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कांग्रेसी संस्कृति से अलग नहीं हैं प्रधानमंत्री
प्रधानमंत्री नरसिंह राव को हर्षद मेहता के सनसनीखेज रहस्योद्घाटन के बाद इस्तीफा दे देना चाहिए। प्रधानमंत्री का इस्तीफा देना या न देना उनकी नैतिकता पर निर्भर करता है। नरसिंह राव जैसे प्रधानमंत्री से नैतिकता की उम्मीद वैसे भी लाल बहादुर शास्त्री के काल को छोड़कर राजनीति में नैतिकता की स्वीकारोक्ति का अध्याय नहीं रहा। छिटपुट कुछ घटनाएं नैतिकता के बहाने सामने जरूर आयीं परन्तु उनके पीछे कारण कुछ और ही रहे। राजीव गांधी के काल तक सर्वाधिक गैर विवादास्पद व्यक्तित्व बनाए रख पाने में सफल पी.वी. नरसिंह राव हिन्दुस्तान के इतिहास में सर्वाधिक विवादास्पद प्रधानमंत्री के रूप में याद किये जाएंगे।
मनमोहन सिंह के माध्यम से विकासशील अर्थतंत्र में विकसित देशों की आर्थिक प्रणाली के उपकरणों का प्रयोग करके भारतीय अर्थव्यवस्था को बून की ओर पहुंचाने का दंभ जिस समय सरकार का टूटा था क्या उसी समय प्रधानमंत्री का पद पर बने रहना नैतिकता का तकाजा था। आरोप-प्रत्यारोप के साथ कोई दुर्भावना भले ही हो लेकिन भारतीय लोकतंत्र के भौतिकवादी चरित्र को देखते हुए इस तरह की घटनाओं से इंकार अवश्य नहीं किया जा सकता।
28 अप्रैल, 1992 को प्रतिभूति घोटाले के भंडाफोड के समय सरकार को वित्तीय संसाधनों की जांच क्या नहीं करानी चाहिए थी? अगर प्रधानमंत्री के पास नैतिकता का कुछ भी तकाजा शेष था। 03 जून, 1992 को भारतीय स्टेट बैंक के अध्यक्ष एम.एन. गोपोरिया को लंबी छुट्टी पर भेजने का क्या उद्देश्य था। प्रतिभूति घोटाले की राशि 3000 करोड़ रूपए तक होने के बाद भी नरसिंह राव सरकार और उनकी सीबीआई घोटाले के पूरी राशि का पता क्यों नहीं लगा सकी? यह प्रधानमंत्री और उनके पूरे तंत्र पर एक सवालिया निशान है। इस प्रश्नवाचक चिन्ह के बाद भी प्रधानमंत्री का सरल और सपाट ढंग से आरोप को निराधार बता देना कैसे विश्वसनीय माना जा सकता है? प्रधानमंत्री के बचाव में जुटे लोग हर्षद मेहता और प्रधानमंत्री की मुलाकात को आधारहीन ठहराने पर जुटे हैं। जबकि प्रधानमंत्री से मिलने के लिए जिन ढेर सारी औपचारिकताओं की पूर्ति आवश्यक होती है, उनके दस्तावेज अभी तक बचाव में जुटी टोली नहीं जुटा पा रही है।
प्रधानमंत्री का चंदा लेना न लेना जिस तरह मौखिक आरोप/स्पष्टीकरण का विषय बनाया जा रहा है, उससे संदेह के बादल और घने होते जा रहे हैं। अगर हर्षद मेहता ने 67 लाख रूपये 04 नवंबर को निजी सहायक रामचंद्र के शव खाण्डेकर को तथा 33 लाख की दूसरी किश्त 05 नवंबर को सतपाल मित्तल के निजी सचिव मनमोहन शर्मा को दी, तो हर्षद मेहता और प्रधानमंत्री के इर्द-गिर्द छिटके राजनीतिक और व्यक्तित्व सम्बन्धों के खातों से खुलासा किया जा सकता है।
प्रधानमंत्री की ओर से आरोपों का तर्क और प्रमाण से खण्डन न करना इन्दिरा गांधी के तेल सौंदांे और राजीव गांधी के बोफोर्स की याद दिलाता है। प्रधानमंत्री इस समय उसी प्रकार अपने आप को बेदाग बता रहे हैं, जैसे कोई अपराधी स्वयं यह कहता है कि उसने कोई अपराध नहीं किया। फिर भी न्यायालय उसे अपराध न करने का सबूत जब तक नहीं पा लेता सन्तुष्ट नहीं होता। तमाम ऐसे भी मौके आते हैं जब सचमुच किसी सीधे-साधे व्यक्ति को किसी गम्भीर मामले में फंसा दिया जाता है। फिर भी उसके लाख सत्यता की दुहाई देने पर क्या उसकी सजा माफ कर दी जाती है। ऐसा तो आज तक इस देश के न्यायिक इतिहास में नहीं देखने को मिला।
आज प्रधानमंत्री से बचाव पक्ष में जुटे शरद पवार और अर्जुन सिंह, हर्षद मेहता को विश्वसनीय और इसे एक ब्लैकमेल प्रकरण बता रहे हैं। इन्हीं दिग्गजों ने हर्षद मेहता को राजनीतिक संरक्षण देने की मुहिम चलायी थी।
वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने शेयरों के बेतहाशा बढ़ते मूल्यों को अपनी नई आर्थिक नीति की उपलब्धि बताया था।
भारत मूलतः राजनीति प्रधान देश है। इसके सामाजिक चरित्र में राजनीतिक प्रभावी पक्ष देखा जा सकता है।
हर्षद मेहता तीन हजार करोड़ रूपए का घोटाला इस परिवेश में बिना राजनीतिक संरक्षण के कैसे कर सकता है? यह बात राव समर्थकों की समझ में अभी तक क्यों नहीं आई। हर्षद मेहता की अविश्वसनीयता का सवाल इसलिए भी बौना हो जाता है क्योंकि एक समय वह विश्वसनीय अर्थव्यवस्था का प्रतीक माना जा चुका था। जो भी आरोप प्रधानमंत्री पर लगाए हैं, उसके लिए बाकायदा हलफनामेे का प्रयोग किया है। उसके बाद देश के जाने-माने वकील राम जेठमलानी भी थे, जो भारतीय संसद के स्वयं भी एक सम्मानित सदस्य हैं। हलफनामे में जो कुछ भी कहा गया है। प्रथम दृष्टया उससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन प्रधानमंत्री ने जो कुछ भी सफाई दी हे, उसे प्रथम दृष्टया स्वीकार करना सहज नहीं है। हमारी राजनीति का चरित्र सचमुच ऐसा ही है कि ऐसे आरोपों पर अविश्वास नहीं किया जा सकता। हमारा लोकतंत्र तेली की वह घानी है, जिसमें आधा तेल आधा पानी है। नरसिंह राव के प्रधान मंत्रित्व काल में जो भी घटनाएं देश में घटी हैं, उनसे नैतिकता का जो भी सम्बन्ध रहा, वह आहत ही हुआ है। किसी देश का प्रधानमंत्री चंद्रास्वामी जैसे आदमी को अपना गुरू स्वीकार कर चुका हो। दिसम्बर 1992 को राष्ट्र के नाम संदेश में जिस नैतिकता का पालन प्रधानमंत्री ने किया है, क्या वह कम दृष्ट्या है? इतना ही नहीं, फिर चार राज्यों में गैर इंका सरकारों को भंग करने के मुद्दे पर राव की नैतिकता देखी जा सकती है। रामास्वामी प्रकरण का काला अध्याय लिखने वाले नरसिंह राव से किसी नैतिकता की उम्मीद करना कितना लाजमी होगा? यह खुद तय किया जा सकता है।
हिन्दुस्तान की संसद को रामास्वामी प्रकरण पर पहली बार न्याय करने का एक अवसर मिला था। और नरसिंह राव उस अवसर पर भी नहीं चूके । उन्होंने अपना नाम गिनीज बुक आॅफ वल्र्ड रिकार्ड में दर्ज कराने की अकलमंदी की। किसी महाभियोग के प्रकरण पर न बोलने वाले दुनिया के पहले प्रधानमंत्री बन बैठे, जिसने न स्वयं मतदान किया और न ही अपने दल को करने दिया।
अगर 200 सांसद मत देकर रामास्वामी को भ्रष्ट करार नहीं दे सकते तो प्रधानमंत्री द्वारा गठित संसदीय समिति के बचाव के तर्कों को कैसे स्वीकार किया जा सकता है?
नरसिंह राव का प्रधानमंत्री बनने के बाद से नैतिकता से जो रिश्ता टूटा है, अब उसका जुड़ पाना संभव नहीं है। फिर नैतिकता के तहत इस्तीफा क्यों? इस्तीफा दे देने से क्या इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति रूक जाएगी।
नरसिंह राव कांग्रेस और नैतिकता कैसे संभव है? जब देश में तीन हजार करोड़ का आर्थिक घोटाला होता है। प्रधानमंत्री का अंर्तमन इस्तीफा देने के लिए हुलास नहीं करता। जब देश में बाबरी ढांचा ध्वस्त होता है तो प्रधानमंत्री का मन इस्तीफा देने के बजाय राष्ट्र के नाम संदेश देने को कहता है। जब गोल्ड स्टार घोटाले के प्रधानमंत्री के परिवार पर आक्षेप आता है, तो प्रधानमंत्री स्वयं को एक साधारण अपराधी की तरह पाक-साफ साबित करने की कोशिश करते हैं। जब एक न्यायाधीश भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबने के बाद कटघरे में खड़ा होता है तो प्रधानमंत्री का मन उसे बचाने के लिए कुछ भी कीमत अदा करने को कहता है। भला ऐसा प्रधानमंत्री एक शेयर दलाल के द्वारा लगाए गए आरोप पर इस्तीफा देने की सोच भी सकता है। यह तो संभव नहीं। यह न तो नरसिंह राव का कल्चर है और न कांग्रेस का। आखिर वही हुआ। इंका कार्यसमिति बैठक में राव में महत्वपूर्ण आस्था व्यक्त करने का प्रस्ताव पारित कर दिया। कांग्रेसी संस्कृति भी यही कहती थी। इससे अलग कुछ नहीं होना था। आज काफी देर तक चली बैठक में सबने एक स्वर से हर्षद मेहता द्वारा लगाये गये आरोप को शरारत पूर्ण सुनियोजित साजिश बताया और कहा, हम श्री राव में पूर्ण आस्था व्यक्त करते हैं।
इस तर्क से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि यह शरारत हो परंतु हर्षद मेहता ने कम से कम ऐसी घटनाओं पर उंगली तो उठायी, जो हमारी व्यवस्था का पूरी तौर से अंग बन चुकी है। राव और हर्षद मेहता के रिश्तों पर संशय खड़ा करने की सफलता इंका कार्य समिति अर्जित कर सकती है। पर कांग्रेस ने समाज में इन रिश्तों की जो आधारशिला रखकर मजबूती प्रदान की है। उससे इंकार करने का दम उसमें है क्या?
नरसिंह राव ने मतदाताओं के साथ चाहे जो किया हो परन्तु अपनी कांग्रेस, कांग्रेस संस्कृति का अनुपालन किया है, जिसमें नैतिकता के आधार पर पद न छोड़ने की एक लंबी फेहरिश्त है। 1962 में चीन से शर्मनाक पराजय के बाद नेहरू से नैतिकता के आधार पर इस्तीफे की मांग की गयी थी, उस समय सत्ता और विपक्ष दोनों कांग्रेसी थे। फिर इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 1975 में प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित करने के बाद विपक्ष द्वारा नैतिकता के आधार पर इस्तीफे की मांग की गयी, जिसके परिणाम स्वरूप नैतिकता ने उन्हें आपातकाल लगाने को विवश कर दिया।
राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में मिस्टल क्लीन पर बोफोर्स दलाली के जो आरोप लगे, उस पर भी उनकी नैतिकता ने नेहरू और इन्दिरा गांधी के निर्णयों की पुनरावृत्ति की। फिर नरसिंह राव पर कांग्रेसी परम्परा संस्कृति से इतर हटकर इस्तीफा देने का जो आरोप लगता, उसे वह कैसे सहन करते। उनकी कांग्रेसियत आड़े आ रही थी। क्योंकि नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र देने से वे नेहरू, इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी की कड़ी से अलग हो जाते और यह अलग होना हर्षद मेहता के आरोप सत्यता से ज्यादा गंभीर और दुखद हैं।
मनमोहन सिंह के माध्यम से विकासशील अर्थतंत्र में विकसित देशों की आर्थिक प्रणाली के उपकरणों का प्रयोग करके भारतीय अर्थव्यवस्था को बून की ओर पहुंचाने का दंभ जिस समय सरकार का टूटा था क्या उसी समय प्रधानमंत्री का पद पर बने रहना नैतिकता का तकाजा था। आरोप-प्रत्यारोप के साथ कोई दुर्भावना भले ही हो लेकिन भारतीय लोकतंत्र के भौतिकवादी चरित्र को देखते हुए इस तरह की घटनाओं से इंकार अवश्य नहीं किया जा सकता।
28 अप्रैल, 1992 को प्रतिभूति घोटाले के भंडाफोड के समय सरकार को वित्तीय संसाधनों की जांच क्या नहीं करानी चाहिए थी? अगर प्रधानमंत्री के पास नैतिकता का कुछ भी तकाजा शेष था। 03 जून, 1992 को भारतीय स्टेट बैंक के अध्यक्ष एम.एन. गोपोरिया को लंबी छुट्टी पर भेजने का क्या उद्देश्य था। प्रतिभूति घोटाले की राशि 3000 करोड़ रूपए तक होने के बाद भी नरसिंह राव सरकार और उनकी सीबीआई घोटाले के पूरी राशि का पता क्यों नहीं लगा सकी? यह प्रधानमंत्री और उनके पूरे तंत्र पर एक सवालिया निशान है। इस प्रश्नवाचक चिन्ह के बाद भी प्रधानमंत्री का सरल और सपाट ढंग से आरोप को निराधार बता देना कैसे विश्वसनीय माना जा सकता है? प्रधानमंत्री के बचाव में जुटे लोग हर्षद मेहता और प्रधानमंत्री की मुलाकात को आधारहीन ठहराने पर जुटे हैं। जबकि प्रधानमंत्री से मिलने के लिए जिन ढेर सारी औपचारिकताओं की पूर्ति आवश्यक होती है, उनके दस्तावेज अभी तक बचाव में जुटी टोली नहीं जुटा पा रही है।
प्रधानमंत्री का चंदा लेना न लेना जिस तरह मौखिक आरोप/स्पष्टीकरण का विषय बनाया जा रहा है, उससे संदेह के बादल और घने होते जा रहे हैं। अगर हर्षद मेहता ने 67 लाख रूपये 04 नवंबर को निजी सहायक रामचंद्र के शव खाण्डेकर को तथा 33 लाख की दूसरी किश्त 05 नवंबर को सतपाल मित्तल के निजी सचिव मनमोहन शर्मा को दी, तो हर्षद मेहता और प्रधानमंत्री के इर्द-गिर्द छिटके राजनीतिक और व्यक्तित्व सम्बन्धों के खातों से खुलासा किया जा सकता है।
प्रधानमंत्री की ओर से आरोपों का तर्क और प्रमाण से खण्डन न करना इन्दिरा गांधी के तेल सौंदांे और राजीव गांधी के बोफोर्स की याद दिलाता है। प्रधानमंत्री इस समय उसी प्रकार अपने आप को बेदाग बता रहे हैं, जैसे कोई अपराधी स्वयं यह कहता है कि उसने कोई अपराध नहीं किया। फिर भी न्यायालय उसे अपराध न करने का सबूत जब तक नहीं पा लेता सन्तुष्ट नहीं होता। तमाम ऐसे भी मौके आते हैं जब सचमुच किसी सीधे-साधे व्यक्ति को किसी गम्भीर मामले में फंसा दिया जाता है। फिर भी उसके लाख सत्यता की दुहाई देने पर क्या उसकी सजा माफ कर दी जाती है। ऐसा तो आज तक इस देश के न्यायिक इतिहास में नहीं देखने को मिला।
आज प्रधानमंत्री से बचाव पक्ष में जुटे शरद पवार और अर्जुन सिंह, हर्षद मेहता को विश्वसनीय और इसे एक ब्लैकमेल प्रकरण बता रहे हैं। इन्हीं दिग्गजों ने हर्षद मेहता को राजनीतिक संरक्षण देने की मुहिम चलायी थी।
वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने शेयरों के बेतहाशा बढ़ते मूल्यों को अपनी नई आर्थिक नीति की उपलब्धि बताया था।
भारत मूलतः राजनीति प्रधान देश है। इसके सामाजिक चरित्र में राजनीतिक प्रभावी पक्ष देखा जा सकता है।
हर्षद मेहता तीन हजार करोड़ रूपए का घोटाला इस परिवेश में बिना राजनीतिक संरक्षण के कैसे कर सकता है? यह बात राव समर्थकों की समझ में अभी तक क्यों नहीं आई। हर्षद मेहता की अविश्वसनीयता का सवाल इसलिए भी बौना हो जाता है क्योंकि एक समय वह विश्वसनीय अर्थव्यवस्था का प्रतीक माना जा चुका था। जो भी आरोप प्रधानमंत्री पर लगाए हैं, उसके लिए बाकायदा हलफनामेे का प्रयोग किया है। उसके बाद देश के जाने-माने वकील राम जेठमलानी भी थे, जो भारतीय संसद के स्वयं भी एक सम्मानित सदस्य हैं। हलफनामे में जो कुछ भी कहा गया है। प्रथम दृष्टया उससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन प्रधानमंत्री ने जो कुछ भी सफाई दी हे, उसे प्रथम दृष्टया स्वीकार करना सहज नहीं है। हमारी राजनीति का चरित्र सचमुच ऐसा ही है कि ऐसे आरोपों पर अविश्वास नहीं किया जा सकता। हमारा लोकतंत्र तेली की वह घानी है, जिसमें आधा तेल आधा पानी है। नरसिंह राव के प्रधान मंत्रित्व काल में जो भी घटनाएं देश में घटी हैं, उनसे नैतिकता का जो भी सम्बन्ध रहा, वह आहत ही हुआ है। किसी देश का प्रधानमंत्री चंद्रास्वामी जैसे आदमी को अपना गुरू स्वीकार कर चुका हो। दिसम्बर 1992 को राष्ट्र के नाम संदेश में जिस नैतिकता का पालन प्रधानमंत्री ने किया है, क्या वह कम दृष्ट्या है? इतना ही नहीं, फिर चार राज्यों में गैर इंका सरकारों को भंग करने के मुद्दे पर राव की नैतिकता देखी जा सकती है। रामास्वामी प्रकरण का काला अध्याय लिखने वाले नरसिंह राव से किसी नैतिकता की उम्मीद करना कितना लाजमी होगा? यह खुद तय किया जा सकता है।
हिन्दुस्तान की संसद को रामास्वामी प्रकरण पर पहली बार न्याय करने का एक अवसर मिला था। और नरसिंह राव उस अवसर पर भी नहीं चूके । उन्होंने अपना नाम गिनीज बुक आॅफ वल्र्ड रिकार्ड में दर्ज कराने की अकलमंदी की। किसी महाभियोग के प्रकरण पर न बोलने वाले दुनिया के पहले प्रधानमंत्री बन बैठे, जिसने न स्वयं मतदान किया और न ही अपने दल को करने दिया।
अगर 200 सांसद मत देकर रामास्वामी को भ्रष्ट करार नहीं दे सकते तो प्रधानमंत्री द्वारा गठित संसदीय समिति के बचाव के तर्कों को कैसे स्वीकार किया जा सकता है?
नरसिंह राव का प्रधानमंत्री बनने के बाद से नैतिकता से जो रिश्ता टूटा है, अब उसका जुड़ पाना संभव नहीं है। फिर नैतिकता के तहत इस्तीफा क्यों? इस्तीफा दे देने से क्या इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति रूक जाएगी।
नरसिंह राव कांग्रेस और नैतिकता कैसे संभव है? जब देश में तीन हजार करोड़ का आर्थिक घोटाला होता है। प्रधानमंत्री का अंर्तमन इस्तीफा देने के लिए हुलास नहीं करता। जब देश में बाबरी ढांचा ध्वस्त होता है तो प्रधानमंत्री का मन इस्तीफा देने के बजाय राष्ट्र के नाम संदेश देने को कहता है। जब गोल्ड स्टार घोटाले के प्रधानमंत्री के परिवार पर आक्षेप आता है, तो प्रधानमंत्री स्वयं को एक साधारण अपराधी की तरह पाक-साफ साबित करने की कोशिश करते हैं। जब एक न्यायाधीश भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबने के बाद कटघरे में खड़ा होता है तो प्रधानमंत्री का मन उसे बचाने के लिए कुछ भी कीमत अदा करने को कहता है। भला ऐसा प्रधानमंत्री एक शेयर दलाल के द्वारा लगाए गए आरोप पर इस्तीफा देने की सोच भी सकता है। यह तो संभव नहीं। यह न तो नरसिंह राव का कल्चर है और न कांग्रेस का। आखिर वही हुआ। इंका कार्यसमिति बैठक में राव में महत्वपूर्ण आस्था व्यक्त करने का प्रस्ताव पारित कर दिया। कांग्रेसी संस्कृति भी यही कहती थी। इससे अलग कुछ नहीं होना था। आज काफी देर तक चली बैठक में सबने एक स्वर से हर्षद मेहता द्वारा लगाये गये आरोप को शरारत पूर्ण सुनियोजित साजिश बताया और कहा, हम श्री राव में पूर्ण आस्था व्यक्त करते हैं।
इस तर्क से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि यह शरारत हो परंतु हर्षद मेहता ने कम से कम ऐसी घटनाओं पर उंगली तो उठायी, जो हमारी व्यवस्था का पूरी तौर से अंग बन चुकी है। राव और हर्षद मेहता के रिश्तों पर संशय खड़ा करने की सफलता इंका कार्य समिति अर्जित कर सकती है। पर कांग्रेस ने समाज में इन रिश्तों की जो आधारशिला रखकर मजबूती प्रदान की है। उससे इंकार करने का दम उसमें है क्या?
नरसिंह राव ने मतदाताओं के साथ चाहे जो किया हो परन्तु अपनी कांग्रेस, कांग्रेस संस्कृति का अनुपालन किया है, जिसमें नैतिकता के आधार पर पद न छोड़ने की एक लंबी फेहरिश्त है। 1962 में चीन से शर्मनाक पराजय के बाद नेहरू से नैतिकता के आधार पर इस्तीफे की मांग की गयी थी, उस समय सत्ता और विपक्ष दोनों कांग्रेसी थे। फिर इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 1975 में प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित करने के बाद विपक्ष द्वारा नैतिकता के आधार पर इस्तीफे की मांग की गयी, जिसके परिणाम स्वरूप नैतिकता ने उन्हें आपातकाल लगाने को विवश कर दिया।
राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में मिस्टल क्लीन पर बोफोर्स दलाली के जो आरोप लगे, उस पर भी उनकी नैतिकता ने नेहरू और इन्दिरा गांधी के निर्णयों की पुनरावृत्ति की। फिर नरसिंह राव पर कांग्रेसी परम्परा संस्कृति से इतर हटकर इस्तीफा देने का जो आरोप लगता, उसे वह कैसे सहन करते। उनकी कांग्रेसियत आड़े आ रही थी। क्योंकि नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र देने से वे नेहरू, इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी की कड़ी से अलग हो जाते और यह अलग होना हर्षद मेहता के आरोप सत्यता से ज्यादा गंभीर और दुखद हैं।
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