ ही हो गई है कि मंत्रिपरिषद या तो पूरी तरह कंफ्यूज है या तो पूरे देश को कंफ्यूज करने की कोशिश की जा रही है। इसके पीछे एक नाटकीय प्रक्रिया के तहत माफिया डाॅन दाउद इब्राहिम से राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के सम्बन्धों को छिपाना भी हो सकता है। यदि यह कोई पूर्ण रूप से नाटकीय प्रक्रिया नहीं होती तो विदेश मंत्री बार-बार यह क्यों कहते कि बम्बई विस्फोटों में पाकिस्तान के हाथ के होने के ठोस सबूत नहीं हैं।
ऐसे परस्पर विरोधी बयानों और पार्टी के अंर्तकलह के साथ-साथ गोपनीयता जैसे अहम मुद्दे को भंग करने के लिए राव के विदेश मंत्री सहित सभी सिपहसालार के न्द्रीय मंत्रिपरिषद तथा इंका संगठन की एकल और सामूहिक दायित्व जैसी जिम्मेदारी के दोषी ही माने जायेंगे।
राजीव की संसद दुनिया की सबसे मजबूत संसद थी। संख्यात्मक स्तर पर इसी मजबूती के कारण पूरी संसद में कोई भी वैचारिक वैभिन्न नहीं गहराया। उस समय लोगों को यह आभास हो गया था कि यह सारी उपलब्धियां इंका के मजबूत सांगठनिक ढांचे के कारण ही हैं। परंतु राजीव गांधी की शहादत के बाद जिस तरह नरसिंह राव की ताजपोशी हुई, उसी समय से वैचारिक धरातल पर दरारनुमा विरोधी स्वर उभरने लगे थे। इसका सबसे बड़ा कारण नरसिंह राव की अपनी कोई राजनीतिक थाती का न होना था। इतना ही नहीं अपने पूरे राजनीतिक जीवन में नरसिंह राव स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाने की सफलता भी अर्जित नहीं कर पाये। नरसिंह राव जिन परिस्थितियों में प्रधानमंत्री बने और उन्हें कांग्रेस का सांगठनिक स्वरूप सौंपा गया, उस समय उनके कद और काठी के बराबर कई नेता विराजमान थे। यही वह महत्वपूर्ण कारण हो सकता है जिससे राव को समानान्तर ताकतों की मुखालफत झेलनी पड़ती रही है। इसकी परिणति मंत्री परिषद में स्पष्ट रूप से देखने को मिल रही है।
बम्बई बम विस्फोटों पर मंत्रि परिषद के जिम्मेदार लोगों ने जिस तरह की परस्पर विरोधी बयानबाजी की है और प्रधानमंत्री ने जो उदासीनतापूर्ण रवैया अख्तियार किया, उससे संगठन की सामूहिक जिम्मेदारियों का जुमला बेहद कमजोर मालूम पड़ता है। बम्बई बम काण्ड की सीबीआई द्वारा जांच की मांग पर प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने स्पष्ट संके त दिए। एक ओर उन्होंने कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में यह कहा कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवार, सीबीआई जांच के खिलाफ हैं और दूसरी ओर कहा कि जरूरी हुआ तो विस्फोटों की जांच सीबीआई के नेतृत्व में ही कराई जाएगी।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री पवार ने 11 मई को एक पत्र लिखकर प्रधानमंत्री से यह कहा कि के न्द्र यदि चाहे तो वे जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंपने के लिए तैयार हैं। उन्होंने इस स्तर पर जांच का कार्य सीबीआई को देने के नतीजों से भी आगाह किया। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंपे जाने के बाद इसमें हुई देरी की जिम्मेदारी मैं नहीं लूंगा।
के न्द्रीय आंतरिक सुरक्षा राज्यमंत्री राजेश पायलट ने प्रधानमंत्री को भेजे अपने एक पत्र में माफिया से राजनीतिज्ञों और व्यवसायियों के संबंधों का आरोप लगाया था और मांग की थी कि बम्बई विस्फोट की जांच सीबीआई से ही कराई जाय। पायलट के इस पत्र ने पवार को ही सिर्फ संकट में नहीं डाला। बल्कि समूची कांग्रेस भी संकट में फंस गयी। मतभेद विस्फोटक स्थिति में पहुंच गए। कांग्रेस की अंदरूनी स्थिति इस हद तक पहुंच गयी कि पवार समर्थक सांसदों ने रामास्वामी के विरूद्ध संसद में लाए गए महाभियोग प्रस्ताव पर मतदान न करने के फैसले को लेकर प्रधानमंत्री राव के विरूद्ध कड़ा प्रतिवाद किया। राव के इसी फैसले से महाभियोग प्रस्ताव गिरा भी। उस घटना पूर्व दिन के कुछ घंटों के भीतर ही पायलट ने राव को पत्र लिखकर यह कहा कि बम्बई बम धमाकों की सीबीआई से जांच करायी जाय। ताकि अंडरवल्र्ड कुछ राजनीतिज्ञों, व्यापारियों और नौकरशाहों के बीच के रिश्तों को बेनकाब किया जा सके ।
उन्होंने कहा कि धमाकों की जांच ऐसी एजेन्सी से कराने से यह साबित करने में काफी सफलता मिलेगी कि सरकार किसको बचाना नहीं चाहती है।
पायलट का उद्देश्य सचमुच ऐसा नहीं था। जैसा वह कह रहे थे। क्यांेकि यह बात उन्होंने पवार विरोधियों को कांग्रेस (ई) के सदस्य के रूप में कही थी। कार्यसमिति पार्टी की सर्वोच्च निकाय है और पायलट ने प्रधानमंत्री को यह पत्र कांग्रेस इकाई (ई) समिति के लेटरहेड पर ही लिखा था। इस पत्र के साथ ही पायलट पवार विरोधी मुहिम के साथ जुड़ गए। जिसे पहले चव्हाण संचालित कर रहे थे। इस बीच पवार ने फिर पाला बदला और कहा कि बम विस्फोटों की सीबीआई या खुफिया एजेंसियों से जांच कराने की कोई जरूरत नहीं। इतना ही नहीं, पवार विरोधियों ने एक मुहिम चलाकर सांसद के रूप में पवार के अधिकारों को सीमित करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करवाने के लिए मुहिम तेज कर दी।
पवार पर भले ही बम धमाकों की जांच से कतराने का अरोप लगता रहे परंतु सच यह है कि सचिवों की समिति भी बम धमाकों की जांच सीबीआई से नहीं करवाना चाहती है। उसका कहना है कि अभी जांच बम्बई पुलिस को करनी चाहिए। सीबीआई का जांच रिकार्ड बहुत ठीक नहीं है। अगर जांच अलग एजेंसी से करानी पड़ी तो फिर अलग से जांच आयोग बनाया जाएगा। उल्लेखनीय है कि सीसीपीए की गैर मौजूदगी में सचिवों की यह समिति की राजकाज चला रही है।
प्रधानमंत्री दफ्तर से भी ऐसा जो कुछ हो रहा है उसके पीछे इंका की अंर्तकलह ही है। क्योंकि इनका इरादा एक ओर शरद पवार को माफिया संबंधों के दायरे में घेरने का है तो दूसरे ओर दिल्ली के राजनीतिज्ञों को बचाना भी। तभी तो प्रधानमंत्री कार्यालय जांच के सूत्र बम्बई की जगह अपने हाथ में लेना चाह रहा है। इसी दिशा में सचिवों की समिति ने सामरा को दिल्ली बुलाकर बातचीत भी की है।
के न्द्रीय गृह मंत्री शंकर राव चव्हाण ने 13 मई को एक बयान में बम्बई बम विस्फोटों की जांच के न्द्रीय जांच ब्यूरो से कराने का आदेश देेने में अपनी असमर्थता जतायी। उनका कहना था कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवार इसके लिए तैयार नहीं हैं। चव्हाण ने लोकसभा में जांच में हुई अब तक की प्रगति पर तीन घंटे तक चली विशेष चर्चा का उत्तर देते हुए कहा कि मैंने निजी क्षेत्र पर मुख्यमंत्री पवार से बात की थी। लेकिन कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली। मुख्यमंत्री से सकारात्मक प्रतिक्रिया मिले के न्द्रीय जांच ब्यूरो को जांच का आदेश देना संभव नहीं है।
यह सब कुछ कांग्रेस के अंर्तविरोधियों की प्रतिक्रियाएं हैं, जिनका उद्देश्य चाहे जो हो। लेकिन इससे जो स्पष्ट तस्वीर दिखती है, वह है संगठन का सामूहिक जिम्मेदारी से इंकार।
यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि आंतरिक सुरक्षा राज्यमंत्री राजेश पायलट और गृह मंत्री शंकर राव चव्हाण, जिस क्षण के न्द्रीय जांच ब्यूरो से जांच न करवाने की प्रतिबद्धता पवार के सिर मढ़ रहे थे, उसी समय प्रधानमंत्री राव ने यह स्वीकार किया कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवार मामले को सीबीआई को सौंपे जाने के खिलाफ नहीं है। पवार के वक्तव्य से भी यह स्पष्ट होता है कि सीबीआई जांच को टालना भले ही उनका मकसद हो पर जांच आरंभ करने में हुई देरी का बहाना लेकर जिम्मेदारियों को के न्द्र सरकार के ऊपर मढ़ना चाहते हैं।
वैसे भी अपने प्रधानमंत्री राव तटस्थता के समर्थक हैं। इसलिए उन्होंने 85 सांसदों द्वारा सीबीआई जांच की मांग को न ही स्वीकार किया और न ही ठुकराया। पायलट के पत्र को पवार के खिलाफ महज पायलट की साजिश नहीं मान सकते। क्योंकि इतने संवेदनशील मुद्दे पर पायलट बिना प्रधानमंत्री कार्यालय के इशारे के कुछ नहीं कर सकते थे।
मंत्रिपरिषद की परस्पर विरोधी बयानबाजियां भाजपा पर अर्जुन सिंह और नरसिंह राव द्वारा दिये गये वक्तव्यों से भी स्पष्ट होती है। भाजपा को लेकर जिस तरह इन दो वरिष्ठ नेताओं ने परस्पर विरोधी बयान दिए। उससे भी मंत्रिपरिषद में दरार ही पड़ती नजर आ रही थी।
घरेलू मुद्दों पर इंका ने जिस परस्पर विरोधी चरित्र को स्वीकार किया है उससे मुद्दों की गंभीरता में जहां एक ओर गिरावट आई है वहीं मुद्दों से टकराव की परम्परा भी चल निकली है। यह परम्परा विदेशी मामलों में भी उजागर हुई है। खासतौर पर पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करने के सम्बन्ध में के न्द्रीय गृह मंत्री चव्हाण और विदेश मंत्री दिनेश सिंह के वक्तव्यों में देखी जा सकती है। इसी विरोध की खाई को पाटने के लिए कांग्रेस को फिर एक करिश्माई नेतृत्व की आवश्यकता आन पड़ी है। जिसके लिए कठौरा (अमेठी) अधिवेशन में सोनिया गांधी की उपस्थिति दर्ज कराकर लाभ उठाने की कोशिश जारी है। अपने राजनीतिक प्रस्तावों खासतौर पर पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करने तथा साम्प्रदायिकता के विरूद्ध जेहाद छेड़ने के सभी मुद्दों पर कांग्रेस बिखरी दिखेगी और फिर अनुशासन समिति का लाभ उठाने की कोशिश की जाएगी। लेकिन मंत्रि परिषद और इंका संगठन को सामूहिक नेतृत्व की जिम्मेदारी से कटने से रोकने के लिए अनुशासन समिति कब तक इस्तेमाल होगी। जरूरी यह है कि कांग्रेस के भीतर लोकतंत्र कायम करने का प्रयास हो और वह लोकतंत्र ही सब कुछ तय करे। वर्ना जब तक समानान्तर कद वाले कई लोग रहेंगे तब तक काट-छांट की परम्परा चलती रहेगी।
बम्बई बम विस्फोट पर मंत्रिपरिषद जितनी बंटी दिखी वह कोई खास मुद्दा नहीं था। राव के सत्ता संभालने के बाद से ही सभी अहम मुद्दों पर मंत्रिपरिषद बिखराव की शिकार रही। बोफोर्स काण्ड से बम्बई बम विस्फोट तक सभी मुद्दों पर यह बिखराव साफ-साफ दिखा। इस प्रक्रिया की शुरूआत भाजपा से सीधे तौर पर लड़कर सामुदायिक शक्तियों से लड़ने वाला मसीहा हो जाने की अर्जुन सिंह व राव की मुहिम से हुई थी। तभी तो जब अर्जुन सिंह राव को भाजपा के खिलाफ लड़ने से कमजोर पाने पर पत्र लिखते थे, तब राव का कोई सिपहसालार अर्जुन विरोधी बयान दे डालता था। वैसे इस तरह के सिपहसालारों की एक लंबी फेहरिश्त हर इकाई प्रधानमंत्री ने अपने पास रखी थी। परंतु इसके फेहरिश्त के लोग अभी तक पार्टी संगठन में रखे जाते थे या इस कार्य को पूरा करने का दायित्व सांगठनिक लोगों को दिया जाता था। परंतु राव ने यह कार्य मंत्रिपरिषद के कुछ लोगों को सौंपकर सामूहिक दायित्व जैसी परम्परा का निर्वहन करने से मंत्रिपरिषद को विमुख किया है।
यह बात तो साफ ही हो गई है कि मंत्रिपरिषद या तो पूरी तरह कंफ्यूज है या तो पूरे देश को कंफ्यूज करने की कोशिश की जा रही है। इसके पीछे एक नाटकीय प्रक्रिया के तहत माफिया डाॅन दाउद इब्राहिम से राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के सम्बन्धों को छिपाना भी हो सकता है। यदि यह कोई पूर्ण रूप से नाटकीय प्रक्रिया नहीं होती तो विदेश मंत्री बार-बार यह क्यों कहते कि बम्बई विस्फोटों में पाकिस्तान के हाथ के होने के ठोस सबूत नहीं हैं।
ऐसे परस्पर विरोधी बयानों और पार्टी के अंर्तकलह के साथ-साथ गोपनीयता जैसे अहम मुद्दे को भंग करने के लिए राव के विदेश मंत्री सहित सभी सिपहसालार के न्द्रीय मंत्रिपरिषद तथा इंका संगठन की एकल और सामूहिक दायित्व जैसी जिम्मेदारी के दोषी ही माने जायेंगे।
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